SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध व्याख्या :-दान-तप-भावनादिक-धर्म-पाहइ शीलबत पालतां दुक्कर-दोहिलङ इसिउं जाणी, भो भविको, तेह जि शील ऊपरि अति यत्न-परम आदर करउ। इम गाहनउ अर्थ ॥१०॥ शील ऊपरि जे एवडउ आदर ते कहइ - तं दाणं सो अ तवो सो भावो तं वयं खलु पमाण । जत्थ धरिज्जइ सीलं अंतर-रिउ-हियय-नव-कीलं ॥ ११ व्याख्या:-दान तेह जि लेखइ गणीइ, तप तेह जि लेखइ गणीइ, भावना तेही प्रमाण, व्रत पाल्यउं तेह प्रमाण, जिहां दानि तपि भावि व्रति एहनइ विषइ जे मिर्मल शील धरीइ । तेह जि प्रमाण, पणि ते शील केहवउं छइ ? अंतरंगरिपु= वइरी रागद्वेष-रूप, तेहनद हीब नवा खोला समान । इणि कारणि सर्व धर्म-माहि मुख्य शोल जि ॥ हिवइ शीलनउ महातम्य कहइ - कलिकारओ वि जनमारओ वि सावज्ज-जोग-निरओ वि। . जं नारओ वि सिज्झइ तं खलु सीलस्स माहप्पं ॥१२ व्याख्या:-कलिगारउसंग्राम, झूझनउ करावणहार, इणि कारणि घणा लोकनइ मरायणहार, एकनी स्त्री बीजा-पाइई' अपहरावइ, संयोग-वियोग करइ, यली सउकिनउ करणहार, इषि कारथि सावद्ययोग करिवा कराविवा निरत-सावधान । अनेराइ जीव-हिंसादि व्रतनइ बिषइ शिथिल-दीलड इ हूंत उ एड्वउ जे नारद सोधमोक्ष-फलनउ भोक्ता हूउ ते खलु-निश्चइ शीलनउ प्रमाण= महातम्य जाणिवउ ॥१२॥ ए नारदना केतलाएक अवदात कहीई, पणि तथापि पहिलङ नारदनी उत्पत्ति कहीइ - - [४. शील-ऊपरि नारदनो कथा ] चेदि देशि शुक्तिमती नामि पुरी । तिहां अभिचंद्र राजा राज्य करइ । खोरकदंब उपाध्यायकन्हलि राजानउ पुत्र वसु, उपाध्यायनउ पुत्र पर्वतक,त्रीजउ नारद ए त्रिणइ वेद भणई। अन्यदा आकाशमार्गि चारण श्रमण महात्मा जाता थका वात करिवा लागा जु, 'ए उपाध्यायनइ बि शिष्य नरकगामी, एक स्वर्गगामी ।' ए वात सांभली उपाध्याय खेद धरतउ, पछइ परीक्षा-भणी कणकना कुकडा करी प्रच्छन्न दीधा, कहिउं 'जाउ, जिहाँ कोई न देखइ तिहां जई हणिज्यो।' पछइ त्रिगइ शिष्य नीकल्या । वसु नइ पर्वतक किहाँ ईक सूनइ घरि जई ते कृकडा हणी, पाछा आव्या, अनइ नारद अणहणिइ पाछउ आविउ । गुरुनइ प्रणाम करी कहइ, ' तुम्हारउ आदेस पामी नीकलिउ, पणि ते प्रदेश नही, ते स्थानक नही, जिहां कोई न देखा। सघले वीतराग त उ देखई"। पछइ उपाध्याय नारद योग्य जाणी संपूर्ण विद्या भणाविउ । पर्वतक नइ वसु नरकगामी जाणी वैराग्यइ3 दीक्षा लेई आपणउं काज सारिउ । पर्वतक बापनइ थानकि नेसालीआ भणावइ । नारद आपणइ स्थानकि गयउ । अभिचंद्र-राजाइ दीक्षा लोधी, तेहनउ पुत्र वसु राजि बइठउ सुखि प्रजा पालइ । एतलइ अवसरि मृगना आहेडा भील एक नीकलिउ । मृग देखो आकांत बाण मूकिउं । फटिक-सिलाइ ते बाण खाले । पछह तीण फटिक-शिला जाणी प्रच्छन्न राजा आगलि आवी वात कही। राजाइ ते शिला फटिकनी अणावी शिला-सिंहासन घडाविउं, ए सूत्रधार हणिउ, जिम वात बाहरि न फूटइ। पछइ तिणि सिंहासनि राजा १. L पाहंति २. P. 'माहरउ आत्मा देखइ आकाशगामी जीव देखा' एटा वषारे, ३. L. वैराग्य तु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy