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शीलोपदेशमाला-बालावबोध वंकचूल चलाविउ । वंकचूलइ तिहां जई भीम पल्लीपति साथिइ महायुद्ध करी बांधिउ । पणि बांधतां वंकचूलनइ प्रहार गाढा लागा। वंचूल जय पामी घरि पाछउ आविउ, पणि घाउ रूझाइ नहीं। पछह वैद्य तेडी राजाई कहिउं 'ए किम साजउ थाइ ?' तिवारइ वैद्य कहइ, 'जउ
मांस लिइ तु गुण हुइ ।' पछह वकचूल कहइ. 'मुझनइ कागमांसनउ जावज्जीव नीम छइ ।' तिवारइ राजा कहइ, 'वच्छ ! जीवन्नरो भद्र-शतानि पश्यति । एकवार लिइ, पछइ वली नीम पाले ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'वरि माहरा प्राण जाउ, पणि कागमांस न लिउं ।' तिवारइ राजाई सेवक पूछया, 'एहनइ को मित्र छइ ?' सेवके कहिउं, 'स्वामी ! शालिग्रामवास्तव्य जिनदास एहनइ परम मित्र छइ ।' तिवारइ राजाई जिनदास तेडाविउ । ते मार्गि
आवतां जिनदासि बि स्त्री रुदन करती दीठी, पूछिउं, 'कांई रुदन करउ ?' तेतलइ देवांगना कहई', 'ए वंकचूल कागमांस लेसिइ, तु 'अम्हारइ पति भर्तार न हुइ । तूं तु एहनउ मित्र छ। जु अम्हनइ दया करइ । तु कागमांस लेवा म देजे ।' ए वचन जिनदास पडिवजी वंकचूलसमीपि आविउ । राजाइ कहिउं, 'वकचूल मनावउ।' जिनदासि आवी वकचूलनी नाडि जोई। राजा-प्रत्यक्ष कहिवा लागउ, 'एहनइ हिवइ धर्म जि ऊषध करावउ । विलंब म करउ ।' पछइ आराधनापूर्वक अगसण लेवरावी दुकृतनी गरिहा. सुकृतनी अनुमोदना करावा, नवकार गुणावतां दिवंगत हूउ । वंकचूल मरी बारमइ देवलोकि देवता हूउ । वंकचूलना ऊर्ध्व कार्य करी, जिनदास जउ पाछउ आवइ तु देवांगना तिम जि रुदन करती देखी पूछइ, 'हिव काई रोउ ? मई तुम्हारई वचनि कागमांसनउ परिहार कराविउ ।' तिवारई देवांगना कहई, 'तइ तिम निर्जराविउ जिम वंकचूल मरी बारमइ देवलोकि गयउ । अम्हारी आस निराम हुई ।
तु जोउ एहबउ वंकचू ल जे देवभव पाम ते शीलनउ माहात्म्य । इति श्री-वंकचूलनउ चरित्र समाप्त ॥२२॥
एतलइ गृहस्थ जे शीलवंत पुरुष हुआ तेहनी स्तुति कही । हिव जे स्त्री शीलवंत हुई ते कहा
अक्खलिय-सील-विमला महिला धवलेह तिन्नि वि कुलाई।
इह-परलोएसु तहा जसमसमसुहं च पावेइ ॥४७ व्याख्या:-अस्खलित = खंडना-रहित शील पालवई करी जे विमल = निर्मल छ महिला =स्त्री एहवी त्रिह कुलनई धउलइ = निर्मल करइ, पिता-माता अनइ सुसराना गोत्रादिक प्रगट करइ, त्रिहं गोत्रना पूर्वजनइ अजुयालइ । किसिउं स्त्री एकला कुल जि नइ अजुआलइ ? ना, इहलोकि सर्वविश्व-माहि पण महाजस पामइ । वली परलोकि शील पालिवानह प्रमाणिई यश = कीर्ति, असमसुख = असामान्य सौख्य- बार देवलोक नव ग्रेवेयक, सर्वार्थसिद्धि, मोक्षनां अनंत सुख-ते पणि लइइ । वली शीलवंत महासतीनी स्तुति कहइ
जा निय-कंत मुत्तुं सुविणे वि न ईहए नरं अन्नं ।
आबाल-बंभयारीणं सा रिसीणं पि थवणिज्जा ॥४८ । व्याख्या :- जे स्त्री निज = आपण उ, कांत = वल्लभ मूंकी, सउणा इ माहेि अनेरउ = पर-पुरुष मनि-वचनि करी वांछइ नही, आजन्म मन-वचन-कायनी शुद्धिई जे भर्तार जि नई ध्याइ ते महासती, आबाल-ब्रह्मचारिणी स्त्री, तेहनइ महर्षि = महान्त ऋषीश्वर तेह इ स्तवई, महातमा इ ते स्त्रीना शीलगुण वर्णवई । बिहूं गाहनउ अर्थ हउ ।
१. K.अम्हारइ भतरि कुण हुसीइ १ ।
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