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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
[१६. रथनेमिनी कथा]
द्वारिका-नगरीइ श्री नेमीश्वरि राजीमती परिहरी, जिवारइ श्रीगिरिनारि जई दीक्षा लीधी, तिवारइ पाछलि रथनेमि राजीमतीनइ विषइ अनुरक्त हूंतउ खादिम, स्वादिम, वस्त्र, अलंकार इत्यादि राजीमतीनइ मोकलइ । पणि राजीमती तु सरल स्वभाव-लगइ जाणइ जउ - मुझनइ देवर भणी 'बोलबांह दिइ छ । इम एकदा प्रस्तावि रथनेमिइ राजीमती-आगलि कहिउं, 'नेमिनाथइ तु दीक्षा लीधी अनइ अजी तूं तु कुंआरी छइ, मुझ साथिइ पाणिग्रहण करि ।' तिसिइं राजीमतीइं रथनेमिनउ एहवउ मनोरथ देखी रथनेमिना पतिबोध-भणी खीर, खांड, घी जिमी, पछइ मयणहलनउ गंध लेई, तत्काल स्वर्णना-थाल ऊपरि ते आहार वमिउ। पछइ रथनेमि तेडीनइ कहिउं जउ, 'ए आहार जिमिइ ।' ईणइ वचनि क्रोध लगइ रथनेमि कहिवा लागउ, 'हे सुभगि ! हूं किसिउं स्वान-पाहिइं अधिकउं हउ, जे वमिउ आहार जिमु? तिसिइ राजीमती कहइ, 'तुम्हारउ वडउ भाई श्री नेमिनाथ, तीणइ आठ भव- तांई माहरउ अंगीकार करी, नवमइ भवि हूं त्यजी, तु है वम्या आहार सरीखी छ, किम तुम्हे माहरउ अंगीकार करिसिउ १ जोउ नइ, हाथीइ चडी रासिभि किम चडीइ ? अमृतपान करी विषनउं पान कउण करई ? सुवर्ण मूकी काच-कथीर कउण पहिरई ? तिम नेमिकुमार मंकी अनेरानी कउण वांछा करइ ?' इत्यादि दृष्टांते करी रथनेमि प्रतिबोधिउ । तिसिइं श्री नेमिनाथनइ श्री गिरिनारि-ऊपरि केवल ज्ञान ऊपनउं । पछइ राजीमतीइ स्वामीनइ ज्ञान ऊपनउं सांभली, राजीमती नेमिनाथ-कन्हइ जई दीक्षा लीधी । रथनेमिइं पणि चारित्र लीधउं । इम एकदा प्रस्तावि विहार करतां वरसालइं श्री नेमिनाथ गिरिनारि आवी समोसरिया। रथनेमि पणि स्वामी साथिई आविउ । पछइ श्री गिरिनारिनी गुफा-माहि जई काउसम्ग करी ध्यान-संलीन हूंतु, तप करिवा लागउ ।
एहवइ प्रस्तावि वर्षाकाल-समइ राजीमती परमेश्वरनइ वांदिवा-भणी पर्वति चडिवा लागी । तेतलइ मेह आविउ, राजीमतीनां सर्व वस्त्र भीनां । पछइ राजीमती निवरडं जाणी तेह जि गुफा-माहि पइठी। तिहां अन्धकार-लगइ रथनेमि मा ह न दीठउ । पछइ निवर जाणी राजीमतीइं आपणा अंगनां सर्व वस्त्र ऊतारी विरलां घात्यां। तिसिइं रथनेमि गुफा-माहि निरावरण राजीमती देखी कामांध हूंतउ मनि चीतविवा लागउ, 'माहरउ जन्म सफल तु, जउ हं एहनउ अंगीकार करउं ।' पछइ रथनेमि आगलि आवी राजीमतीनइ आपणउ अभिप्राय जणाविउ । तेतलइ राजीमती तत्काल वस्त्र पहिरी रथनेमिना प्रतिबोध-भणी कहिवा लागी, 'भो महानुभाव ! गृहस्थावस्थाई जु मई तूं नादरिउ, तु हिव जोइन, चारित्र लीधइ किम तं आदरिसं? पणि रथनेमि ! आपणइ हीयइ विमासि, तू केणई कुलि ऊपनु छ ? कहिनउ पुत्र ? कहिनउ भाइ ? पिता तउ समुद्रविजय, माता तउ सिवादेवी, भाई तु श्री नेमिनाथ, कुल तु अंधकवृष्णिर्नु ।
अनइ हं तु भोजगरायनइ वंसि ऊपनी । तु आपणपानइं एहवउं अधम-कर्म करिवा नावइ । पाधरा जे गधननइ कुलि ऊपना सर्प, ते ही वमिउं विष प्राणनइ त्यागिई पाछउं न लई । तुत किसिउं साप-पाहिइ अधम छइ, जे कउण भोग वली वांछइ १ श्री दसवैकालिक सिद्धांतमाहि कहि
१. K. बोलावइ छइ २ K. मनोगत भाव जाणी रथ० । ३. K पाहंति ४. K लगइ ५. L. K जाणी
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