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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
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रथि बइसारी अरण्य माहि लेई, रथ-हूंती ऊतारो, गदगद-स्वरि कहिवा लागउ, 'हे मात ! न जाणीइ, कीणइ कारणि राजाइ तूं वन-माहि मूकावी ।' जिम ए वात सांभली, तिम जि मूर्छागत हूं तो, रोवा लागो । वली सचेत थाइ, वली भुई पडइ । वलो माता-पिता-भ्रातानइ स्मरती तिम रोवा लागी, जिम पाखती वृक्ष छई ते ही रोवा लागा। इम अनेक विलाप करती ते सिय्यापालकनइ हाथि इसिउ संदेस उ कहाविउ जु, 'राजन ! मइ जे अनाचार कीघउ, ते तई मुझनइ कोई न जगाविउ ?' इम सांभली पछइ रथ-हंती ऊतारी जेतलई पाछउ वलिउ, तेतलइ मातंगी. जुगल आवीनइ कहइ. 'रे पापिणी ! तूं भर्तारनी वंचनानू फल भोगवि ।' इम कही बहिरखासहित चिन्हइ हाथ छेदीनइ लेई गई । तिवारइ कलावतो महा-विलाप करती पूर्वोपार्जित कर्म नइ झूरती नदोनइ तीरि जई वननिकुंज-माहि पुत्र प्रसविउ । पणि हाय-याखइ पुत्रनइ सार न कराई। तिवारइ रोती हूंती इसिउ कहइ, 'जोउ, जे दालिट्रीनइ कुलि पुत्र प्रसवीइ, तेहनइ घरे गीत गाईइ, उत्सव कीजइ । अनइ ए पुत्र राजानइ कुलि ऊपनउ छइ, ते पुत्रनी सार-इ-नउ संदेह पडिउ ।
इसिइ नदी महा-पूर आवी दीठो । ते देखो संकल्प-विकल्प करी पछइ कलावतीइ एहवी अवश्रावणा कीधी, 'जु मइ मनि वचनि कायाई करी शुद्ध शील पालि हुइ, तु ए नदी उपशमपणउं पामिज्यो । अनइ माहरा हाथ नवा आविज्यो ।' इम जेतलई कहिउं, तेतलई तेहना शीलनइ प्रमाणि कनकचूड-मंडित नव-पल्लव नवा हाथ आव्या । नदी उपशमी । तिवारइ आकाशि कुसुमनी वृष्टि हुई। पछइ कलावती पुत्र-सहित नदी ऊतरी पारि गई । एतलइ तापस आवीनइ कहइ, 'हे सुभगि! बालक प्रसविइ इहां रहिवउं नावइ । तेह-भणी तूं अम्हारइ आश्रमि आवि ।' इम कही आपणइ आश्रमि आणी । तिसिइ तापसपति पूछइ, 'वात्स ! तू क उणि ? कहिनी स्त्री ? किहां-हंती आवी ?' तिवारई कलावतोइ आपणउ सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ तापसि अश्वासना देई, पिताना घरनी परिई पुत्र-सहित कलावती आश्रम-माहि राखी।
हिवइ इसिई चांडालि आवी हाथ अनइ बहिरखा राजा-आगलि आणी मूकयां । तिसिइं गजाई बहिरखा हाथि लेई जोया । जु जोइ, तु कलावतीनु भाई विजयसेनकुमार, तेहनु नाम दीठउं । पछइ राजाइ ससंभ्रांतरणइ कलावतीनी सखी पूर्छ । कहिउं, 'देवशालनगर-हूंतउ कोई इहां आविउ हंतउ ?' तिवारई सखीई कहिउं, 'स्वामी ! कलावतीनइ भाईइ चि बहिरखा अनई वस्त्र मोकल्या हंता । ते जण अजी इहां जि छई।' पछइ राजाई ते जण तेडीनइ पूछया, कहिड'ए बहिरखा तुम्हे आण्या " तीणे कहिउँ, 'अम्हे आण्या ।' जिम ए वात राजाह सांभली, तिम राजा अचेत थई भुंइ पडिउ । तेतलइ प्रधाने ताढउ वाय घाती सचेत कीधउ । पछइ राजा हीयउं आहणइ. माथउँ कूटइ । तिवारइ प्रधानि कहिउं' 'पहिलउं अणविमासिइ काज न कीजइ, जु कीजइ तु एवडउं दुक्ख हुइ ।' गजा कहइ. 'हिव हूं ए दुक्ख सही न सकउं, काष्ट-भक्षण करिमु ।' इम कही राजा काष्ट-भक्षण कग्विा चालिउ । तिवारइ महुतइ कहां, 'स्वामी! सात दिन ताई पडख उ, जिम हूं एक वार ते ठाम जोई आवडं। किवारई तुम्हारा भाग्य-लगइ जीवती मिलइ ।' इम राजा समजावी, आपणि जोवा नीकलिउ । सर्व वन जोवा लागउ । पणि किहांड देवह नही । पछा तापसनइ आश्रम आवी, तापस पूछया, 'अहो तापसो ! ए वन-माहि एकाकिनी स्त्री दीठी कि ना?' तिसिइ तापस कहई, 'तिणि स्त्रीइ कण काज छइ ?'
१.PL. पहिलउ अणविमासिउं काज कीजइ तु ।
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