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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध [ २३. शील-ऊपरि सती सुभद्रानी कथा] वसंतपुरि नगरि जितशत्रु राजा राज करइ । तिणि नगरि जिनदास श्रीवक वसइ । तेहनी वल्लभा जिनमति शीलवती । तेहनी सुभद्रा एहवइ नामि पुत्रि शीलादिक गुणे करी विराजमान, वाधती वाधती अनेक विद्याभ्यास करती यौवनावस्थाइ भावी । ते मिथ्यात्वनउ माम न सांभलइ । - इसिइ अन्यदा चंपानगरी-वास्तव्य बुद्धदासाभिध श्रेष्ठि व्यवसायनइ हेति वसंतपुरि आविउ, पणि बौद्धधर्मनइ विषयि ते विशारद छ । ते बुद्धदासे अन्यदा जिनदासनइ घरि आविउ किसिइ वाणिज्यनइ हेते । तेतलइ सुभद्रा सालंकार, साभरण तिहां आवी । तिणि बुद्धदासि दीठी। हिवइ तेहनइ रूपइ व्यामोहिउ हंतउ लोकना मुख-तु जिनधर्मनउ सर्व संबंध जाणी कपट-श्रावक हुउ। भाव-पाखइ सर्व महात्मानइ बांदइ , उपदेस सांभलइ । पर्युपास्ति करतां साधु-संसर्ग-लगइ सम्यक्त्वनो रुचि कानी। जिम चापानइ गधि तिल भाव्या हंता सुगंध थाई, चांपेल कहिवाइं. तिम ते जिनधर्म-वासित हुउ । पछइ श्री-वीतरागनी पूजा-वंदना-आवश्यकादि धर्म निरंतर करइ । रत्ननइ लाभि कउण प्रमाद करइ ? अपि तु न कोई । हिवइ जिनदास पणि बुद्धदासना विनीतादि गुणे रंजिउ हूंतउ योग्य वर देखी आपणी पुत्री तेहनई दीधी। भलइ मुहूर्ति, भलइ दिवसि, महा-ऋद्धिनइ विस्तारि, पाणिग्रहण कराविङ । पछइ महा आनंद ऊपनउ । हिव बुद्धदास सुभद्रा-सहित सुखिइ युगलीयानी परिई सुख अनुभवतां, अन्यदा बुद्धदास चीतवइ, 'मई तु घणउं धन ऊर्जिङ । हिवइ पिता-समीपि जई कुटुंबनइ मिलउं।' इम चीतवी सुसरानइ कहिवा लागउ जु, 'तुम्हे कहउ तु हूं चालउं । पितानइ मिल्या घणा दिन हूया ।' तिवारइ जिनदास श्रेष्ठि कहा, 'वच्छ ! ए वात तु जुगती, जे तुम्हे पितानइ मिलिवा चालउ। उत्तमनउ ए आचार छह । पणि विशेष एक छइ ते सांभल। तुम्हारइ जे मातापिता, ते बीजइ धर्मि अनइ जे सुभद्रा, ते तु जिनधर्मि। तु इम किम निर्वाह थासिई ?' तिवारइ बुद्धदास कहइ, 'हूं तिहां गया पछी पितानई प्रणमी, सुभद्रानइ जइ घरि राखिसु।' इम कहिउँ तिवारइ जिनदासि वचन मानिउं । पुत्रीनई सर्व सीख दीधी। तिहां-थिक बुद्धदास चालिउ । पंथ अवगाही चंपा आविउ। सुभद्रा जई घरि राखी, आप पितानइ प्रणमी, धन सर्व आणी पितानइ दोघउं। मातापिता पूछई, 'वह किहां?' बुद्धदास कहइ, 'मह जड़ घरि राखी छइ ।' पछइ सुभद्रा ऊपरि सासु-नणंद वयर वहइ जिनधर्म-भणी । हिवइ ते छिद्र मोती रहइं अनइ सुभद्रा केवलउ जिनधर्म पालती सुखिई रहइ । इम करतां एकदा माहात्मा एक भात-पाणीनइ हेति मध्याह्न-समइ विहरवा आविउ । तेतला बुद्धदासनइ सुभद्रानी सासू कहइ, 'वत्स ! ए सुभद्रा कुशीलि, सदाइ महात्मा-साथि भावइ तिम हसइ, बोलइ ।' तिवारइ बुद्ध दास कहइ, 'हे मात ! सोनइ किवारइ मल बइसइ, पणि ए-माहि कुशीलपण नही ।' वली सुभद्रानी सासू-नणंद मिस जोती रहई। एहवइ ते महात्मा मध्याहसमयि घर-माहि वहिरवा आविउ । हिवइ तेहनइ सुभद्रा प्रासुक भात-पाणी वहिरावइ छ। एहवा सुभद्रा जु महात्मा-सामहूं जोइ, तु सिउं देखइ ? तु वायनउं ऊडिउं तृणउं एक महातमानी आंखि-माहि पइठउं, पणि ते डोलनइ विषइ निस्पृही हूंतउ काढइ नही, अनइ कढावइ पणि नहीं। एहवउं देखी मिक्षा देतां जि लाघवपणइ करी, जीभइ करी आंखिनउं तृणउं कादिङ । पणि १. प्रतोमां वारंवार 'बुद्धिदास' पाठ मळे छे. २. P. लघुलाघवी कलाइ करी, K. लाघव-लगइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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