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मेरुसुन्दरगणि-विरचित ते-कन्हलि तेहवउ कोइ शिष्य नथी, जे पूर्वनी विद्या लिइ । ते-भणी तूं ऊजेणीइ जई दस पूर्व पुरा भणि। जिवारई दस पूर्व पुरा थासिई, तिवारिइं शासन-देवता सांनिधि करिसिइ ।' ए वात श्री-वयरिइं पडिवजी, ऊजेगि-भणी चालिउ, पंथ अवगाही सांझइ ऊजेणीइ आविउ । प्रभाति गुरुनइ वांदिसिइ एहवइ । पाछिली रात्रिइं श्री-भद्रगुप्तसूरि सउणउं देखइ जु, 'कोई परहुणउ आवी, अम्हारा हाथ-हंतउ खीरनउ पंडगह लेई पीई, तृप्ति पामी।' इसिउं सुहणउं सज्झाय करतां महात्मा-प्रतिइं गुरु कहइ जु, 'आज कोई आपणइ परहुणउ आविसिइ, ते अम्हारी सर्व विद्या लेसिइ।' इम वात करतां प्रभाति श्री-वयरस्वामि आव्या । गुरुनइ वांदी आगलि बइठा। तेतलइ गुरे अति बहुमानपूर्वक संयमनइ विषयि कुसल पूछिउं । वली पूछिउं, 'श्री-सीहगिरि-सूरिना चरण-कमल मूंकी ईहां किम आव्या ? तेतलइ वयर विनयपूर्वक कहइ, 'श्री-गुरे तुम्ह समीपि दश पूर्व भणिवा-भणी मोकलिउ छउं। ते पूर्व तुम्ह कन्हइ छई, अनेथि नथी। एह भणी प्रसाद करी मुझनइ भणावउ।' पछइ वयर गुरुनइ प्रसादिई, सिद्ध-सारस्वत-चूर्णनइ प्रमाणिइं दस इ पूर्व थोडा काल-माहि भण्या । पछइ श्री-भद्रगुप्त-सूरिनइ आदेसिइ दस पूर्वनी अनुज्ञा पामी, दशपुरि आवी श्री-गुरु प्रणम्या । तिसिई श्री-सीहगिरि-सूरि वयरनइ संतुष्ट-वर्तमान आचार्यपद देई गणनी अनुज्ञा दीधी । तिणि अवसरि बुंभक-देवताए महा-महोत्सव कीधउ, आकासि-इंतु कुसुमनी वृष्टि कीधी। श्री-सीहगिरि-सूरि चारित्र पाली अणसण-पूर्वक मरण पामी स्वर्गनइ भाजन हुआ।
हिवइ श्री-वयरस्वामि पांच सइ माहात्माए परिवर्या जिहां जिहां विहार करइ, तिहां तिहां श्रावक संघ नवनवा महोत्सव करई । इसिई श्री-वयरस्वामिनी महासती पाडलीपुरि नगरि धनश्रेष्टिनी यानसालाई आवी रही । तिसिई ते विवहारीआनी पुत्री रुक्मिणी महासती-कन्हइ भणइ, महासती-कन्हइ बइसइ । तिसिइं महासती श्री-वयरना गुग वर्णवइ । रूप-लावण्य विद्या वर्णवतां रुक्मिणीनह अनुराग वयरस्वामि-ऊपरि हूउ । पछइ प्रतिज्ञा करइ, 'मुझनइ इणि भवि वयर जि भरतार ।' तिवारइ महासती कहइ, 'ते तु नीराग निस्पृही, काम-हूंता विरतां छई । तेह ऊपरि ए मनसा म करेसि ।' पछइ रुक्मिणी कहइ, 'हिवइ तां वयरना पग शरणि ।' ते रुक्मिणीनह चित्ति वज्रलेपनो परिइं वयरनउं नाम रहि ।
अन्यदा पाडलीपुरि श्री-वयरस्वामि विहार करता आया । तिहां नगरना लोक सर्व वांदिवा गया । राजा पणि वांदिवा आविउ । तिसिइ गुरे विद्यानइ बलिई आपणउ रूप सउ महात्मानइ विपर कीघउं। पांच पांच महात्माए संघाडउ कीधउ अनइ संघाडइ संघाडइ वयरस्वामि जजआ दीसह । तिवारई लोक, राजा सहू विस्मयापन्न, महात्मानइ पूछइ, 'तुम्ह-माहि श्री-वयरस्वामि कउण?' तिवारइ महातमा कहई, 'जेहनइ महांत तेज, ते जाणिज्यो वयरस्वामि ।' इम सर्व महात्मा आव्या । पणि अजी ओलखी कोई न सकइ । तेतलइ क्यरस्वामि विद्याबलिई अपूर्व रूप करी नगरनइ परसरि आवी धर्मापदेस देवा' मांडिउ । तिसिइ राजादिक लोके गरु ओलख्या । सघले वांद्या । पछइ धर्मेनउ उपदेश सांभली सहू आपणइ आपणइ स्थानकि
पर अंतेउरीए ते आचार्यनो रूपसंपदा सांभली, राजानइ कही गुरुनई वांदिवा आवी । तिसिइं साकमणी पितानइ कहइ, 'तात ! ए वयरस्वामि आविउ छइ, अनइ मह तु एहवी प्रतिज्ञा कीधी छइ जउ, इणि भवि वयर भरतार । तेह-भणी चालउ जोई आवीइ । जाए त देशांतरी छ । ऊठी अनेथि जासिइ । पछइ मुझनइ आगि जि शरणि हसिइ ।'
का सांभली धनश्रेष्ठि रुक्मिणीनइ साथिई सउ कोडि धन लेई, अनेक वस्त्र-अलंकार
१. Pu.पडघलु, K.पडघु । २. Pu. K. देवउ ।
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