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मेरुसुन्दरगणि- विरचित
काढतां सीमंतनउ सिंदूर महात्मानइ माथइ लागउ । महात्मा निस्पृही, तें सिंदूर परहउँ न कीउ । हिवइ सुभद्रानइ मनि कपट तु कोई नही । इसिइ सुभद्रानी सासूइ ए सर्व आचरण देखा बुद्धदास तेडी कहिउं, 'ताहरा घरना आचरण जोइ । एतला दिन न तूं मानतु, पणि आज जोई । अजी ते महात्मानइ माथइ सिंदूर छह ।' पछइ बुद्धदास ते सिंदूर देखी पतीजिउ ।
हिवइ बुद्धदास ते दिवस लगइ विरतउ उ चींतवइ, 'एहवी इ सुभद्रा जउ 'इणइ आचारि हुइ तुहिन दूषण दीजइ ?' अनइ सुभद्रा पणि निस्नेह भर्तार देखी मनि चींतवइ, 'कारिमा संबंध जु साचा भणी, तु किस ते साचा थाई ? पणि असमाधि एह जि एक, जे जिनशासनि आकस्मिक ए अपवाद ऊपनउ । तु हिव काउस्सग्ग तहीई पारउं, जहीई ए अपवाद टलइ ।' इम चींतवी, देवपूजा करी आगलि ऊभी रही कहइ, 'अहो शासन- देवता ! मुझनइ ए अपवाद ऊपनउ छइ, तु हिव काउसग्ग हूं तही पारिसु, जहीहं माहरउ ए अपवाद उतारिषु ।' इम कही काउस्साग जेतलइ लीधउं, तेतलई शीलनइ प्रमाणि शासन- देवता आवी कहिवा लागी, 'वत्सि ! ताहरइ सत्त्विई, ताहरs शीलि हूं इहां आवी । हिवइ जि कांई ताहरइ कथनीय छह, ते कहि, जिम हूं करउं ।' तेतलइ सुभद्रा काउसग्ग पारी, प्रणाम करी कहिवा लागी, 'मात ! ए जिनशासननइ विष कलंक ऊपन छह ते परहउ करि ।' तेतलई शासन देवता कहर, 'वस्सि ! असमाधि म करेसि । प्रभाति तिम करिसु, जिम ताहरउं कलंक ऊतरिसिइ, अनइ वली जिनशासनि प्रभावना होसिह ।' इम कही देवता अदृश्य हुई ।
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इम करतां रात्रि विहाणी । इसिइ सूर्यनइ उदयि नगरनी पोलि पोलीया उघाडई, पणि ऊघडइ नही । गाईं, वाछरूया, भइंसि, घोडा - सहू इ तृषाक्रांत बारणइ आवी ऊभां रहियां । इसिइ राजानं सुद्धि हुई । राजा आपणपे आविउ । घण अणाव्या, पणि किमाड हालई नही अनइ भाजई नही । राजा पणि खेद पामिउ । पछड़ राजाई स्नान करी धूपना कुडछा हाथि ले कहिवा लागउ, 'जि को देव-दानव कुपिउ छइ, ते आकाशि आवी, प्रगट थई बात कहउ । अम्हे तर जाउं कांइ नही ।' इणि वचनि आकाशि देवतानी वाणी हुई, कहिउं, 'जि को महासती हुइ, ते काचइ तांतणइ चालणी बांधी कुआ-माहि थी पाणी काठी, किमाड त्रिणि वार पाणीई करी छांटइ, तु किमाड ऊघडई ।' पछइ राजाइ सर्व स्त्री तेडावी, चालणी अणावी. काचर तांत बंधावी । पणि किहनइ बांधतां शूट, किनइ बांध्या पछी हाथि लेतां त्रूटइ, किनई कूआकांठई टाइ, पणि कुआ-माहि किनइ कीधर चालणी न पइसइ । इम सर्व स्त्री लिखी हुई । पछड़ राजाइ पडहउ वजाविउ । पणि पडहउ कोई छबइ नही । लोक, राजा आकुल-व्याकुल थया, पणि पोलि ऊघडइ नही । सघली इ स्त्रीनी परीक्षा जोई ।
तिसिहं सुभद्रा मधुर स्वरि सासू-प्रति कहइ, 'मात ! नउ आदेश दिउ, तु एकवारे हुँ पणि विनोद जोडं । तिवारई सासू हसीनइ कहर, 'आगइ ताहरउं शील जाणिउं । हिव वली कांड लोक-माहि विगूचई १ जु एतली स्त्रीए पोलि नथी ऊघड, तु तई किम ऊघडिसिंह १ पणि ताहरइ जिनधर्म पाखंड निघणा दीसईं ।' तिवारई सुभद्रा कहर, 'मात ! तउ हिवई मद्द पणि पाँचन आचारि आपणी परीक्षा कीजिसिइ ।' इम कही स्नान करी, निर्मल वस्त्र पहिरी, सुभद्रा घर- हूंती नीकली । तिसिहं सासू, नणंद सर्व वार, पणि बलात्कारि जिहां राजादिक लोक ऊभा रहिया छ, तिहां आवी । पछइ बुद्धदास उदासीन हूंतउ तिहां आविउ । सासू, सुसरा सर्व तिहां आव्या ।
K. इणइ अनाचारि प्रवर्त्त ।
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