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मेरुसुन्दर-गणि-विरचित
हइ । लिंगिणी कहीइ यति-वेष-धारिणी-महासती । इणि कारणि एकेकथी अधिक अधिक सदोष छइ । तेह-भणी उत्तमे एह-सिङ संबंध-संभोगाभिलाष सर्वथा वर्जिवउ । एतलउ गाहनउ अर्थ हूउ। हिव बिहुंनइ कुसंसर्ग वर्जिवउ, ते कहइ
जू आर-पारदारिअ नड विड-पमुहेहिं सह कुमित्तेहिं ।
संग वज्जिज्ज सया संगाउ गुणा वि दोसा वि ॥१०२ व्याख्या:-जूआर-जूआरी, पारदारिक परस्त्री-लंपट, नट-नाटको, विट-चोर, एह-प्रमुख अनेरा इ मद्यपानी, पाडूआ मित्र, एह-साथि संग सदाइ वर्जिवउ । जिणि कारणि, जिसिउ संसर्ग कीजइ, तिसा जि गुण नइ दोष ऊपजई ।
अथ नारीना गुण कहइमिय-भासिणी सलज्जा कुल-देस-वयाणुरूव-वेसधरा ।
अभमण-सीला चत्तासइ-संगा हुज्ज नारी वि ॥१०३ व्याख्याः -मित-भाषिणी कहोइ थोडउं-सिउं बोलई । वली सलज्जा लाज-सहित हुइ, अनइ वली कुल नई देसनइ सारइ, वयनइ सारइ, लक्ष्मीनइ सारइ, रूपनइ सारइ वेस पहिरइ । वली अभमण कही घरि घरि भमतो न रहइ । असतीनउ संग त्यजइ । -इसी कुलस्त्री सघले प्रशस्य श्लाघनीय हुइ । वली कुलस्त्री किसी हुइ ते कहइ
देव-गुरु-पियर-ससुराइएस भत्ता थिरा वर-विवेया।
कंताणुरत्त-चित्ता विरला महिला सुदढ-चित्ता ॥१०४ व्याख्याः -देव, गुरु, माता-पिता, सासू-स्वसुग-प्रमुख जे वडा-पूज्य हुई, तेहनइ विषइ भक्ता हुइ, थि-स्थिर कहीइ चपल-स्वभाव न हुइ, वली वर-प्रधान-विवेकवती हुइ, वली कांत= भरिनइ अनुरक्त-चित्त हुइ, वली शील राखिवा-भणी दृढ-चित्त-निश्चल-मन हुइ-एहवी कुलीन स्त्री सइसहस्त्र-माहि एक्का-विरली जि दीसइ । अथ महासतीनी शीलनी दृढिमा कहइनिम्मल-महासईणं सीलवयं खंडिउं न सक्को वि ।
सक्केड जेण ताणं जीवाओ सीलमभहिअं ॥१०५ व्याख्या:-जे स्त्री निर्मल महासती सत्ववति हुइ, तेहन उं शील शक्र इंद्र इ खंडी न सका। जिणि कारण, ते स्त्रीनई जीवतव्य-पाहंति शील वालहूं हुइ । वरि आपगा प्राण छांडइ, पणि शीलनउ भंग न करइ । हिव सती-शब्दनउ अर्थ कहइ
स च्चिय सइ त्ति भन्नइ जा विहुरे वि हु न खंडए सीलं ।
तं किल कणयं कणयं जं जलणाओ विमलयरयं ॥१०६ व्याख्याः -सती एहवउं नाम तेहनइ कहिवराइ जे विधुरि=संकटि पडिइ, जीव संदेहि पडि हंतइ जे शीलनी खंडना न करइ । इहां दृष्टांत देखाडइ-किल-निश्चइसिउं जिम कनक
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