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________________ २६ मेरुसुन्दरगणि-विरचित तिहां-हूंतउ चिवी अनार्य-देशि हूं आर्द्रकुमार हूउ । तु धन्य ते अभयकुमार जीणइ हुँ प्रतिमानइ मिसिइ प्रतिबोधिउ । पणि अजी माहरइ पोतइ घणा पाप छइ, जे अभयकुमारना हूं मिली नथी सकतउ ।'-इम मनोरथ करइ । प्रतिमानइ एकांति सदा पूजइ ।। एकदा राजा प्रति कहइ, 'हे तातपाद ! जु कह[3] तउ एक वार आपणु मित्र अभयकुमार तेहनइ मिली आवउं ।' तिसिइ राजा कहइ,' वच्छ! आपण प्रोति ठामि जि थकां छई, पणि जईइ आवीइ नही ।' ए वात सांभली आर्द्रकुमार गाढेरउं अभयकुमारनउं ध्यान धरइ । सूतां-बइसतां एह जि चीतवइ, 'जु पांख हुइ तु ऊडी जाउं । ते केहवउ मगदेस छइ, केहवउ राजगृह छइ, ते अभयकुमार केहवउ छह ?' पछई आदनराजाई चीतविठं जउ, 'ए आर्द्रकुमार तु चलचित्तउ दीसइ छइ । इम जाणीइ घरि नही रहइ ।' पछइ पांचसई सुभट पाषती रखोपइ मूंक्या, देहनी छायानी परिई केडि न मूंकइ । तिसिई आर्द्रकुमारि आय मांडिउ । आप घोडइ असवार थई वहीआलीइ जाइ, घोडा फेरवइ, वली पाछउ आवइ। इम दिनि दिनि वेला जालवइ, घडी बिघडी प्रहर अंतरालि करइ । वली ते राजाना सुभटनई आवी मिलइ । तिसिइ आर्द्रकुमार आपणा मित्रपाहइ प्रवहण सज्ज करावइ, रत्ने करी प्रवहण पूरावई । परमेश्वरनी प्रतिमा ते पणि चडावी । वली घोडानइ मिसिइ वहीयालीइ घोडा फेरवतां पांच सई सुभट केडिइ मुंकी आणि प्रवहणि बइठउ अदृश्य हउ । पछइ आर्यदेशि आवी, प्रतिमा अभयकुमारनइ मोकली, धन सर्व साते क्षेत्रे वेची. यतिलिंग जेतलइ ऊचरिवा लागउ तेतलइ आकाशि देवता बोली, 'अहो आर्द्रकुमार! तूंह जि दीक्षा लिइ छइ ते पडिखि । अजी ताहरइ भोगहली कर्म घणउं छह । पडिखि। चारित्र म लेसि । मोगफल भोगवी चारित्र लेजे। तिणि भोजनि स्यु कीजइ जे पेट-माहि रहइ नही ? एहवां वचन सांभली तेही अवगणीनइ चारित्र लीघउं। ते प्रत्येक-बुद्ध मुनि चारित्र लेई वसंतपुर-नगरनई बाहरि देवकुल छह तिहां आविउ । तीणइ नगरि धनावह श्रेष्ठिनी धनवती भार्या, इसिई नामिइं पुत्री हुई। क्रमई यौवन पामी । अनेरइ दिवसि पांच-सात सखी-सहित नगरनह परिसरि देवकुल छह तिहां रमिवा लागी । तीणे एकेकउ थांभउ बालस्वभाव-लगह पुरुषपणइ वरिउ । तिहाँ आर्द्रकुमार मुनि प्रतिमाइं कायोत्सर्गि रहिउ देखी पूर्वभवना स्नेहलगी थांभानी भ्रांतिई आर्द्रकुमार जि वरिउ । तिसिइ देवताइ कहिउं, 'भलउ वर वरिउ ।' इम कहइते रत्ननी वृष्टि कीधी। तिसिइं घनगर्जित देवी श्रीमती बोहतो हूंती पगे वलगी रही। तिसिह महात्मा उपसर्ग सानुकूल देखी, पग मूंकावो, विहार कीधउ । तिवारइ श्रीमतीइ कहिउं जु, 'इणि भवि भर्तार तु तूंह जि, अनेरउ नही ।' पछइ श्रीमती घरि आवी । हिवइ तिहां रत्ननी वृष्टि कीधी हूंती ते देखी राजा लोभनउ लीयउ रन लेवा आविउ तिसिहं देवताई कहिउं. 'ए रत्त सर्व अम्हे कन्याना वरगइ दीघां छइ ।' तिसिइं राजा विलखउ हंतउ पाछउ गयउ । पछा ते धन श्रीमती लेई पितानइ घरि आवी । तिसिई श्रीमतीना वरणा-भणी घणा श्रेष्ठ मागिवा आवह। पणि श्रीमती कहइ, 'मुझनइ इणि भवि तेह जि पति भरतार, अवर कोई नही ।' तिवारइ अष्टि कहइ, 'हे वरिस ! ते वर किम लामिसिइं? तेहनउ स्युं नाम तिसिई श्रीमती कहा, 'तेहनउं नाम न जाणउं । पणि मेह गाजतइ बीहती थकी जिवारइ ते मुनिनइ पगि बलगी १. L. पाहंति २. L. वाहिड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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