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मेरुसुन्दरगणि-विरचित वात जु ऊपनी मनि, तु प्रकासी काइ ?' इम दासी निर्भछी हूंती पाछी आवी । राजानइ सर्व वृत्तांत कहिउ । राजा मणिरथ चींतवइ, 'जा लगइ ए भाई जीवई, ता लगइ ए मुझनइ नही
तेह-भणी पहिलङ तां युगबाहु मारिवानउ उपाय चीतवीइ ।' इम विमासतां, चोरनी परिई किट जोतां वसंतऋतु आविउ । उद्यानवनि सर्व वनस्पती मउरी। एहवड वनपालि आवी राजा पीनविउ. 'स्वामी ! वनस्पती मउरी ।' ए वात सांभली राजा सहर्ष हउ ।
तिसिई युगबाहु मदनरेखा सहित वन-माहि गयउ । सघलउ दिवस वसंतक्रीडा करी, केलिना घर-माहि जई जेतलइ निद्रा करइ, तेतलइ मणिरथ राजाई अवसर जाणी, छल लही, थोडइ परवारि परवरिउ, दयपणइं शस्त्र लेई, वन-माहि आविउ । तेतलइ युगबाहुना सेवक ऊभा हुआ । मणिरथ कहइ, 'भाई किहां ? आपणइ तु चउ-पखेर वयर छइ, एह-भणी एकलउ भाई देखी हूं तेडिवा आविउ छउं ।' तिसिइ सेवक कहइं, “ए केलिहरा-माहि छइ ।' पछइ राजा खड्ग लेई केलिहरा-माहि पइसी, कुलधर्म, यश, दया लोपी, खगि करी युगबाह हणिउ । एहवइ मदनरेखा पोकार करती जागी, विलाप करिवा लागी । तेतलई पाहरी गमे गमे जाग्या इंता धाई सर्व एकठा मिल्या । पछइ राजाई कहिउ', 'भाईनइ हूं जगाडतउ हूतउ अनइ वरांसह खांडउ हाथ-हूंतु पडिउं ।' इम कही राजा घरि आविउ ।
पछइ मदनरेखा युगबाहूना काननइ मूलि आवी कहइ, 'रखे तुम्हे राजा-ऊपरि वयर चीतवउ । ए सर्व तुम्हारा भवांतरीक कर्म-लगइ ए वात आवी घटी। हिवइ जउ तुम्हे लगारइ काचउ थाएसिउ, तु परलोक-हूंतउ चूकिसिउ । एह-भणी मननइ समाघि आणु । श्रीवीतरागनउ शरण कर । ममता मूंकु । कहिना कुटुंब ? केहना भाई ? केहना घर ? सधला इंजीव साथिई मित्राचार पडिवजउ । अरिहंत-देव-सुसाधु-गुरु-जिन-प्रणीत धर्म एह जि पडिवजउ । आपणा पाप आलोउ, निंदु । सिद्ध-साखि जि कोई पुण्य कीघउ हुइ, तेहनी अनमोद । महामंत्र नवकार स्मरु । कांइ जु नवकार गुणतां प्राण जाई, तु जीव मोक्ष पामइ । कदापि मोक्ष न पामइ, तुहइ विमानना सुख पामइ । पांच अणुव्रत, त्रिणि गुणव्रत, च्यारि शिक्षाव्रत-इम बार व्रत आदरउ । तुम्हारइ मित्र, पुत्र, कलत्र कोई शरण नही, एक जि जिन-धर्म शरण । वली ए मनुष्यभवनी सामग्री दोहिली छई, तेह-भणी हिवडा प्रमाद म करिज्यो ।' एहवा मदनरेखानां वचन सांभली कोप उपशमिउ । संवेगरंग-पूरिउ हूंतउ मरी ब्रह्म-देवलोकि देवता हउ। इसिई सती मदनरेखा. पुत्र चंद्रयश, बीजा इसवें परिवार विलाप करतां देखी चींतवइ जु, 'हं गर्भि-हंती विलय कांड न गई, जे माहरउ' रूप एवडा अनर्थनई हेति हुई ? जे युगबाहु विनाश पामइ, तेहनउं मूल हू थई, जिम सूकडिना वृक्षनइ परिमल विणास ऊपजावइ । तु हिव ए वात तां इम हुई, पणि मइ आपणउ शील किम राखीसिइ ते उपाय चीतवउ ।'
पछह कांइ एक मन-माहि ध्याई, सर्व पुत्रादिक तृणनी परिई परिहरो, सघलानो दृष्टि वंची, रात्रिन समइ नाठी । पूर्वदिशिइं जाती, गर्भ धरती, संसारनी असारता चौंतवती, पगे डाभनी पीड सहती अटवी-माहि पइठी । तिसिई रात्रि अतिक्रमी । पंथ अवगाहतां मध्याह-समई तलावि
आवी पाणी पीधउं, फलफूल आस्वाद्यां, त्रिषा-बुभुक्ष्या उपशमावी, संध्यानइ समह सागार पच्चखाण पच्चक्खी, वेलिना घर-माहि सूती नवकार स्मरती । इसिई रात्रिई सिंह बोलइ महा भयंकर वन-माहि । तिहां सर्वांग सुंदर पुत्र प्रसविउ, जिम पूर्व दिशि सूर्यनइ प्रसवइ । पछइ तलावि आवी, पाणीइ करी सर्व शरीर धोई, बालकरत्न कंबलिइ वीटी, हाथि भतारना नामनी मुद्रिका
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