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________________ शौलोपदेशमाला बालाघवोध १७९ व्याख्याः -यद्यपि ते. यतेंद्रियनह ब्रह्मवतनउ भंम न हुइ, पणि तथापि संग-लगी अपवाददोषादिक कारण ऊपजइ । जिणि कारणि, प्रवाहि लोक दोष लेवानई' विष सावधान छ । हिव शीलनउ उपदेश कहइ ता सव्वहा वि सीलम्मि उज्जम तह करेह भो भव्वा । जह पावेह लहु-च्चिय संसारं तरिय सिव-सुक्ख ॥११२ व्याख्याः -अहो भविको ! तेह कारण-इतु मनसा वा वा कर्मणा-त्रिकरण-सुद्धिई, शीलनइ विषह उद्यम करउ, जिम लव-शीघ्र संसार-समुद्र तरी शिव-सौरव्य पामउ। हिवइ ग्रंथनउ करणहार स्व-गर्व-परिहार-पूर्वक सर्व-संग्रह उपदेस कहा इय सील भावणाए भावंतो निच्चमेव अप्पाणं । धन्नो धरिज्ज बंभं धम्म-महा-भवण-थिर-थंभं ॥११३ व्याख्याः -ईणइ प्रकारि=पूक्ति उपदेश, दृष्टांतरूप शीलनी भावनाई करी, नित्य-सदाई, आपणपुं भावता हूंता, हे धन्यो भाग्यवतो, जीवो, तुम्हे ब्रह्मवत शीलवत धरउ प्रतिपालउ । पणि ते ब्रह्मवत केहवउं छइ ? धर्मरूपीउ महागरुउ भुवन आवास, तेह थोभिवा-भणी निश्चल स्तंभ-समान ए ब्रह्मवत छई। जिम प्रासाद स्तंभि करी निश्चल हुइ, तिम धर्मसील दृढ ब्रह्मवत पालिवह करी निश्चल हुइ। जे धन्य-कृतपुण्य हुइ, तेह जि शीलवत धरिवाना विषइ क्षम-समर्थ हुइ। पणि मुझ सरीखउ पापी समर्थ न हुइ । वली एह जि संबंध ग्रंथकार जणावइ--अहो संगदोषि जे धन्य हुइ, तेह जि शील पाली सकइ । पणि अधन्य पाली न सकइ । इहां धनश्री सतीनउ दृष्टांत देखाडइ [४३. धनश्रीन दृष्टांत] ऊजेणी नगरीइ जितशत्रु राजा कमला-भार्या-सहित सुखिइं आपणउं राज पालइ । यही तेह जि नगरी-माहि सागरचंद्र श्रेष्ट चंद्रश्री-भार्या-सहित वसइ । हिवइ तेहनउ पुत्र समुद्रदत्त, ते अन्यदा मातापिताइ कलाचार्य-समीपि भणिवा मूकिउ । पछइ मउडइ मउडइ कलाचार्यनी भार्यानइ संसर्गि ते समुद्रदत्तनी माता कलाचार्य-साथि लुब्धी हुइ । इम एकदा समुद्रदत्त मातानउ ए स्वरूप देखी सर्व स्त्रीनइ विषइ विरतउ हु। तिवारइ समुद्रदत्ति विवाहनउ अभिग्रह लीघउ जउ, 'हूं पाणिग्रहण नही करउं।' पछइ पिता पुत्र यौवन वय(?इ) आविउ देखी घणी। कन्या मागइ. पणि समुद्रदत्तनइ स्त्रीन नाम न सुडाइ, सर्वथा न मानइ, यतीनी परिहं सर्व निषेध । इम करतां घणउ काल गयउ । ___ अन्यदा विवसाय-निमित्त पिता सागरचंद्र सोरठदेस-भणी चालिउ । तिहां गिरिपुरि धन सार्थवाह. तेहनइ घरि जई ऊतरिउ। तिहां घणउ विवसाय करी, पछइ तेहनी पुत्री धनश्री समुद्रदत्तनह काजि मांगी, सागरचंद्र आपण घरि आविउ । इम एकदा पिताइं समुद्रदत्तनइ कहिउं. 'वत्स! गिरिपरि आपणी वस्तु-भांड छई, ते तूं जई लेई आवि।" ते-आगलि परणवानी वात हुन कही। किंतु समुद्रदत्तनु मित्र छइ तेह-आगलि छानइ-सिउं बात कही जु. 'मई तिहां धनश्री कन्या मागी छइ । ते तूं प्रपंच करी एहनइ पाणिग्रहण करावे ।' तिवारइ तीणइंमित्रि: सर्व वात पडिवजी । पछइ भलइ मुहूर्ति मित्र-सहित गिरिपुर-भणी समुद्रदत्त चालिउ। मार्ग उल्लंघतउ थोडे दिहाडे गिरिपुरनइ उद्यानि-वनि पहुतउ । १. B.Pu. बोलवानइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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