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________________ मेरुसुन्दरगणि विरचित अभया पूछी, 'हे देवि ! ए स्त्री इंद्राणी सरीखी पुत्रवती कुण ?' तिवारई अभयाई कहिउं, 'श्रेष्ठि सुदर्शननी ए भार्या । एहना पांच इ पुत्र।' तिवारइ कपिलाई हसीनइ कहिउं, 'नपुंसकनई पणि किसिउं पुत्र हुइ ?' तिसिइ अभयाई कहिउं, 'ए वात तूं किम जाणइ ?' इम पूछीइ अति स्नेहलगह आपणी प्रछन्न वात कही, अनइ सुदर्शननउ सर्व वृत्तांत कहिउ । तिवारइं अभयाराणी कपिला हसी, 'तु तुं एहवीइ चतुरि हूंती पणि ईणइ धूर्ति तू वंची । ते तु परस्त्रीनइ संगि नपुंसक छइ पणि घरि तु नथी । किवारइ गाढाइ डाहा घासई।' इम हसी इंती रीसाणी कपिला कहइ, 'बहिनि ! तूं गाढी चतुरि छइ पणि जाणीसिइं जउ तु सुदर्शनइ भोलवेसि ।' इणि वचनिई अभयाराणी अहंकारि चडी प्रतिज्ञा करइ, 'तु हूं जउ एहनइ शील-हंतउ पाडउं।' इम अभयाई प्रतिज्ञा कीधी, आपणइ घरि आवी, धाविमाता-ओगलि आपणी प्रतिज्ञानी वात कही। तिवारह माताई कहिलं, 'चिंता म करेसि । ए प्रतिज्ञा ताहरी है पूरविसु ।' इम कही ते धावि सुदर्शन श्रेष्ठिना छल बिलाईनी परिई जोती रहइ, पणि छल लहइ नही । इसिइ सुदर्शन, आठमि प्रमुख पर्वतिथि पोसह लेई सूना घर-माहि आवी, काउस्सग्ग करइ । (ए स्वरूप तीणी धाविइ जाणिउं । पछइ एक दिनि कौमुदी-महोत्सव आविउ । अनइ जिन-शासनि चउमासउ आविउं । तिसिइ राजा नागरीक-लोके परिवरिउ क्रीडा-भणी वन-माहि जावा लागउ । इसिह सुदर्शन राजानइ वीनवी पोसह लेवा-भणी घरि रही, पोसह लेई सूना देवकुल-माहि काउसग्गि रहिउ । ए वात अभयाराणीइ जाणी, धाविमाता-सहित घरि रही । हिव आगइ सुदर्शन श्रेष्ठि सरीखी काष्टमय प्रतिमा छम-लगा करावी छइ, तहना अलंकार सुदर्शन सरीखा करावी, पालखीइं बइसारी, प्रतिमा गाजतइ वाजता सखीए परिवरी ते धाविमाता पोलिई लेई नीकली क्रीडाभणी। तेतलइ पोलीआ ऊठी जोई तु काष्टनी प्रतिमा। वेसास ऊपनइ कोई करणवार न करइ । इसिइ तीणइ कौमुदीनई दिनि राजा बाहरि गयउ हूंत उ, अनइ धाविमाताई तेह जि सुदर्शन पालखी घाती अभयाराणी-समीपि आणिउ । अभया ही हूंती अनेक हावभाव करी क्षोभिवा लागी। पणि तेहनउ एक रोम मात्र हालइ नही । मेरुनी परिहं निश्चल देखी अभया तु ऊभगी। सुदर्शन श्रेष्ठ चारि पुहर काउसग्ग करी रहिउ । तिसिई अभयाई भय देखाडिया, तुह इ क्षोभ न पामइ। अभयाराणी खिन्नखेद हुई। पणि रोम मात्र भीजिइ नही । पछइ प्रभात होवा लागउ । राजानई घरि आविवानी वेला हुई । तिसिइं राणी रीसाणी हंती आपणउं डील आपणीइ विलूरी. वस्त्र फाडी पोकार करिवा लागी । तेतला पाहुरी गमे गमे धाया। आवी जु जोइ तु आगलि सुदर्शन काउसम्गि रहिउ दीठउ । पाहुरीए ते झालि । तेतला राजा आविउ। पूछि । तिसिई अभयाई कहिउं, 'स्वामी ! ईणइ पापीइ घर-माहि पइसी ईणइ प्रकारि हू विडंबी ।' तिवारई रामाई चीतविउं, 'जु अमृत-हूंतुं विष ऊठइ तु ए-हुती ए वात हुई । ए सुदर्शन पुण्यवंत,एहूंतउं ए कर्म न घटइ।' पछई राजाइ सुदर्शन पूछिउं, पणि अभयानी दया-लगी कांई न बोलइ । तिवारइं राजाई चीतविउं, 'जु ए न बोलइ तुमही ए अन्पाई संभावीई ।' इम चीतवी राजा रीसाणउ कोपि चडिउ, तलार तेडी कहिउं, “एड्नई विडंबानई सूली दिउ।' तिवारइ ते तलार यमदूत सरीखा आवी, जटाई झाली, बाहरी काढी, माथइ भद्र करावी, गलइ कगयरनी माल घाती, रतांजणीनां टीला काढयां, सूपडानां छत्र माथई करी, रासभि चडावी, आगलि डूंडे वाजते, मारवा-भगी चलाविउ । 'अंतःपुर-माहि पारध कीघउ तेह-भगो राजाई एडवर अ देश दीघउ' इम लोक-आगलि वात ते तलार कहई। ए वात मनोरमाइ सांभली। मनोरमा चोंतवइ, 'चद्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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