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शीलोपदेशमाला-बालावबोध इसिइ भरत चक्रवर्ति सभा-माहि बइठउ छइ, तेतलइ यमक-समकि बिहुं पुरुषे आवी सभा-माहि भरतनइ वधामणी दीधी , कहइं, 'स्वामी! श्री ऋषभदेवनइ केवल ऊपन।' तेतलइ वली बीज वधामणी दोधी, कहइ. 'स्वामो! आयुधशाला-माहि चक्ररत्न ऊपन छ ।' पछइ ए बेहूं वात सांभली भरत चौतविवा लागउ, 'तां चक्ररत्ननो पूजा संसारनइ हेति छड़, अनइ जे स्वामोनइ ज्ञाननी उत्पत्ति ते तु मोक्षनइ हेति ।' इम विमासीनइ भरत श्रीऋषभदेवनइ वांदिवा-भणी सपरिवार सेनासहित नीकलि उ । पछइ तिहां पूर्वद्वारि समवसरण माहि आवी, त्रिणि प्रदक्षिणा देई स्वामीनइ वांदी, यथायुक्तिइं भरत बइठउ ।
हिवइ स्वामी सर्व भाषाइ सर्व जीवनइं उपदेश दिइं जु, 'संसार-रूपीया क्षारसमुद्र-माहि जरा-व्याधि-दुर्गति-रूप नक्र-चक्रे संक(व)लित तिहां प्राणीनइ किसिउं सुख छ? पणि तिहाइ केएक जीव सुरस्थलनइ परिई सुख पामई । तु चतुर्गतिक संसार-दुक्ख-रूप-माहि विचरतां मोक्षनी वांछा कीजइ ते यत्निई करिवउं ।' इत्यादि उपदेश सांभली पांच सइ पुत्र भरतना दीक्षा लेषा लागा । सात सइ पोतरा पणि दीक्षा लेवा लागा । तिवारई भरति ब्राह्मीनइ आदेश दीघउ । ब्राह्मीइ पणि दीक्षा लीधी । सुधाकुंड पामी कुण अमृतपान न करइ ? अपि तु सहु-इ करई । तिसिइ बाहूबलिई पणि सुंदरोनइ अनुमति दीधी, 'जा, चारित्र ल्यइ ।' तेतलइ भरति सुंदरी दीक्षा लेती राखी। पछइ स्वामीनई पहिली श्राविका हुई । हिवइ सुंदरीनउं सुंदर रूप देखी स्त्री-रत्ननी वांछाइ सुंदरी रावो मूंकी । भरतइ पणि श्रावकन उ धर्म पडिवजिउ । पछइ चक्ररत्ननी पूजा करिवा-भगी भरत आवशाला-माहि गयउ । तिहां प्रदक्षिणा देई, चक्ररत्ननह नमी. • अष्टारिका महोत्सव करी, भरत दिग्विजय भणी चालिउ । तेतलइ सोल सहश्र यक्ष सेवा करवा लागा।
हिव भरत छइ खंड साधि छइ एहवइ वली चक्ररत्न १, खड्गरत्न २, छत्ररत्न ३, दंडरत्न ४-ए च्यारि रत्न आयुधशाला-माहि ऊपनां । पणि च्यारिइ एकेंद्री जाणिवां। हिवइ - कागिणीरत्न ५, चर्मरत्न ६ अनइ मणिरत्न ७-ए त्रिण्णिइ लक्ष्मीनइ घरि पाम्यां । सेनापति
८. गृहपति ९, पुरोहित १०, वार्षिक ११-ए च्यारि रत्न विनितानगरिइ हूआं । गजरत्न १२, अश्वरत्न १३ वैताढय-मूलि पाम्यां । वली स्त्रीरत्न १४ ए विद्याधर-श्रेणिइं ऊपन । - इम चऊद-इ रत्न ऊपनां। हिवइ भरत साठि सहस्र वर्ष लगइ सघलइ दिग्विजय करी पाछउ
आविउ पछइ भरत चक्रवर्ति विनीता-नगरीइ आवी बार वरस-लगई राज्याभिषेक कराविउ । एहवइ सुंदरीइ सांभलिडं, 'जे स्त्री-रत्न हुइ ते छट्ठी नरग-पृथ्वीइं जाइ।' ए वात सांभली सुंदरी मनि अपार दुक्ख धरिवा लागी, 'धग माहरा रूपनइ, जे रूप-लगी नरकि जाई । तु तिणि रूपि, स्त्री-रत्ननी पदवीइ किसिउं करिवउं छइ जेह-लगइ नरग पामीइ?' इम चीतवी साठि सहश्र वर्षलगइ सुंदरीई आंचिल कीधां । पणि तपि करी सूकी लाकडी-सरीखी हुई। .
____एहवइ भरत चक्रवर्ति छइ खंड साधी घरि अंतःपुर-माहि आविउ । इसिइ सुंदरी दूबली - दीठी । सूआर पूछया, 'कहु रे ! माहरइ घर किसिउं धान न हुंतु ? किं वा खादिम न हंतां ? किं वा स्वादिम न हुतां १ अथवा कोई कृपण भंडारी हूंतउ, जे देतउ कांई नही ? कि वा वस्त्र अलंकार पहुचतां न हुंतां ? अथवा मू जावतां एहनइ कुण दूहवइ छइ ? किं वा
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