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शीलोपदेशमाला-बालावबोध माहरइ विषइ सप्रेम-सस्नेह, सानुरागिणी छइ । इसिउ जाणिइं हूंतइ पणि ते रमणी-स्त्रीनउ विश्वास न करिवउ । यतः
न विश्वसेत् कृष्णसर्पस्य स्त्री-चरित्रं न विश्वसेत् ।
सो विराधितो हन्ति स्त्री समाराधिता पि हि ॥१॥ ए ऊपरि दृष्टांत कहइ-जिम इहां अरण्य-दंडकारण्य-माहि श्री-राम-लक्ष्मण-कुमारि सूर्पणखा= रावणनी बहिन, तेहन उ वेसास न कीधउ । किम ते कहइ-यदा कालि श्री-राम-लक्ष्मण बेहू वनवासि, फिरता फिरता जिवारइ लक्ष्मग-कुमारि शांबूक विद्याधर हणिउ, तिवारइ रावणनी भगिनी सूर्पणखा आपणा पुत्रनउ वध जाणी, जेतलई लक्ष्मण-समीपि आवी, तेतलइ लक्ष्मणनउं रूप देखी व्यामोही हूंती, पुत्रनी असमाधि मूकी, संभोगनई कारणि प्रार्थना करिवा लागी। तिवारइ लक्ष्मणि श्रीराम-कन्हलि मोकली। पणि श्रीराम न मानइ । वली श्रीगमि लक्ष्मण-कन्हलि मोकली। जिम डमरूनी मणि उरइ-परइ फिरइ, तिम ते सूर्पणखा फिरी । पणि तेहनउ वेसास न कीधउ । ए मोटउ दृष्टांत छइ । पणि शीताना चरित्र-हंतउ जाणिवउ तिम अनेरे पुरुषे पणि स्त्रीनउ वेसास न करिव । वली एह जि अर्थ दीपावतउ कहइ
पर-रमणी-पत्थणाउ दक्खिन्नाआवि मुझ मा मूढ । 'पडसि अणत्थे किं किल दक्खिन्नं रक्खसीहिं समं ॥ ८९
व्याख्याः -रे मूढ= मूर्ख ! पर-रमणी-परस्त्री, किवाग्इं मैथुन-सेवा-भणी प्रार्थना करइ, तु रखे तेहना दाक्षिण्य-लगी चूकइ । जु किवारई तेहना दाक्षिण्य-लगइ मोहइ पडिउ, चूकउ, तउ सही मोट: अनर्थि संकटि पडिसि । किल इसिइ(१३) प्रश्नि । किसिउ ? जे राक्षसी हुई तेहनी कोई काणि करइ ? अपि तु कोई न करइ । जिसी राक्षसी, तिसी परस्त्री जाणिवी । यतः
दर्शने हरते प्राणान् स्पर्शने हरते बलं ।
मैथुने हरते वीर्य स्त्री हि प्रत्यक्ष-राक्षसी ॥ २ हिव पारदारिकनी निर्भर्त्सना करइ
पररमणी-संगाओ सोहम्गं मा "मुणेसु निब्भग्ग ।
जइ सिद्धि-वहू-रंग करेसु ता मुणसु सोहग ॥९० व्याख्याः -हे निर्भाग्य-शेखर ! पर रमणी-प-स्त्रीना रंग लगइ आपणउं रूप, 'लावण्यादि सौभाग्यवंत करी म मानि । स्त्री बापडी कुण मात्र ? जइ किमइ सिद्धिवधू-मुक्ति-कन्या, ते साथि रंग करइ ते जु आपणइ वशि करइ, तेह-सिउ रमइ, तु ताहरउं सौभाग्यपणउं साचलं मान-तउ जाणउं सही, ताहरउं साचलं सौभाग्य । इति गाथार्थ । हिवइ संसाराभिलाषी जीवनइ मोक्षनउं लाभ दोहिलउ ते कहइ
बहु-महिलासु पसत्त सिव-लच्छी कह तुम समीहेइ । __इयरावि पोढ-महिला अन्नासत्त न ईहेइ ॥९१ १. Pu. पडिस्सं। २. C. मा मणेसु ।
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