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मेरुसुन्दरगणि-विरचित ए माहरा आत्मानइ धिक्कार, जे मइ एतलउ काल एह-साथि संबंध कीधउ । तु तेह जि धन्य, जे सर्व संसार छांडी, धर्म आदरो, तपोधन हुआ ।' इत्यादि मन-माहि विचारी जिम कोई बलती निता-हूंतउ नासइ, तिम ते स्त्री-हूंतउ नासी, वैराग्यरंग-पूरित विरक्तचित्त हूंतु, गुरुसमीपि जई दीक्षा लीधी। तिसिई प्रभाति राजा आपणइ घरि आविउ, सुखइ राज पालइ छ ।
इसिई अन्यदा कोई एक वणिजारे घोडा आण्या । तेह-माहि लक्षणयुक्त तुरंगम एक मोटउ देखी कउतिग-लगइ राजा असवार हउ । तिवारइ प्रधान कहइ, 'स्वामी ! सबल। द्विपद-चतुप्पदि अणपरीखिइ काज न कीजई।' इम वारतां इ हूंतां राजा तुरंगमि चडिउ । पणि ते अश्व मउडइ मउडइ चालिवा लागउ । पछइ जेतलइ राजाई वाग खांची तेतलइ ते अश्व पवनवेगि चालिउ। “जाइ, जोइ" लोके इम कहतां जि राजा अदृश्य हूउ । इम मार्गि जातां राजा चींतवइ, ईणइ घोडइ तु वन-माहि लीधउ । तु हिवइ जि कांई निबद्ध छइ, ते पामीसिइं।' इम कही ते घोडानी वाग ढीली मंकी । तेतलई अश्व ऊभउ रहिउ । तिवारई वक्र-शिक्षित अश्व जाणी राजा ऊतरिउ । एहवइ तृषा-बुभुक्षाक्रांत हूं तउ राजा अरण्य-माहि फिरवा लागउ । तेतलइ महातमा एक शांत-दांत देखी राजाई वांदिउ । तिसिई महातमाइ काउसग्ग पारी, गजानइ धर्मलाभ कही, उपदेश देवा लागउ, 'राजन ! ए असार संसार-माहि जीवनइ धर्म जि आधार छ।' इत्यादि उपदेश सांभली वैराग्य-रंग-पूरित चारित्रनउ मनोरथ करतउ, राज-रिद्धि तृण-समान गणतउ महात्मानइ कहइ, 'हे भगवन ! तई जे नवयौवनि दीक्षा लीधी ते. कहि, कउण वैराग्पनउ कारण ?' तिवारइ मुनि कहई, 'राजन ! जे मइ दीक्षा लीधी, ते तिहां कारण तूंह जि ।' राजाई पूछिउं, 'किम ?'
तिवारइ मुनि कहइ, 'राजन! जिवारई ताहरी . राणीनइ साप-डंस हउ, तिवारइ तूं काष्टभक्षण करिवानइ सज्ज हूउ। तेतलई विद्याधरि आवी विष वालि । रात्रिई तुम्हे तेह जि वन-माहि रहिया । तिवारइ राणी तुझनइ मूको मुझ-समोपि पूर्व-परिचय-लगइ आवो, इसिउं कहिवा लागी जु, “ए राजा जीवतां आपणपानइ सुख न घटइ । तेह-भणी राजानइ हणी आवडं।" इम कहो ते राणी खड्ग लेई जेतलइ ताहरउं मस्तक छेदइ, तेतलइ मई हाथि झाली, आपणह मनि चीतविउ जु, "मुझनइ धिक्कार, कामनइ धिक्कार, जे कामनी वाही राणी राजानउ एवडउ स्नेह अवगणी आज राजानइ मारिवा आवी । तु ते मुझनइ किम आपणी होसिइ ?" इम चीतवी पछई मुझनई सवेग-रग ऊपनइ, विष-समान विषय-सुख मूकी चारित्र लीधउं। तेहभणी हिव हं आतपि आतापना करउं छउं ।' ए वात सांभली राजा वैराग्य-पूरित हंतउ, चारित्र लेवानु मनोरथ करवा लागउ । एहवइ ते राजानउं कटक आविउं। पछइ राजा सपरिवार नगर-माहि आवी, पुत्रनइ राज देई, आपणपे दीक्षा लोधी। तिहां राणीनी वात प्रकट हुई । तिवारइ लोक राणीनी निंदा करिवा लागा । हिव ते श्रृंगारमंजरी राणी निकाचित कर्म बांघ, आऊखानइ क्षयि मरी, नरकि गई । तिहां-हूंती आवी घणउ काल संसार-माहि भमसिइ । इति श्रीशीलोपदेशमाला-बालाविबोधे मेरु सुंदर-गणिना विरचिन दत्त-दुहितानी कथा संपूर्णा ॥३९॥
हिव पाछिला दृष्टांतनउ अर्थ उपदेसि करी कहइ
एवं सोलाराहण विराहणाणं च सुक्ख-दुक्खाई। इय जाणिय भो भव्वा सिढिला मा होह सीलम्मि ॥ ६७
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