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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
ते उपदेश सांभली श्रेणिकि सम्यक्त्व लीघउ, अभयकुमारादिके श्रावकनउ धर्म आदरिऊं। पछेह सपरिवार आपणइ घरि आविउ । तिसिई नंदिषेण पितानइ प्रणाम करी कहिवा लागउ, 'स्वामिन! एतला दिन तुम्हे लालिउ-पालिउ, परिणाविउ । हिवइ श्री महावीर-समीपि जई दीक्षा लेसु।' पछद मातापित ए समझाविउ तुहइ बलात्कारि समोसरणि जई दीक्षा लेवा लागउ । तेतलइ आकाशि देवताए वाणी बोली जउ, 'भोगहली कर्म भोगव्या पाखद नही छूटइ । दीक्षा म लेसि । घर रही भोग-कर्म भोगवि ।' तिसिई नदिषेग साहस-लगी कइ. 'कर्म माहरउ सिउं करिसिइ ?' एहवउ साहस करी दीक्षा लीधा । जगन्नाथइ पणि कहिउं तुही कहइ, 'हाथीनइ दांत सामुहा हुइं पणि पूठइ न हुई ।' पछइ महा तपि करी डील शोषिवा लागउ। जेतलइ भोगनी इछा ऊपजइ, तेतलइ रूधीनइ प्रेतवन-माहि जई आतापना काइ, पण निवर्तइ नही । पछह मरणांत आय चोतवइ, पगि मरइ नहीं । पछइ कुडिनपुरि नगरि छठनइ पारणइ एकाकी वेश्यानइ घरि जई धर्मलाभ कहिउ । तेतलइ पणि गणिका कहइ, 'अम्हारइ धर्मलाभ न बोईइ, ट्रम्यलाभ जोईइ ।' तिसिइ नदिषेणि नेव हूंतउ तृणउ एक काढी नांखिउ । तेतलई बार कोडि सुवर्णनी राशि पडी । पछइ नदिषेण जावा लागउ । तेतलई धाई पगे वलगी इसिउ कहइ, 'स्वामिन ! हिव किमइ जावा लहिसिउ १ ए धनराशि भोगवउ ।' पछइ तेहनइ वचनि भोगहली कर्मनइ उदयि देवतानउ वचन चोंबारी, जाणतउ इ हूंतउ तेहनइ घरि रहिउ । पणि 'दिन प्रति दस-दस जीवनई प्रतिबोधउं तु भोजन करू, जहीइ न प्रतिबोधउ तहोइ हूं दीक्षा लेउ' -एहवउ अभिग्रह लेई नदिषेण ते वेश्यानइ घरि रहिउ, भोग पंचविध भोगवइ । हिवइ दिन प्रति दस-दस जीव प्रतिबोधी स्वामी-कन्हलि मोकलइ । इम घणउ काल गिउ । आपणइ धर्म सघउ पालइ । इम एक दिनि नव जीव प्रतिबोध्या, दसमउ टाक-देशनउ जीव आविउ । तेहनइ घणउ समझावइ, पणि समझइ नही । तेतलइ रसवती नीपनी। वेश्याई दासि-हाथि कहावित 'स्वामी! रसवती ताढी हई छइ, तुम्हें आवउ ।' तेतलइ नंदिषेणइ कहिउँ, 'नव जीव प्रतिबोध्या, पणि दसमउ जीव थाकइ ।' इसिइ कर्म क्षय गयउ । तिसिई वेश्याइ हासा लगी कहिउं, 'स्वामी ! आज दसमा जीव तुम्हे जि हृया, दीक्षा लिउ ।' इणि वनि श्रेणिकपुत्र नदिषेण
श्री महावीर-समीपि जई, आलोचना लेई, चारित्र आदरी, दुःसह परीसह सही, देवलोकनां सुखनउ भाजन हुआ। तु जोउ, विषय एहवा इ सत्पुरुषनइ विडंबना ऊपजावइ, तु अनेरान सिङ कहिवउ १ ॥ इति नदिषेण-कथा संपूर्णा ॥ १५ ॥
वली विषयनइ दुर्जयपणउ देखाडतउ कहइ
जउ-नंदणो महप्पा जिण-भाया वयधरो चरम-देहो।
रहनेमी राइमई(? इइ) रायमई कासि ही विसया ॥ ३२ व्याख्याः - यादववंश-मंडन, समुद्रविजय-नंदन, महात्मा, उपशांत-चित्त, जिन श्री नेमिनाथनउ लघु भ्राता, व्रतनउ धरणहार, चरमदेह-तीणइ जि भवि मोश्च जासिइ, एहवउ इ रथनेमि बउ राजीमती-ऊपरि राग करइ, तु ए विषयनइ ही इसिइ खेदिई धिग् धिक्कार हु । जीणइ ए इंद्रीने विकारे एहवउ रथनेमि विकारपणउं पमाडिउं, तु ते विषय किम जीपाइ? ते भावार्थ कथाहुंतु जाणिव ।
हिव ते रथनेमिनी कथा कहीइ -
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