________________
शीलोपदेशमाला - बालावबोध
५९
दीक्षा लीधी । पछइ वली पुत्रिई दीक्षा लीधी । तु हिवइ हूं घरि रही स्युं करउं ? मुझनइ पणि दीक्षा दिउ ।' पछइ श्री - सीह गिरि-सूग्निइ पादमूलि दीक्षा लीधी । पदानुसारिणी प्रज्ञाई श्री वयर पालणइ पउढिइ महासतीना मुख- इतु इग्यार अंग अणाव्यां ।
अन्यदा गुरु वयर बालक आठ वरसनउ संघाति लेई अवंती-भणी चाल्या । तेतलइ अंतरालि मेघ आविउ । ते अपकायना निषेध-भणी यक्षन भवनि रह्या । तेतलइ वयरना भवांतरी मित्र देवता वयरनी परीक्षा भणो मंद वृष्टि विकुर्वी, संघात एकनी रचना करी, देवता श्रावकनइ वेषि आवी आचार्य वीनव्या, 'स्वामिन ! वयर बालक वहिरवा मोकलउ ।' गुरे जेतलइ मोकलिउ, तेतलइ अंतरालि मेघ आयउ । वली मेघ संहरिउ । वलो गुरुनइ आदेशिइं वयर आप बीजी वार आवस्सही करी नीकलिउ । जिहां संघात छइ तिहां जउ आवइ, तु एक जूनउ तृणान छापरउं देखइ । तेह-तलइ अनेक शालि-दालि-कोहलानां व्यंजन देखी वयर बालक चींतव द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावनई मेलिहं, 'ते द्रव्य जे शालि रांधी छह, ते तु हिवडां नीपनी न हुई । क्षेत्र जउ जोईइ तु ए वाट ऊजेणीनी-इहां एतली सामग्री किहां ? काल जउ जोईइ तु कोहलानउ ए काल नही । भाव जठ जोईइ तु देणहार श्रावक आंखि मेषोनमेष नथी करतां । तु इम जाणीई छइ, ए देवता घटइ । तु देवतानु पिंड महातमानइ न कल्पइ । ' इम चींतवी जेतलइ पछिउ वलइ तेतलइ देवता पगे लागी, खमावी, वैक्रियलब्धि देई अदृश्य हुआ । ए वात सांभली गुरु चमत्करिया । वली तेह जिं जृंभक देवता वणिक-रूप जेष्ठ मासि घृतपूर वयरनइ देवा लागो । तिहां पणि देवपिंड जाणो पाछउ वलिउ । तेतलइ देवता प्रकट हुई आकाशगामिनी विद्या देई अदृश्य हुआ । इम वयर बालक जे जे महातमा सिद्धांत भणइ ते ते सर्व सिद्धांत जलोनी परिइ संग्रहइ ।
इम एकदा गुरु बहिर्भूमिकाई पहुता । वयर चालक एकलड पोसालइ चींतवइ । तेतलई बालकस्वभाव-लगइ उपधि सर्व आप पाखती मूंकी, वाचना देवा लागउ । तेतलइ गुरु आव्या । तिहां बालकनी वाणी सांभली बारणइ छाना रहीनइ सांभलइ तु इग्यारह अंग बालकनई मुहडइ अस्खलित आवडतां जाण्यां । मनि हर्ष्या । पछइ गुरे संचल कीधउ । तेतलइ वयरि उपधि सर्व जूजूई मूकी गुरुना पग पूंजिवा सामहउ आयउ । गुरे पछs महात्मानइ जणाविवा-भणी आसन्न एक गाम छइ तिहाँ भणी चालिवा लागा । तेतलइ महातमा आवी कहई, 'भगवन ! अम्हनइ वाचना करण देसिइ ?' तिसिहं गुरे कहिउं, 'ए वयर बालक तुम्हनइ वाचना देसिइ ।' इम 'तहत्ति' करी मानिउं । पछइ प्रभाति बइसणउँ वयरनइ मांडिउ । तिहां बइसारी वाचना मांगी । तेतलइ वयर विधिवत् वाचना देवा लागउ । जे शिष्य परीछता नही, ते-हू परीछिवा लागा । जे गुरु मासे वाचना देता, ते वर एकइ दिनि दिइ । तिसिइ महात्माए चींतविउ, 'जइ गुरु मउडेरा आवइ, तु अम्हारइ भगवं वारु चालइ ।' इम करतां गुरु आव्या । महात्मा पूछया जु, 'वाचना चालइ छइ ?' तिसिह महात्मा सर्व गुरुनइ वीनवई, 'स्वामिन ! ए जंगम सरस्वती भंडार । एतला दिन अम्हे न जाणिउं । जे अम्हे अवज्ञा कीधी, ते खमउ ।' पछइ गुरे कहिउं, 'तुम्हनइ जणाविवा जि भणि अम्हे चाल्या हूंता । '
पछs वाचनाचार्यपद देई महात्मा भणाविवानु आदेस दीघउ । आचार-कल्प वयरनइ गुरु भणावइ । जेतलउ गुरुनइ दृष्टिवाद आवतड हूंतउ, तेतलउ सर्व वयरनइ भणाविउ । पछइ गुरु दसपुर आया । तिहां वयरनइ कहइ, 'वत्स ! दसपूर्वघर श्री भद्रगुप्तसूरि अवंतीइं छइ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org