________________
मेरुसुन्दरगणि-विरचित
इसिइ जनकराजानउ दूत दशरथराजानइ प्रणाम करी आगलि आवी बइठउ । तेतलइ दशरथराजाईं जनकनउं कुशलक्षेम - समाचार पूछिउ । वली पूछिउं, 'तू केहइ काजि मोकलिउ छइ ते कहि ।' तिवारइ दूत प्रणाम करीनइ कहर, 'स्वामी ! जनकराजानइ घणाइ मित्र छ, पणि कष्ट पड तुझ सरीखउ सगउ मित्र बीजउ कोई नही । जिणि कारणि, वैताढ्य पर्वतनइ अंतरालि बर्बर देस, तिहां मयूरशाल - पुरि म्लेच्छराजा दुर्जय छइ । तीणइ जनकराजानउ देस लीउ । तेह-भणी हूं तुम्ह-भणी मोकलिउ छउं । हिव तुम्हे विलंब म करउ । प्रीतिनउ अवसर एह जि छइ ।' ईणि वचनि दशरथराजा प्रयाण भंभा देवरावी चालिवा लागउ । तिसिहं श्री रामिइ आवी, प्रणाम करी, पितानइ राखी, आप लक्ष्मण सहित कटक लेई, मिथिलानगरीइं गयउ । तिह्रां रामि म्लेच्छ-साथि महायुद्ध करी, म्लेच्छ हणी, देस-डुंता काढी, जनकराजानइ हर्ष ऊपजाविउ । तिवारइ जनकराजाई इसिउं चींतविडं जु, 'ए शीता श्रीरामनइ दिउं ।' इम जेतलइ देवानी मनसा कीधी, तेतलइ नारद ऋषि कन्याना अंतःपुर-माहि आविउ । तिसिह शीताई ते नारद कछोटी धारक, भीषण-आकार देखी, बहती हूंती, ते नारदनइ आगता स्वागत विण-कीधइ घर-माहि गई । तिवारइ नारद रीसाणउ हूंतु, वैताढ्य पर्वत जई, चंद्रगतिनउ पुत्र भामंडल तेहनइ शीतानउं रूप पुटि (१ पटि) लिखी जिम देखाडिउ, तिम ते कामार्त्त हूउ । तिवारई चंद्रगतिपिताई शीतानउं नामठाम सहू नारदनइ मुख- इतु जाणी, नारदनइ विसर्जी, पछई) चंद्रगति भामंडलपुत्रनइ कहइ, 'वत्स ! खेद म धरि । शीता तूंहनइं परिणावीसिइ ।" इम कही पछइ रात्रि चपलगति विद्याधर मोकली, जनकराजा अणावी, भामंडल - पुत्रनइ हेति शीता मागी । तिवार जनकि कहिउं, 'मह शीता श्रीरामनइ दीघो छइ ।' ए वात सांभळी चंद्रगति कहा, 'जु मित्राणई नहीं दिइ, तु हूँ बलात्कारि हरिवा समर्थ छ । अथवा वली एक वात सांभलि, जे सघला-इ-नई संमति । आपणइ घरि वज्रार्णव धनुष छइ, सहस्र यक्षे अधिष्टित, देवतादत्त छइ । जि-को ते धनुष चडाविस, ते शीतानउ पाणि ग्रहण करिसिह । इम करतां जु राम धनुष चडावर, तु अपरि भलउ | अम्हे पण करणवार न करउ । इम ताहरउ बोल पणि ऊपरि आविसिह ।' ए वात सांभली जनकराजा क्षण एक विमासी, कालक्षेप करिवा-भणी ए वचन मानिउं । पछइ चंद्रगतिह वज्रार्णव धनुष जनकनइ देई, जनक मिथिलाइ पहुतउ कीघउ ।
१६८
पछ जनकराजाई शीतानइ काजि स पंवरा मंडप मंडाविउ । तिहां अनेक खेचर, भूचर, राजा दशरथ, राम-लक्ष्मणादिक सडू इ आव्या । इसिई शीता सालंकार साभरण करी सयंवरामंडप आणी । तिसिई सघले राजाए दीठी । पछइ तिहां सर्व प्रत्यक्ष देखतां प्रतिहारणी इसिउ कहवा लागी, 'अहो राजानो ! जि को ए वज्रावर्त धनुष चडाविसिह, ते शीतानुं पाणिग्रहण करिसिइ ।' तिवारइ सहू राजा धनुष-भणी हाथ घातई, पणि चडावी कोई न सकइ । पछइ पितानइ आदेशि श्रीरामहं धनुष चडाविउं । अनइ वली ऊतारिउं । तिसिहं शीताई वरमाला रामनइ कंठि घाती । तिहां वली जेतलइ लक्ष्मणि वज्रार्णव धनुष चडाविउं, तेतलई विद्याधरे अढार कन्यान' पाणिग्रहण कराविड । एहवउं स्वरूप देखी भामंडल कोप धरिवा लागउ । तिसिइ ज्ञानीइं आवी समजाविउ । कहिउँ, 'ए तु ताहरी युग्मजात बहिन ।' इम कही प्रतिबोधिउ । पछइ जनकराजाई अनेक वस्त्र, अलंकार, आभरण देई, संतोषी, सर्व विसयां । हिवइ जे राम-लक्ष्मण, तेह इ शीतानइ लेई आपणइ नगरि आग्या ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org