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मेरुसुन्दरगणि-विरचित बइसइ । आसन-टूकडउ कोई आविवा न लहइ । पछइ लोक-माहि एहवी महा महिमा वाधी जु सत्यवचन-लगी वसुराजानउं सिंहासन आकाशि रहइ ।
___ अन्यदा नारद गुरुना गौरव-भणी गुरुनु पुत्र पर्वतक तेहनइ मिलवा-भणी आविउ । तिसिई 'नेसालीआनई पर्वतक भणावइ छइ । तिहां इम कहिउं जउ, “अजैर्यष्टव्यं' इति ऋग्वेदनउं पद नारद देखता भणाविवा लागउ जु. 'अज कहतां पशु, तीणे याग करिवउ' | एहवउं पर्वतक वखापतउ देखी नारदि. आपणा कान ढांकी कहिउँ, 'गुरे तु अज त्रि-वार्षिक = त्रिहुं वरसना व्रीहि. कयाः हूंता । तिसिई पर्वतक कहइ, 'अज छाग कह्याता , जु न मानइ तु वसुसजा , साखीउ सहाध्याई कीजइ । वली एहवउं पण कीजइ जे कूडउं बोलइ तेहनी जीभ छेदीइ । पछइ नारद ते वचन प्रमाण करी देव पूजवा निमित्तइ घरि आविउ । तेतलइ माता-सहित पर्वतक एकांति वसुराजा-कन्हलि आवी वात कही जउ नारद संघाति ए पण बोलिउं छह । वसु कहइ, 'नारदइ कहिउं ते साचउं। गुरे अज त्रिहुं वरसना व्रीहि जि कह्या हंता। तई अयुक्तउं कांइ कहिउं ?' पछइ उपाध्यायनी भार्या वसुराजानइ कहिवा लागी जु, 'पुत्र-मिक्या दिह तु पर्वतकनउं वचन साचलं करि।' पछइ दाक्षिण्य-लगइ वचन पडिवजिउं । प्रभाति नारद-पर्वतक आव्या । सभामाहि वसुराजा-प्रत्यक्ष आपणी आपणी वात कही । तिहां दाक्षिण्य लगइ वसुराजाई असत्य वचन बोलिउं । देवताइ तेतलई सिंहासन-हूंतु वसुराजा नांखी मारिउ, नारदनइ जयजयकार कीधउ।
पछइ ते नारद एकदा प्रस्तावि द्वारवती नगरीइ गयउ । तिणि द्वारवतीइ कृष्ण वासुदेव राज्य करइ । तेहनइ सत्यभामा पट्टराणी छइ । तेह साथि विषय-सुख अनुभवतां, एक दिनि नारद-ऋषि नारायण-कन्हि आविउ । नारायण साम्हउ ऊठिउ, पंचांग प्रणाम करी. आसनि बइसारी धन-कनकादिके करी संतोषिउ । क्षण एक रही नारद-ऋषि नारायणना अंत: पुर-माहि आविउ। तिणि प्रस्तावि सत्यभामा शगार करी, आपण मुख आरीसा-माहि जोती हूंती, सखी-साथि वात करिवा लागी । सत्यभामाइ ते नारद आविउ जाणिउ नही, भक्ति बहुमान न दीधउं। एह्वइ प्रस्तावि ऋषि मन-माहि चींतवइ, 'जोउ, मुझनइ जे देवता छह ते ही मानइं, पछइ मनुष्यनउ स्यउं कहीइ ? पणि ए सत्यभामा नारायणनइ
इ. धन-योवननह गर्वि मुझ साम्हउं इन जोइ । तु किमही एहनउ गर्व ऊतारिउ जोईइ । ए स्त्रीनउ गर्व तु भाजइ, जउ चीजो सउकि हुइ ।'
तु इम चीतवी कौतक-प्रिय नारद तिहां-हूंतउ आकाशि ऊपडयउ', कुंडिनपुर नगरि आविउ । तिहां रुक्मी राजा राज्य करइ । तेहनी बहिनि रुक्मिणी एहवइ नामि महा रूपवति यौवन-भरि छ । तेह समीपि नारद आविउ । रुक्मिणीइ आसन-बहुमाने करी ते ऋषि गाढउ संतोषिउ । पछइ तिणि आसीस दीधी, 'हे पच्छि! त्रिखंड-भोक्ता नारायणनी वल्लभा होज्ये'। तिसिइ रुक्मिणीइ पूछिउं, 'ऋषिराज ! ते नारायण किहां छइ १ कउण छइ ? किसिउ छइ ?' इम पूछिइ हूंतइ नारद-रिषि नारायणनउ रूप सौभाग्य गुण तिम किमइ वर्णव्या, जिम रुक्मिणी नारायण-ऊपरि सानुराग हुई । पछइ ऋषि
१. P लेसालिआ. २. P. बोकडा. ३. P. पर्वतकनी माता ४ L. सिंहासनि थकउ ५. P. L कन्हलि. ६. P. उडिउ, L. ऊडिउ,
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