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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
पक्खंदे जलिय जोई धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति तय भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥१ धिरत्थु ते जसो कामी जो तं जीविय-कारणा ।। वतं इच्छसि आवेउ सेअंते मरणं भवे ॥२ अहं च भोगरायस्स तं च सि अंधगवहिणेो । मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर ॥३. जइ तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि नारीओ ।
वायाविद्धो व्व हढो अटिअप्पा भघिस्ससि ॥४ भो महापुरुष ! दोहिलउ मनुष्य-भव पामी, वली चारित्र तिहां दोहिल पामी, असार काम-भोगनी वांछाई जन्म कांइ हारइ १ बाटी-वडइ अरहट कांइ वेचइ ? कउडीइं काजि कोडि काइ हारिइ ? अनइ विशेषि महासतीनइ व्रत-भंगि नरगगति पामीइ । यतः
चेईय-दव्व-विणासे रिसि-घाए पवयणस्स उड्डाहे ।
संजय-चउत्थ-भंगे मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥ तेह-भणी अहो उत्तम पुरुष ! धीरपणउं आदरी सूधउं चारित्र पालि' ।' एह्वां अमृतरस-सरीखां वचन सांभली रथनेमी मन-माहि चीतवइ, 'ए राजीमती स्त्रीइ हुँती धन्ये, अनइ ई पुरुष हूंतउ अधम जे एहवी वांछा करउं । अथवा जात्यरत्नन मूल कउण जाणइ ? तु हिवइ एह जि राजीमती मुझनइ गुरुणी, एह जि सगी, एह जि मित्र, जीणइ हूं नरकरूप कुआ-माहि पडत राखिउ ।' इत्यादि घणा उपदेस मन-माहि आणी, श्रीनेमिनायना चरण-समोपि आवी, आपणा पाप आलोई, निंदी, गरही, च्यारि वर्ष-सइनई प्रांति एक वरस छद्मस्थपणउं पाली, पछइ केवलशान पामिउं । पांच-सइ-वरस'-ताई एवंकारइ नवसई एक वरस एतलऊँ सर्व आयु पाली, रथनेमि मोक्ष पहुतउ ॥ इति श्री रथनेमि-कथा समाप्ता ॥ ११
__ तु जोउ, एहवउ उत्तम चरम-सरीरी रथनेमि तेही विषए पराभविउ, तु बोजा जीवनी कउण वात?
मयण-पवणेण जइ तारिसा वि सुरसेल-निच्चला चलिआ ।
ता पक्क-पत्त-सरिसाण इयर-सत्ताण का वत्ता ॥३३ व्याख्या:- मदन-कंदर्प, पवन वायु तिणि करी सुरशैल-मेरुपर्वत सरीखा छइ जे निश्वल= धीर पुरुष आर्द्रकुमार, नंदिषेण, रथनेमि प्रभृति महामुनि तेहवा इ जु चलाव्या, तु बापडा अपर जोव पाका पान सरीखा मदन-वायइ कांपतां सन्मार्ग कइ, वृक्ष-हंता खडहडी पडइ, तेहनी कउण वात १ तेहनइ पडतां वार कांई न लागइ । यत:
वायुना यत्र नीयन्ते कुराः षष्टिहायनाः ।
गावस्तत्र न गण्यन्ते मशकानां च का कथा ॥ हिवइ कंदर्पनइ जीपी न सकीइ ते कहइ
जिप्पंति सुहेणं चिय हरि-करि-सप्पाइणो महाकूरा ।
इक्कं चिय दुज्जेओ कामो कय-सिवसुह-विरामो ॥३४ १. L. पालउ । २. L.A. मां 'एह जि सगी' नथी. ३. K. जेणीइ ४.K..लगइ
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