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________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित [७. स्नेहप्रह-ऊपरि विजयपालरायन दृष्टांत] पुरिमताल नाम नगर । तिहां श्री विजयपाल राज करइ । तेहनइ रंभा नाम पट्टराणी । हिवह अन्यदा प्रस्तावि राजा गजारूढ हंतउ रइवाडीइ नीकलिउ। तिहां लक्ष्मी, ष्ठिनी पुत्री. तेहनउ रूप देखी श्रेष्ठि-कन्हइ मागी राजाइ पाणिग्रहण कीघउं । पछइ अति विषय-आसक्त इंतउ राजा अंतःपुर-माहि थकउ रहइ । विवेक करी विकल राजा राज्यनी कणवार' न करइ। तिसिइ प्रधानि आवी राजा वीनविउ, "स्वामी ! अति विषय-सेवा सोभइ नही । भलउ इ मनुष्य अति विषय लगइ लघुता पामइ । तेह-भणी तुम्हे राजनी चिंता करउ ।' तिसिई राजा वलतुं कहिवा लागउ जे, 'ए मृगाक्षी लक्ष्मी जीवइ तां जि लगइ मुझनइ जीवतव्य छइ ।' एहवउ राजानु अभिप्राय जाणी जेतलइ मुहुता कांई विमासइ तेतलइ राजानी वल्लभा परोक्ष हुई। प्रभात-समइ राजा ए वात सांभली अचेत हुउ । तेतलइ बावना चंदन शीतल जलने उपचारे करी राजा सचेत कीघउ । पछइ रोतउ हूंतउ असंबद्ध वचन बोलिवा लागउ । तेतलइ प्रधान कहिवा लागा 'स्वामिन ! ए देवी परोक्ष हुई । हिवइ अग्निदाघ दीजइ ।' राजा वलतुं कहइ, 'तुझे आपणा माबापनइ अग्निदाघ दिउ ।' इम करतां मध्याह्न समय हूउ तु ही राणी न बोलइ । पछइ राजाई भोजन छांडिउ । इम दस दिन राजानइ गया । तिसिइ प्रधाने काइ एक आलोची पुरुष एक सीखवी राजा-कन्हलि' मोकलिउ जउ, 'महाराज! तुम्हारी प्रियाइ हूं स्वर्ग हूंतउ मोकलिउ । इसिउ कहाविउं छइ जउ हूं मनुष्यलोकइ नही आविउ । इहां अशुचि दुर्गधि तेह-भणी मइ न अवाइ । स्वर्गि तउ संपूर्ण सुख छइ । जु माहरी आर्ति छइ तु तूं वेगउ आविज्ये ।' तिसिइ राजाइ प्रधान पूछया, 'मई स्वर्गि किम जाईइ१। प्रधाने कहिउं, 'स्वामी ! पहिलु तां भोजन करउ, पछइ स्नान विलेपन । पुएयकाज साधउ। जिम ए जण आविउ छइ तिम वली पाछउ वलावीई ।' इम कही राजानई भोजन करावि जिणि कारणि रागांध जीव करणीय-अकरणीय काई न जाणइ । पछइ ते जण प्रधाने प्रच्छन्न राखिउ। दिन बि गया । तेतलइ वली प्रधाने कपूरवासित सोपारी नइ पान ते जण-हाथि मोकल्यां । कहिउं, 'देवीइ मोकल्यां छई।' राजा रलीयात थिकउ* लेई आरोगिवा लागउ । वली दिन बि पडखी अपूर्व फल लेई आविउ । राजा तेहनई पंचांग पसाउ करी संतोषइ । तेतलइ प्रधाने चीतविउं, रखे कोई धूर्त शिरोमणि ए भेद भांजइ तेह-भणी वली कांई आय रचीइ। पछइ भूर्जात्र एक सकोरल कस्तूरिकाई खरडी अक्षर कोरी राजाना कागल लिखी प्रधाने जग हाथि दोघउ । तिणि राजानइ आणी दीधउ । राजा वांचिवा लागउ । तिहां इम लिखिउ छ, 'स्वास्त श्री पुरिमताल-नगर श्री विजयपाल राजान ना नमरी स्वर्ग-हंति लक्ष्मीराणी वीनती करइ छइ, स्वामिन् ! इहां इंद्र आविवा न टिड. तेह.भणी ए जण-हाथि हिवडां आभरण वस्त्र मोकलिज्यो । वली मासि पाखि वस्त्र मोकलिज्यो।' तिसिह प्रधाने कहिउं, 'स्वामी ! देवीनइ कांई मोकलिउं जोईइ । राजाइ प्रधान पूछया. 'ए जण किस जाड छड पछइ प्रधान कहिउं, 'वेदि-माहि आगि प्रज्वालीइ तेह-माहि ए वृद्ध जण पइसइ।' इस जेतलइ प्रधाने कूडउ ऊतर तीधउ तेतलइ पद्म नामा श्रेष्ठि तिणि भेद भांजिवा-भणी राजा आगलि कहिवा लागउ , 'स्वामिन् ! ए वृद्ध एतलउ भार लेई नही सकइ । तेह भणी कोई १. A. करणवार. २. P.L कन्हइ. ३. P. जवाइ. ४. P. पाहइं, L. पाहंति ५. P. थकउ, L. थिउ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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