________________
मेरुसुन्दरगणि-विरचित लउ। जु मह राम टाली त्रिधा-सुद्धिइ बीजउ कोई पुरुष ध्यायउ हुइ, तु मुझनइ आगि भस्म करिज्यो, नही तु आगि फीटी पाणीनउ कुंड होज्यो।' इम कही जिम शीताइ आगि-माहि झांप दीधी, तिम शीलनइ प्रमाणि आगि शीतल हुई .। वावनी परिई ते खाई पाणी[इ] भराणी । ते पाणी-माहि सहस्रदल कमल हुआं । ते कमल-परि रत्नमय सिंहासन । ते ऊपरि शीता बइठी, लक्ष्मीनी परि सोभिवा लागी। तिसिइ देवताए शीताना मस्तक-ऊपरि कुसुम-वृष्टि कीधी । 'अहो शीलमहो शीलं' इम देवता प्रसंसा करिवा लागा। एहवउं 'मातानउ स्वरूप देखी ला अनइ कुश बेहू पुत्र आवी फ्गे लागा। तेतलइ लक्ष्मणादिक तेह. इ नमस्करिवा लागा। तेतलइ वली श्रीराम आवी हाथ जोडी कहिवा लागउ, 'हे देवी ! मइ जे लोकनी वाते तूं अरण्य-माहि मूकाबी अनइ सांप्रत वली तुझ-पाहंति दिव्य कराविडं इत्यादिक सर्व माहरउ अपराध ख म । हिव ईणइ विमानि ब्रहमी आपणिइ घरि आवि । राज्यलक्ष्मी सफल करि ।' तिवारइ शीता कहइ, 'हे प्रियतम ! ए तोहरउ दोस नही, न अनेरानउ दोस । किंतु ए माहरा कर्मनउ दोस । एह-भणी माहरइ संसारनइ सुखि करी सरिउं । हिव हैं दुक्खना छेद-भणी जि दीक्षा लेसु-पछइ मोटइ महोत्सवि श्रीरामइ अनइ शीताइ बिहूंजणे दीक्षा लीधी । इम घणु काल चास्त्रि' पाळी श्रीसम मोक्षि पहुतउ । अनइ शीता शीतेंद्र हउ । तिहां देवलोकनां सुख भोगवी क्रमिई कर्मनई क्षयि शीता मोक्ष(१क्षि) जासिइ ।
इति श्रोशीलोपदेशमाला-बालाविबोधे शीता-महासती-कथा समाप्ता ॥४२॥
वली महासतीना लक्षण कहइजा सीलभंग-सामरिग-संभवे निच्चला सई एसा ।
इयरा महासईओ घरे घरे संति पउराओ ॥१०९ व्याख्या:-जे स्त्री शील-भंगनी सामग्री हूंती इ आपणउं शोल पालिवा-भणी दृढ हुइ-ते सामग्री कउण ? रूप, लावण्य, यौवन, नरनी प्रार्थना, लक्ष्मीना उन्माद, एकांत प्रदेश, राजादि, ग्रहादि कारणे-जु शीलभंग न करइ, तु इम जाणीइ ते महासती। अनइ एह-ती जे अनेरी सती, ते घरि घरि घणी इ दीसइ ।
वली शीलरक्षानउ उपाय कहइ
तह वि हु एगंताई-संगो निच्चं पि परिहरेअव्यो । - जेण य विसमो इंदियगामो तुच्छाई सत्ताई ॥११०
व्याख्याः -यद्यपि शील पालतां दोहिलङ छइ, पण तु ही शलना पालणहार नरनारीए एकांति संग सदाइ वर्जिवउ । जिणि कारणे जीवनइ जे इंद्रियग्राम, ते तु महा विषम अति दर्जय छइ । अनइ जे सत्त्व:साहस ते तु थोड़ा। इणि करणि, निसत्त्व जोवनइ पडतां वार न लागडा तेह-भगो शोलवंत पुरुषे एकांति स्त्री-संग टारिवउ । तिम स्त्रोइ पणि एकांति पुरुषनउ संग टालिवउ।
अथ ते संग-लगी जे दोष ऊपजइ ते कहइ
जइ वि हु नो वय-भंगो तह वि हु संगाउ होइ अववाओ।
दोस-निहालण-निउणो सत्रो पायं जणो जेण ॥११२ १. C. L.P. शीतान।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org