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मेरुसुंदरगणि-विरचित सरस्वती अदृश्य हूई । पछइ शंबराजा दत्त सहित देवशालनगरी-भणी सैन्ये परवरि र चालिउ । एहवइ विजयसेन राजाई शंखराजा आवत उ जाणी, जयसेनकुमार सामुहउ मोकली मोटइ विस्तारि नगरमाहि आणिउ । इसिई सयंवरा-मडपि सर्व राजा मिल्या । 'मांचइ जई बइठा । तेतलइ कलावती सालंकार साभरण सखीए परिवरी सभा माहि अवी । तिसिइं प्रतीहारिणी कहइ, 'जि को ए च्यारि प्रश्ननउ ऊतर देसिइ, ते कलावतीनु पाणिग्रहण करिसिइ । ते च्यारि पश्न केहां ?
को देवः को गुरुः किं च तत्त्वं सत्त्वं च कीदृशं ।
स्फुटीकर्ताहति स्पष्टं कलावत्या वरस्रज ॥१॥ ईणिइ प्रश्नि कुण ही राजानइ वलतु ऊतर नावइ । तिवारइ शंखराजाई कहिउं
वीतरागः परं देवो महाव्रतधरो गुरु ।
तत्त्वं जीवादयो ज्ञेया सत्त्वं चेंद्रिय-निग्रहः ॥२॥ ईणइ वलतइ ऊतरि दीधइ हूंतइ कलावती कन्या सहर्ष हूंती इ शंखराजानइ कंठि जेतलई वरमाला मकी, तेतलइ बीजा सर्व राजा रीसाणा । पणि कलावतीनइ शीलि शंखराजाइ सर्व राजा जता। पछइ भलइ मुहर्ति पाणिग्रहण कीधउ । मास एक तिहां रही आपणा नगर-भणी पाछउ चालिउ। तिसिइ विजयराजा पुत्रिकानइ शिख्या देई पाछ उ वलिउ । अनइ संखराजा कलावती-प्रिया, दत्तसहित एकणि रथि बइसी, पंथ अवगाहतउ, सैन्ये परवरिउ, आपणइ नगरि आविउ । तिहां सुखइ राज्य पालइ छइ ।
इसिइ कलावतीइ सउणा-माहि काम-कुंभ अमृत भरिउ दीठउ । जागरण पामी राजानई - कहिउँ । तिवारइ राजा कहइ, 'आपणइ घरि पुत्र जन्मीसिइ । ते राज्यनइ योग्य होसिइ ।' पछइ जेतलई आठ मास वीस दिन गया, एहवई कलावतीनइ पिताई जाणिउं जु, 'पुत्रीन उ पहिलउ प्रसव पितानइ घरि हुइ ।' तेह-भणी विजयसेन गजाइ कलावतीनइ लेवा पुरुष मोकल्या छइ । तेहनइ हाथि कलावतीनइ भाईइ कलावतीनइ अर्थि बि बाहेरखा लाख लाख द्रव्यना मोकल्या । वली लूगडां पणि मोकल्यां । तीणे पुरुषे आवी कलावतीनइ दीधां । अनइ कलावतीइ ते बहिरखा-वस्त्र राजानइ अणदेखाडिइ पहिरियां । पछई जे प्रधान आव्यां हूंता ते सन्मान देई विसा । हिवइ जे जयसेनभाईना अत्यंत स्नेह-लगी कलावतीइ ते बहिरखा आरणइ हाथि बांध्या, बांधीनइ हसती हूंती सखी-प्रति इसिउं कहिवा लागी, 'हे सखि ! जीणइ ए बहिरखा मोकल्या ते साथि माहरइ गाढउ स्नेह छइ । ते दिवस, ते घडी, किवारइ होसिइ, जिवारइ हूं तेहनइ मिली आपणउँ जीवितव्य सफल करिसु? जिणि कारणि आज मइ तेहनां हाथना मोकल्या बहिरखा पाम्या १ एहवउं मिश्र-वचन बोलती राजाई सांभली । तिवारइं राजा मन-माहि क्रोध धरतउ इसिउं चीतवई, 'जोउ, मुंझनइ टाली ए कलावतीनइ अनेरउ कोई चित्त-माहि वसइ छइ । मुझसाथि चिणउठीनी परिइं बाहरि स्नेह छइ. पणि एहनइ मन-माहि बोजउ कोई छइ । जोउ, एहनह हं सर्वस्व दिउ तुही ए माहरी वर्णना नथी करती। तु हिवइ हूं एहनइ छांडिसु ।' इम चीतवतां रात्रि पडी। तिसिई मातंगी-युगल तेडावीनइ इसिउं कहिउं जे, 'गणीनइ वन माहि मकीनइ तेहना बेह बहिरखा अनइ बेहू हाथ छेदी लेई आविज्यो । इहां कांई विचारणा म करिज्यो ।' इम कही ते बेह मातगी मोकली । पछइ शिय्या-पालक तेडीनइ कहिउँ, 'जाउ, जिम कोई न जाणइ तिम कलावतीनइ रथि बइसारी वन-माहि मूकी आवि ।' पछइ तिणि एकली कलावती
१. L. मंचि, C. P. मंडपि ।
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