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शीलोपदेशमाला-बालावबोध हिवइ अन्यदा नंदीश्वरि शाश्वतां चैत्य वांदिवा-भणी विद्याधरनां सहश्र मिल्या छई । तिहां अंजनपुरनउ अधिपति पणि आविउ छ । तिसिई प्रहलादन-राजानउ पुत्र पवनंजय देखी, योग्य जाणी अंजनासुदरी कन्या दीधी। तेतलइ नैमित्तिकि लग्न दीघउं । पछइ बेहूं राजा आपणे आपणे घरे आर्व विवाहनी सामग्री कोधी । अंजनकेतु-राजाई महाऋद्धिनइ विस्तारि सामग्रो करी श्री-प्रहलादन-राजा-भणो लान-पत्रिका मोकली । हिव प्रहलादन-राजाई पणि सर्व कुटुंब तेडी जान चलावी । कांई पुत्रनइ काजिई कहिनइ उत्साह न ऊपजइ ?
इसिइ ऋषभदत्त पवनंजयकुमारनइ कहइ, 'हे मित्र ! आपणो मैत्रीनउ स्नेह भाजतउ दोइस छइ ।' तिवारइ कुमार कहइ, 'मित्र ! चालि, कउतिग जोई आवीइ, कन्या केवी छह । कांई स्नेह भाजिसिइ ? चाल तउ, ए वात जोईइ ।' पछइ बेहू मित्र विमानि बहसी प्रच्छन्न रात्रि सुसुरानइ घरि अंधकार-पट पहिरो आव्या। जिहां अंजनासुदरी सखीइं परिवरी वात करइ छह, तिहां आव्या । तिसिइ एक सखी कहिवा लागी, 'हे अंजना सुंदरि ! जे ताहरई कीधई वर जोयउ हतउ, तेहनई आऊवउं थोडउं । ते नात्र तउ रहिउं । अथवा वली तीणइ नात्रइंसि कीजई, जीणइ वियोग हुइ ?' तिसिइ अंजनासुंदरी कहइ, 'हे सखि ! थोडी-इ अमृतनी छटा किहां लाभइ १ ते देवदत्तकुमार किहां मुक्तिगामी ? ए वचन सांभली पवनंजयकुमार सिंहनी परिह कोपारुण-लोचन हूंत उ खड्ग लेई मारिवा ऊठिउ । तेतलइ ऋषभदत्ति हाथ-हूंतउ खांडउं ऊदाली लीधउं, 'हिवडां ए कोपनउ कउण अवसर ? भला मनुष्यनइ ए वात युगती नही । एक वली
आपणपे पारकइ घरि आव्या, वलि रात्रि, अनइ ए अणपरिणी पारकी स्त्री कहिवराइ ।' इसिङ कही खांडउं पाछउं घताविउं । पणि कुमार मनि दूहवाणउ । पछइ विरतउ हूंतउ घरि पाछ उ आविउ ।
तिसिइ अनेक हाथी, घोडा, रथ, पायक मेली पिताइ जान चलावी । गण्या दिन-परिऊ वाटइ अनेक दान दीजइ, गीत गाईइ, सुहासिणि कुमारनउ लूण ऊतारई । कुमार ते स्वपरू देखी मित्रनइ कहइ, “ए आरंभ युगतउं नथी । ए वीवाह दुर्जननी गोष्ठिनी परिई मुझनइ रुचतउ नथी ।' हिवइ ए वात माताई सांभली । माता आवी पुत्रनइ कहइ, 'वत्स ! तई सामान्य लोकनी आशा पूरवी । पछइ मातानइ निरास काई करई ? एक वार मंडाणि विवाह करिवा दिड ।। इसिई वली राजाई वात सांभली । राजा आवी कुमारनइ कहइ, 'ए सिउं इसाभली छइ, लाजनउ कारण ? अम्हारउं कीधउँ काज किहां ढील न हुइ । अम्ह जीवतां ते अनेरउ कउण छइ, जे ए कन्यानइ परिणिसिइ ?' इम सरोष बोलतउ राजा कुमारनइ सर्व आभरण पहिरावइ । पछइ हाथोइ बइसारी माथइ छत्र धराविउ । बिहुँ पासे चमर ढलिवा लागा, सुहासिणी गीत गावा लागी । यान नइ पगि पगि दान दीजइ । पणि कुमार हीया-माहि गूढ कोप धरतउ तंबोल लेवा लागउ । आगलि सर्व जानीया हुआ । वर चउरी-माहि आविउ । तिहां अंजनासुंदरी-पवनंजयकुमारनइ पाणिग्रहण हूउं । दान, भोजन, सन्मान सर्व अंजनकेतु-राजाई कीधां । जिवारई कुमार परिणी घरि आविउ, तिवारई प्रहलादन-राजाई सर्व जानी-लोकनई दान देई संतोष्यां हंतां विसा । आपणे आपणे घरे गया ।
हिव अंजनासुंदरी कुलाचार पालती आपणे गुणे करी सर्व कुटुंबनइ संतोषइ । पणि भवांतरना कर्म-लगइ पवनंजयकुमार अंजनासुंदरी-सामहुँ दृष्टि-मात्रई न जोइ । परण्या-पछी बोलावी नहीं ।
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