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१७.
मेरुसुन्दरगणि-विरचित अटायु पांखिउ आज पछइ तुम्हारइ साहम्मी ।' पछह श्रीरामईते जटायु पाखीउ बांधवनी रीतिई बहुमान देई संघाति लीघउ ।
हिव च्यारिइ तिहां-हतां चाल्या-राम, लक्ष्मण, शीता, जटायु पांखीउ । पंथ अवगाहता दक्षिग-देसि पंचवटी, गोदावरीनइ कांठइ आव्या । तिसिई तिहां अनेक नदीना जल चर जीव, तेहना शब्द सांभलतु हनु, लक्ष्मणकुमार नदीना कउतिग जोतउ जोतउ 'वंसियालि एक-माहि गयउ । तिहां जउ जोइ, तु एक खड्ग दीठउं । तिवारइं लक्ष्मणि ते खांडउं हाथि लेई, रामति-लगइ लीलाई खनि करी वसियालि छेदी । तेतलई माहि अग्निनउ कंड दीठउ । तिहां वली ऊंधइ माथइ, ऊपहरे पगे, पुरुष एक धूम्रपान करतउ एहवउ खड्गिइ छेदाणउ द ठउ । ते देखो लक्ष्मण चीतवह, 'मइ तां पुरुष एक निरपराध हणिउ ।' माथउं अग्नि ऊपरि दीठउं अनइ डील भूमिकाइ पडिउ । ते तिहां एवउ संबंध देखी वडी वार-ताई शोचा करी खड्ग लेई रामनइ देखाडिउं । तिवारइ राम कहइ, 'बांधव ! ए तु चंद्रहास खड़ग । एहनउ साधक तई हणिउ । तु वली एहनउ रखवालउ पणि कोई हुसिइ ।'
तीणइ प्रस्तावि पाताल-लंकानउ अधिपति खर नामा राक्षस, तेहनी वल्लभा अनइ रावणनी बहिन सूर्पनखा, ते आपणा पुत्रनइ जेतलइ जोवा आवी, तेतलइ वसियालि-माहि पनड धड अनइ मस्तक जूजूआं देखी, रोती कहइ, 'रे वत्स ! तूं कुणिहि हणिउ ?' इम विलाप करती पगिइं पगि पंचवटीइ जिहां राम-लक्ष्मण छई तिहां आवी । तेतलइ राम-लक्ष्मणनां रूप देखी व्यामोही हूंती, पुत्रनी असमाधि मूकी 'कामविह्वल हूंती, प्रार्थना करइ जउ, 'माहरउं पाणिग्रहण करि ।' तिवारइ रामि कहिलं, 'अहो ! माहरइ तु भार्या छइ । तूं लक्ष्मण-कन्हलि जा। पछइ लक्ष्मण-कन्हलि जई प्रार्थना करिवा लागी । तिवारइ वलतू लक्षमणि कहिउं. 'अहो ! तई तु पहिलङ वडा बांधवनी प्रार्थना कीधी, इणि कारणि तं माहरड भउजाइ हुई ।' पछइ वली कामात हूंता राम-समीपि आवी । तिवारइं शीताई ते गाढी हसी ।
पछइ ते सूर्पनखा अत्यंत रीसाणी हूंती आपणउ पति खर राक्षस,ते-कन्हलि जई मंबूक-पुत्रना मरणनी बात कही । तेतलई तत्काल ते खर राक्षस चउद सहस्र सभट लेई रामलक्ष्मण-साथि झूझ करिवा आविउ | तिबारई लक्ष्मणि श्रीराम शीताना रखोपा-भणी मोकलिउ, अनइं आपणपई लक्ष्मण एकांग-वीर युद्ध करिवा रहिउ । तिवारहुं श्रो रामई कहिउ. 'बांधव ! जिवारई कई गाढी आपदा आवइ, तिवारइत सिंहनाद करे।' इम कही राम शीता-कन्हलि गयउ । पछइ लक्ष्मण एकलउ ते खर राक्षस-साथि झूझ करिवा लागउ । तिसिई राक्षस भाजिवा लागा। एहवइ ते सूर्पनखा भरिनी सखायत-भणी त्रिकूट-पर्वति आई, दशवदन रावणनइ यहइ, 'अहो बांधव ! दंडकारण्य माहि राम-लक्ष्मण आव्या छ । ते खरमाथि अझ करइ उई । तेह-भणी तुम्हे वहिला आवउ । मुझनइ पति-भिक्षा दिउ। अनह ते वइरीनइ हणो दसइ दिसिनइ विषइ बलि दिउ । वली एक वात सांभलि । तिहां लक्ष्मण एकलउ अझ करइ छ । अनइ जे श्रीराम, ते गवित हूंतउ शीता-साथि क्रीडा करइ छइ । तु बांधव एहवउं स्त्रीरत्न पृथ्वी-माहि नथी ।'
ए वात सांभली कामातुर हूंतउ रावण तत्क्षण पुष्पक विमानि बइसी जिहां शीता बुद्ध विहां आविउ । पणि श्रीराम-छतां शीतानह हरी न सका। पछह रावणि अवलोकिनी विद्या स्मरी । तिवारइ ते आवीनइ कहइ, 'स्वामी ! मह इहां कांई न चालइ ।
१, P. वंशजालि । २. K. काभि पीडी ढुंती ।
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