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________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित व्याख्याः -अरे मूढ जीव ! जइ किसइ अनेरी बहु घणी स्त्रीनइ विषइ आसक्त होसिइ, तउ जे शिवलक्ष्मी=मुक्तिकन्या छइ, ते तूंहनइ किम वांछसिइ ? इहां दृष्टांत देखाडइ-जिम अनेरी : अन्य-स्त्री-आसक्त देखो विरती थाइ, तिम मुक्ति-स्त्री पणि अन्य-स्त्री-रक्त पुरुषनई न वांछइ । हिवइ निर्मल शील पालवइ जि करी मोक्षनी प्राप्ति हुइ ते कहइ-- सासय-सुह-सिरि-रम्म अविहड-पिम्मं समिद्ध-सिद्धि-वहु । जइ ईहसि ता परिहर इयराओ तुच्छ-महिलाओ ॥९२ व्याख्या:-अरे मुग्घ जीव ! जिहां सिद्धिवधू छइ, तिहां तु शाश्वतां निश्चल, अनंत सुख छई। वली शाश्वता, रम्यप्रधान, अनंत लक्ष्मी ते पणि तिहां छ । जे अनंतइ कालि विहडइ नही इसिउ प्रेम स्नेह पणि तिहां छइ। ए सर्व वात सिद्धिवधूनइ विषइ प्रसिद्ध छ। । इसी मुक्तिनारीनउ संगम जइ ईहइ वांछइ तु, इतर अनेरी जे तुच्छ अघमि, नीचि, निस्नेहि महिला छई, तेहनत संसर्ग मेल्हि रिहरि । अथ स्त्री-लंपटनइ किहां सुख न हुइ ते कहइ रम्माओ रमगीओ दट्ठं विविहाउ काम-तवियस्स । .. कत्थ सुहं तुह होही भणियमिणं आगमेवि जओ ॥९३ व्याख्याः -अरे आत्मन ! रम्य मनोहर रमणीना हावभाव, विविध कटाक्षक्षेपादि देखी, जउ कामि करी संतप्त होएसि, तु तूहनइ सुख किहां-थक उ होसिइ ? वली एह जि संबंध सिद्धांत-माहि कहिउ छइ । ते कहा जइ तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि नारीओ । वायाइद्धो व्व हढो अद्विअप्पा भविस्ससि ॥९४ व्याख्या:-जइ किमइ तूंजे जे नारी सुरूप देखिसि, ते ते नारी-ऊपरि जउ चित्त-माहि संभोगाभिलाष करेसि, तउ वायनउ अंदोलिउ वृक्ष, तेहनी परिई अनिश्चितात्मा होसि=अथिरआत्मा थाएसि । हिव स्त्रीनइ शरीरि वैराग्य-हेतु-कारण देखाडतु कहा रमणीणं रमणीयं देहावयवाण जा सिरिं सरसि । जुव्वण-विरमे वेरग्ग-दाइणिं तं चिय सरेसु ॥ ९५ व्याख्या:-हे विवेकी ! जिम तू उन्माद-जनक रमणी-स्त्री तणां स्तनादिक अंगोपांग तणी रमणीय-मनोहर श्री शोभा आपणा मन-माहि स्मरइ छइ, तिम तेही जि स्त्री तणां यौवननइ विगमनि-जगइ आविइं हूँतइ, एतलां वानां हुइ-स्तन सूकी जाइ, मुखिइ दांत न हुइ, सयरि लालरी बलइ, मुख लाल पडइ-इत्यादि स्त्रीनी अवस्था देखी, चित्त-माहि वैराग्य काइ न स्मरइ ? इति गाथार्थ। अथ शीलनउ महातम्य अनइ शीलरहितनी निंदा कहइ सील-पवित्तस्स सया किंकरभावं करंति देवा वि । सील-भट्ठो नट्ठो परमिट्ठी वि ह जओ भणियं ॥ ९६ व्याख्याः - जे पुरुष सीलि करी पवित्र हुइ-सुशीलवंत हुइ, तेहनइ देवता पणि किंकरभाव-दासपणउं करइ । अनइ जे परमेष्टीब्रह्मा हुइ, अथवा ते परमेष्टी-सरीखु हुइ, पर जउ शील-भ्रष्ट हउ, तउ निश्चिइ-सिउं नष्ट विगतउ इजि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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