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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
नो कामीण सच्चं पसिद्धमेयं जणस्स सयलस्स । तित्थयरसामिपमुहादत्तं पि हु तत्थ खलु हुज्जं ॥२४ अबंभ पयडं चिय अपरिग्गहियस्स कामिणी नेय ।
इय सील-वज्जियाणं कत्थ वयं पंचवयमूलं ॥२५ व्याख्या :-विषयाभिलाषी कामीजननइ सत्य वचन न हुइ ए वात सर्व-लोक-प्रसिद्ध छ । ए-भणी बीजउ मृषावाद-व्रतनउ भंग ऊपजइ । वलो कामीजननइ त्रीजउ अदत्तादाननउ भंग पणि हुइ ते कहइ । तित्थयर-तीर्थकरे सर्व प्रकारि मैथुन-सेवा निषेधी छई। स्वामी राजाइ पणि मैथुन-सेवानउ आदेस नथी दीधउ । प्रमुख शब्द-लगइ माता पिता स्वजन-वर्ग तेहे पणि आदेश नथी दीधउ । ते-भणी अदत्तादान-तणउ पणि भंग हुई। - वली कामीनइ चउथा व्रत,पांचमा व्रतनु भंग ऊपजउ ते कहइ- अबंभं : कामी विषयाभिलाषीनइ अब्रह्म-सेवा प्रकट जि छइ । विषयाभिलाषी पुरुष मनसा वाचा कर्मणा करी स्वदारपरदारनी सेवानि करतउ जि रहा, इणि कारणि अब्रह्म-सेवा प्रकट जि हुइ । विषयाभिलाषीमइ अपरिगृहीत परदार विधवा वेशा दासी स्त्रीनइ विषइ कामना = अभिलाष हुइ, आसेवना पणि हुइ । एह-भणी सील-रहित मनुष्यनइ पांच व्रतनउ मूल किहां रहइ ? शीलवत लोपाति पांचइ व्रत लोप्या आकुट्टि-लगइ भाजइ पणि । अथ शील पालिवानइ विषइ उपदेस कहइ -
ता कह विसय-पसत्ता हवंति गरुणो तहा पुणो तेहिं ।
भग्गा जिणाण आणा भणियं एअं जओ सुत्ते ॥२६ व्याख्या:-तु अहो लोको ! कह उ विषयनइ विषइ आसक्त गुरु किम हुइ ? अपितु न हुइ । एक शीलवतनइ भंगि सर्व व्रत भागा जि । ते-भणी शीलवंत गुरु सेविवा । अथवा कर्मना योग-लगइ दुःशील भाव करइ, तु तिणि जिन-वीतरागनी आज्ञा भांजी। ते किसी आशा, जिणि कारणि सूत्र=सिद्धांत-माहि इसिउं जिनेश्वर कहिउं छइ, ते सिद्धांतना वचन कहीइ छ
न वि किंचि अणुनायं पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं ।
मुत्तुं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥२७ व्याख्या :-जिनवरेंद्रे-तीर्थ करे साधुमहात्मानई सावद्य-योग अनइ सापद्य-व्यापार करणकारावण अनुमति-अनुज्ञा न दीधी। अनइ वली कारणि ऊपनइ अपवाद-पदि सावद्य परमेश्वरे पणि निषेधिउ नथी । जिणि कारणि पूज्य श्रीजिनवल्लभसूरि गुरे इसिउं कहिलं -
'संघरणम्मि असुद्धिं दुण्ड वि गिण्हंतदिंतयाण हियं ।
__ आउरदिहतेणं तं चेव हियं असंघरणे ॥' वली कहइ -'देवगुरुसंघकज्जे चुन्निज्जा चकवट्टिसिन्नं पि'। इत्यादि । परं एक मैथुनभाव टाली अपरं सर्व उत्सर्ग-अपवाद-पदि कीजइ, पणि एक मैथुन नही । तिहां एकांत निषेध जि कहिउं छइ । ते रागद्वेष विण न हुइ । ते तु रागद्वेष संसार-वृक्षना बीज, ते सर्वथा न करिवा। रागद्वेष-लगइ संसार वाधइ । 'को दुक्ख पाविज्जा०'... । हिवइ शीलनउ सर्व उपदेश कहइ -
ता सयलइयरकट्ठाणुट्ठाणसमुज्जमं परिहरेउं । इक्कं चिय सीलवयं धरेह साहीणसयलसुहं ॥२८
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