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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ६७ हूंता किवारइ अंगार पडई, पणि ए वात सुदर्शन श्रेष्ठि-हूंती न हुइ ।' पछइ घरनइ देवालइ जई, देव पूजी कहिवा लागी महासती, 'अहो शासनदेवताउ ! ए सुदर्शननइ निःकारण जु आल दीधउं छइ तु सानिध्य करिज्यो । नहीं करउ तउ मुझनइ काउसम्ग पारिवानउ नीम।' इम कही काउसम्ग कीधउ । तेतलइ आकासि देवलानी वाणी ऊपनी, 'हे महासति ! म करि चिंता । अम्हे तेहना शोल-लगइ सानिध्य कारसुं ।' इसिइ सुदर्शन गाम-माहि फेरवी, अनेक विडंबना देखाडी, लोकनइ हाहाकार करतां सुदर्शन सूलीई चडाविउ । तेतलइ शीलना प्रभाव-लगइ सम्यग्दृष्टी देवताए आवी, सूली फेडी सिंहासन कीधउं । तेतलइ तलार स्त्रांडाना घाय मूकइ, ते घाय फीटी आभरण थाइवा लागा । ए आश्चर्य देखी तलारे राजा-समीपि जई वात सर्व कीधी । राना साश्चर्य गजेंद्रि बइसी नागरीक-लोके परिवरिउ कउतिग-लगइ तिहां आविउ । सुदर्शन सिंहामनि सालंकार साभरण बइठउ देखी हर्षित हूंतउ राजा प्रणाम करी कहइ, 'अहो सत्वनिधि ! तू आज मइ लोचनई करी दीठउ। मइ मूढिइ स्त्रीनई वनि एवडी आपदा देखाडी । पणि तुझनइ ते सर्व संपदा थई । जिम गाई क्षार-जल पीई पणि दध दिइ तिवारइ मिष्ट थाइ, निम समुद्रनइ जलइ नालेरी सीचीई अनइ आपणइ गुणि करी मिष्ट थाइ, तिन नुसनई अहे आपदा कीधी, पणि ताहरा शीलनइ गुणे करो संपदा जि हुइ ।' इम राजा सुदर्शननइ स्तवी, पूजी, हाथीइ बइसारी नगर-माहि आणी, घरि पहुचाडिउ । तेतलइ सुदर्शन देवालइ आवी मनोरमानइ काउसग्ग परावइ । इसिइ राजाइ सर्व वृत्तांत पूछी, वस्त्र-अलंकारे करी बहमान दे, आपणउ अपराध खमावी, घरि आवी अभयाराणीनइ देसवटउ देवा लागउ । तिसिइ सुदर्शन आवी पगे लागी, रानानइ मनावी, अभयाराणीनइ अभयदान देवराविउ । इम सुदर्शन जैन धर्मनइ विषइ प्रभावना करी धर्म-ध्यान करइ छइ । एहवइ अभयाइ मननी संकाइ बीहती गलइ पाशी देई प्राण छांडया। अनइ अभयानी धाविमाता नासी पाडलीपुरि देवदत्ता वेश्यानइ घरे आवी रही । जिणि कारणि एहवा कामना करणहारनइ एहवां जि ठाम हुई । हिवद ते धावि सुदर्शनना शोलनी प्रसंसा देवदत्ता गणिका. आगलि करइ । इनिइ सुदर्शन संसार-हूंतउ विरक्त, दीक्षा लेई विहार करतउ पाडलीपुरि आविउ। तिहां अभयानी धाविई ओलविउ । पछइ धावि कपट-श्राविका थई, पारणानइ मिसिइ देवदत्तानइ घरि लेई आवी । तिहां बारणउं दीधउं । देवदत्ताई ते मुनि घणउं कदर्थिउ, पणि ध्यान हूंतउ चूक नहो । तिसिइ सांझइ आपहणी मूंकिउ । पछइ सुदर्शन विरक्त हूंतउ वन-माहि जई प्रतिमाह रहिउ मसाण-भूमिकाई। हिवइ अभया मरीनइ व्यंतरी हुई ते तिहां आवी। वयर पोषती अनेक उपसर्ग करतां शुभध्याननई बलिई केवलज्ञान पामिउ । तेतलह देवताए केवल-महिमा कीध। सहश्रपत्र कमल रची देवताए विचिइ बहसारिउ । धर्मोपदेश देवा लागउ। द्विविध धर्म प्ररूपिउ । तिहां घणे लोके य तेधर्म आदरिउ, घणे श्रावकनउ धर्म आदरिउ । तिहां अभया पती पणि जैन धर्म आदरिउ । अनि वली देवदत्ताइ, धाविमाताइ श्रावरुन उ धर्म आदिरउ । इम सुदर्शनन चरित्र सांभली अहो भविको!शील जि पालउ, जिम हेलाई मोक्ष-सुख पाम। इति शीलोपदेशमाला-बालाविबोधि श्री. सुदर्शन-श्रेष्ठ-कथा समाप्ता ॥२१ हिवइ जे श्रावक शील पालई तेहनु स्यु कहीई' ? पणि चोर हूंता शील पालई ते धन्य । तेह जि कहइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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