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मेरुसुन्दरगणि-विरचित
'रुलीमाइति थई । पछह अन्यदा समुद्रदत्त स्त्रीनइ ओणउं करिवानइ अर्थि गिरिपुरि गयउ। स्वसुरानइ परि आविउ । पणि लाज-मणी आपणपउं देखाडइ नही । इम करतां रात्रिनइ समइ धनश्रीइ वासघर-माहि दोवउ आणिउ । तिसिइ समुद्रदत्ति लाज-भणी दीवउ वधारी, शिय्याई सूई रहिउ । इस बीजइ दिनि । त्रीजइ दिनि इम जि करो रहिउ । पछइ धनश्रीइ चउथइ दिनि संध्यानइ समइ प्रच्छन्न दीवउ करी घर-माहि राखिउ । इसिई भरतार आवी शिय्याई सूतु, तेतलइ धनश्रीइ तत्काल दीवउ प्रगट कीघउ । जो जे इ, तु तेह जि विनीतक आपणउ भर्तार जाणो सहषित सस्नेह हूंती कहिवा लागी, 'हे स्वामी ! हे प्राणनाथ ! तई मुझनइ आपणप कांई न जणाव्यउं ?' इम आपणउ जमाई जाणोनइ सह इहरख्या । पछइ समुद्रदत्त आपण हाथ-मेल्हावणीनउँ धन अनइ धनश्रीनइ लेइ आपणइ नगरि . आविउ । इम धनश्री आपणउ भर्तार पामी, निःकलंक शील पाली, सकल सुखनइ भाजन हुई ।
इति श्रोशीलोपदेशमाला-बालाविबोधे धनश्रीनी कथा संपूर्णा ॥४३॥
हिवइ ग्रंथकार ग्रंथनी समाप्ति-भणी आपण नाम-गर्भित मंगल. गाथा कहा--.
इय जयसिंह-मुणीसर-विणेय-जयकित्तिणा कय एयं ।
सीलोवएसमालं आराहिय लहह बोहि फलं ॥११४ व्याख्याः -ईणइ-पूर्वोक्त प्रकारि करी, जयसिंहमूरि, तेहनु विनीत शिष्य जयकीति मुने, तीणइ ए श्रीशोलोपदेशमाला-प्रकरण-रूप मूल-सूत्र कीघउ । तु ए प्रकरण, भो भविक लोको ! तुम्हे आराधी करी, ईणइ प्रकार शील पाली. सिद्धांतोक्त गाथारूप प्रकरण भणतां गुणतां, सुद्ध शील पालतां, भावना भावतां, जिम बोधिबीजनु फल लहु, पर पराइं मोक्षफल पणि पामउ ॥
___ इति श्रीशीलोपदेशमाला-बोलावबोधः संपूर्णः ॥ श्री खरतरगच्छे, श्री जिनचन्द्रसूरि-विजयराज्ये, वाचक-रत्नमूर्तिगणि-शिष्येण वाचक-मेरुसुन्दरगणिना शीलोपदेशमाला-बालावबोधः मुग्धजनविबोधाय कृतः ।।
१. C.Pu. रुलीआति हई ।, K. रुलियाइति हुती पछइ ... ।
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