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________________ शौलोपदेशमाला-बालावबोध विनीतकि धनश्रीन जिम तलारनउ संबंध कहिउ, तिम धनश्री कहिवा लागी, 'अहो विनीतक ! आजपछह एहवलं वचन सर्वथा म कहेसि ।' इम वली दिवस एकनउं आंतर उं घालीनइ विनीतकि कहिउँ । तिवारइ धनश्री माथउं धूणती विनीतकनइ कहा, 'अहो ! एतला दिवस तूं प्राण-इपाहइ अति-वल्लभ हूंतउ, पणि ईणि वनि वइरी-पाहिइ अधिकउ हूउ । कांई? जे तू' माहउ शील-माणिक्य दूषववा वांछइ । बिणि कारणि, सांभलि मन-वचन-कायि करी मुझनइ पितादत्त भरतार समुद्रदत्त तेह जि शरणि ।' तिवारइ विनीतक आपणपउं गोपवतु, गूढ हर्ष धरतउ कहिवा लागउ, 'हे मुग्धि ! कृपणना धननी परिइं तूं मुधा जन्म कोई गमाडइ? ते तु भरतार तुझनइ छांही गयउ। तेहनी शुद्धि इकिहां इन लोधी । इणि कारणि तलारनउ वचन मानि ।' तिवारई धनश्री कहइ, 'अरे ! तू विनीत इ अविनीत एउ, जे तूं एहवां बचन मुझनइ संभलावइ । कांई? कुलस्त्रीनइ शील जि रत्न राखिउं जोईइ, अनइ तिणि शील 'भाजतइ स्त्री जीवती इ मुई जाणिवी । सांप्रत चिर-परिचित-लगी तूं जीवतु मुकिउ छह ।' इम धनश्रीइ विनीतक गादउ निर्भसिउ । पछइ तलारनइ जई कहिउं, 'अहो ! स्त्री तु न मानइ ।' तिवारइ तलार रागांध हूंतु विनीतकनइ कहइं, 'अहो विनीतक ! धनश्रीनइ वली एक वार कहि, पछह म कहेसि ।' इम वली दिवस पांच-सात आंतरउ करी वली त्रीजी वार धनश्रीनइ कहिउं । तिवारइ धनश्रीइ चीतविउं', 'शिख्या-पाखई ते नही रहा ।' इम चीतवी धनश्रीइ कहिलं, 'ना, ते तलार सर्व सामग्री करावी अशोकवनिका-माहि तेडि । पल्यंकादिक सर्व भोगादि सामग्री मेलावि ।' इम कही पछा आपणपे तिहाँ गई । ते पणि तिहां आविउ । तिसिइ धनश्रीइ चन्द्रहास मदिरा अणावी । ते तलारनइ चिम पाई, तिम तलार अचेत यई भुंइं पडिउ । पछड़ मनश्रीइ तेह-जि-नउं खड्ग लेई मस्तक-छेद करी विनीतकनइ कहिउ', 'अरे विनीतक ! वेगउ' खाड खणि, 'नही तु ईणइ खड्गि करी ताहरउं पणि मस्तक छेदिसु ।' तिवारइ दीहतइ हूंतह खाड खणी । पछइ तलारनइ धनश्रीइ ते-मा हे दाटिउ । विनीतकनइ कहिउ, 'अरे ! जउ बाहिरि वात कोधी, तु तू जाणिइ ।' इम निभर्तिसई बोहतु हूंतु धनश्रीनइ पगि लागी कहइ, 'स्वामिनि ! ए माहरु अपराध खमि । पणि कहि ते समुद्रदत्त कउण ?' तिवारइ धनश्री कहइ, 'सांभलि, उज्जेणीनगरीई सागरचन्द्रनु पुत्र समुद्रदत्त, सर्व गुणनु आगर, ते माहरउ पति जाणिवउ ।' हिवइ तेह जि समुद्रदत्त छइ, पणि आपणपठ अणजणावतु स्त्रीनइ इसिउ कहइ, 'हे सुभगि ! ताहरे गुणे रंजिउ हूंतु, भावह तिहां थकु ताहरउ भरतार जोईनइ आणिसु ।' इम कहीनइ नीकलिउ । तिसिई मार्गि जातउ इम चीतवइ, 'मई तु माहरी स्त्रोना शीलनी परोक्षा दीठी । जे हूं इम जाणतउ जे सर्व स्त्री कुशीलि, ते तां वृथा ।' इम चीतवतु धनश्री-उपरि सानुराग हूउ । इम मार्ग उल्लंघी आपणइ घरि आविउ । मातापितानइ हर्ष ऊरजाविउ । पछइ सागरचंद्र श्रेष्टिइ गिरिपुरि धन-सार्थवाहनइ जमाईन आगमन जणाविउ । तिसिइं ते पणि महांत हर्ष धरिवा लागा । धनश्रोइ १.K. भाषिवइ, C. Pu. नाठइ । २. K. ऊतावलउ । ३. K. नहीतरि ईणइ । ४. C. वृथा फोकट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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