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________________ शीलोपदेशमाला-पालावरोध महासतीइ सर्व वृत्तांत-संबंध, जिम युगवाह हणिउ, जिम नमि पद्मरथइ राजाई लीघउ-इत्यादि सर्व वृत्तांत कही, पछइ मुद्रिकारस्न उलखाविउं । रत्नकंबलनउ वृत्तांत पणि पुष्पमाला-इंतु जणावी रोष गमाडिउ । पणि नमिराजा अहंकार न मूंकइ । कहइ, 'हूँ किम नमी दिउं? हिव लोकमाहि शोभा न पाम ।' पछइ महासती चंद्रयश-कन्हइ गई । सघले उलखी। सर्व अंतपुरी पगे लागी । तिहां चंद्रयशराजाई माता उलखी, सघलउ वृत्तांत मा-कन्हइ पुछिउ । कहिलं, 'ते गर्भ किहां ?' तिसिई महासती कड्इ, 'जे नमि आविउ छइ, ते ताहरउ भाई ।' ए वात सांभली, वयर मूंकी, सर्व ऋद्धिनइ विस्तारि भाईनइ मिलिवा-भणी सामुहु आविउ । तेतलइ नमि पणि भाई आवतउ देखी सामह आविउ । बेह भाई मिल्या, चंद्रमा नइ सूर्यनी परिहं शोभिका लागा। ते बेहूं नगर-माहि आव्या । महा हर्षे ऊपनउ। इसिड चंद्रयश राजा कहा, 'भ्रात! सुणा(?णि), घणा दिवस-लगइ माहरी मनसा दीक्षा लेवा ऊपरि हती। पणि राजनइ योग्य कोई नहीं। हिवई बांधव ! ए राज तूं लिइ । मुझनइ दीक्षा लेवा दिइ, जिम आपणउ मनोरथ सफल करउं।' इम कहो नमिनइ राज देई चंद्रयशि दीक्षा लीधी। आपणउ काज साधिउं। पछइ नमिराजाई बेहू राज आपणइ वसि करी अखंड राज पालिवा लागउ। इसिई नमिरायनइ डीलि पूर्वकर्मना उदय-लगइ छमासी महादाघ ऊपनउ । अनेक वैद्य तेड्या, पणि उपशमइ नही । पछइ सूकडिना लेप भगी राणी संघली सूकडि घसिवा बइठा । तिसिइ प्रधान आवी राजा-कन्हइ पूछा, 'स्वामी ! समाधि छइ ?' राजा कहइ, 'ए जे सूकडि घसतां वलयना खटका हुई छई, ते महा मुझनइ असुखदायक छई ।' पछइ प्रधानि आवी सर्व राणीना वलय ऊतराब्यां । एक एक वलय मंगलिक-भणी राखि। सूकडि घसाइ छ । एहवा राजाइ कहिउं, 'हिवडां समाधि छइ । खटका काई नथी हंता १' प्रधान कहा, 'एक जि वलय राखिउं छई, तिणि करी खटका नथो हूंता ।' राजा चीतवह, 'जिहां घणा संबंध, तिहां घणा कर्म-बंध ।' पछइ चारित्रावरणी कर्मनइ क्षयि एवी बुद्धि ऊपनी, 'जोउ, जां घणां वलय हूंर्ता, तां खटका थाता हूंता । हिवडां एकलां वलय कांइ नथी वाजतां । तिम ए संसार-माहि घणा कुटुंब, घणी राजऋद्धि, तां कर्मबंध । जिवारई जीव एकलउ, तिवारइ सुखी । जिम एकणि हाथि ताली न वाजइ, तिम एकलां कर्मबंध न हुइ।' इम मनि विमासी वला विमासइ, 'जु ए वेदना उपशमसिइ, तु हूं दीक्षा लेसु ।' इसिउं चौतवी जेतलइ सूतउ, तेतलइ निद्रा आवी, समाधि ऊपनी । तिसिइ सउणा-माहि मेरुपर्वत-ऊपरि श्वेतगजारूढ आपणपउं देखी जागिउ । जाग्या पछी सर्व कुटुंबनी ममता की प्रभाति दीक्षा लीधी । एहवइं इंद्र अवधिनई बलिई गजाना चरित्रनु सत्त्व देखी परीक्षा-भणी ब्राह्मणनइ वेशि आवीनइ कहइ, 'अहो नमि! तूं दीक्षा लिइ छइ, पणि पाछइ मिथिला-नगरीइं आगि लागी छइ । तु पाछउ बलि ।' वलतूं नमि कहइ, 'मिथिला दाझतइ माहरउं कांई नथी दाझतउ ।' वली इंद्र कहइ, 'जउ चारित्र लेसि, तु पहिलघुपुत्रनई काजि गढ-मढ-मंदिर करावि, पछइ चारित्र लेजे ।' तिवारई नमि कहइ, 'धर तु वाट-माहि न करावीइ । जिहां शाश्वतउं ठाम हुइ, तिहां करावीइ ।' इत्यादि वचने नमिनी द्रढिमा देखी, इंद्र प्रत्यक्ष हुई, प्रणाम करी कहइ, 'अहो ! तू धन्य, जे तई एहवी बुद्धि आणी ।' पछइ आपणउ अपराध खमावी, इंद्र आपणइ ठामि पहुतउ । अनइ नमि आपणउं चारित्र पाली कार्य साधिउं । हिव मदनरेखा महासती पणि आपणउं शील पाली उत्तम पर्द साधिउं । इति मदनरेखा महासती कथा समाप्ता ॥२४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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