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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
करी गुरु कहा, 'अहो लोको ! ए संसार-माहि जे मूढ जीव तत्त्व अणजाणतउ हंतउ अनइ असद-वासनाई करी आपणउ जन्म मुधा हारवइ, ते नरगनइ अतिथि थाइ । अनई जु धर्म आदरह तु ऊर्ध्वगति पामइ ।'
एहवउं सांभली वलतुं राजा कहइ, 'महात्मन! पुण्य-पाप नथी, जीव-अजीव नथी। जिणि कारणि, मइ चोर एक झाली तोलावी जोयउ। पछइ वली गलइ टूपउ देईनइ तोलिउ। न तेहनउ कांइ भार घटिउ, न कांइवाधिउ। इम वली चोर एक झालीनइ खंडोखंडि करी जीव जोयउ । पणि तेहनउ जीव दीठउ नही। पछई वली एक चोर झाली कुभी-माहि घाती, बारणउं लीपावी, दिन पांच-सात माहि राखी जिम बाहरि काढयउ तिम 'गाडरनां सई दीठा । तु कहउ, ते चोरनउ जीव कीणी वाटइ गयउ ? अनइ गाडरना जीव कीणो वाटइ आव्यां? कुंभीइ तु काई छिद्र पडिउंन हंतउ।'
तिवारइ गुरु राजानइ वलतु दृष्टांत देखाडिवा-भणी कहइ, 'राजन! एक दईड अणावीनइ जोइ।' तिवारह राजाई दईड अणावी, •तोलावी, वली वाई भरी तोलाविउ, पणि तेह-माहि तेतलउ जि भार । ए राजाना पहिला बोलनउ ऊतर हूउ । वलि गुरे अरणी-काष्ट अणावी राजानइ कहिउ', 'राजन ! एह-माहि आगि किहांइ दीसइ छइ ?' कहिउँ, 'ना ।' तिवारइ ते काष्ट घसाव्यां, माहिहंती अग्नि प्रगट हुई । ए बीजा बोलनु ए ऊतर। वली गुरे कुंभी एक अणावी. माहि शंखवादक पुरुष घाती, बारणउं बूगवी, संख पूराविउ । पछइ गुरे राजानइ कहिउ', 'जिम ए स्वर नीकलतउ कुणिहि न दीसइ, तिम जोव नीकलतउ कुणिहि न दीठउ ।' इत्यादि युक्तिई राजा रिम किमह प्रतिबोधिउ, जिम राजाइ नास्तिक-मत छांडी, हेमनी रीतिइ परीक्षा करी, जिन-मत
आदरिउ । तिहां जि सम्यक्त्व-मूल द्वादश व्रत ऊचरी, वली शीलतादिकना अभिग्रह लीधा । पछइ पर्वतिथिई राजा पोसह लेवा लामउ । इम जिनधर्मनइ विषइ महांत रक्त हउ । तिसिई सूर्यकांता राणीइ कामाशक्तपणइ अन्य-पुरुष-
सिप्रीति बांधी। तिवारई तिणि पुरुषि कहि', 'जां ए राजा बीव, तां आपणउ स्नेह सफल नहीं थाइ।' पछइ सूर्यकांता-राणीइ राजाना उपवासना पारणानइ दिवसि भोजन-माहि विष दीधउ । जेतलइ प्रधाने आवी विषापहारी पयोग करी विष वालिवा लागा, तेतलइ सुर्यकांताई चीतर्व उं जु, 'माहरउं कीधउं अणकीधउं थास्यड । इम चोंतवो माया-लगो रोती हूंती सूर्यकांता राणी राजानइ गलइ वलगीनइ कहिवा लागी. हा स्वामी ! हा प्राणनाथ ! ए तूंन किसिउं हुई ?' इत्यादि कपट-विलाप करती गजाननु गलइ अंगूठउ चांपी टूपउ दीघउ । तिवारइ राजाई ते पापिणीनउं स्वरूप जाणि उं, पणि चालड कांई नही । पछइ नवकार गुणतां जि राजाना प्राण गया । मरीनइ सूर्याभ-विमानि सौधर्मि देवलोकि देवता ह। हिव तिहां अवधिनइ बलि आपणउं पूर्व-स्वरूप जाणी, सम्यक्त्व निर्मलउं करतउ, च्यारि पल्योपमनउ आयु पाली, महाविदेहि क्षेत्रि आवी मोक्षि जासिइ । तु अहो धार्मिको ! इसिउ जाणी ते स्त्रीनउ वेसास म करिज्यो ।
इति श्रो-शोलोपदेशमाला-बालावियोधे प्रदेशीराजानी कथा समाप्त ॥४१
बली यांतपूर्वक नारीनउ अविस्वासपण उ देखाडतउ कहइ
अणुकल-सपिम्माण वि रमणीणं मा करिज वोसासं ।
जह राम-लक्खणेहिं सुप्पणहाए महारणे ॥८८ व्याख्या:-हे विदुषो ! इम म जाणिसिउ, जु ए मूहनइ अनुकूल=हितकारिणी छह, अथवा १. Pu. गाढरनां सइ, B.लटना सई । २. A. B. दडउ, P. दीवडउPu, दीडउ ।
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