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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध कोटर-माहि रहिउ । तेतलइ परिवाजकि ऊठी जेतला सूता हूंता ते सर्व हणी, कुमारनइ साथरइ आवी पछेडी बि-खंड कीधी। पछइ ते साथरउ सूनउ जाणी ते चोर उरइ-परइ जोवा लागउ । तेतलई कुमार खड्ग काढ़ीनइ कहइ, 'रे चोर ! हिव तू किहां जाएसि ?' इम कहितइ जि खड़गि करी चोरनी बिहइ जांघ छेदी । तिवारइ चोर कहइ, 'अहो सत्पुरुष ! ताहरइ सौर्यपणइ करी हूं संतोषिउ। हिवइ माहरी वात सांभलि । ए देहरा-पूठिइ वडना कोटर-माहि पातालि माहरउं भुवन छइ । तिहां वीरमती पुत्री-पाहइ शिला उघडावे । अनइ ए खड्ग संकेतभणी देज्ये । वली तेहनउं पाणिग्रहण करिजे । ते तुझनई सर्व भंडार देखाडिसिइ । पछइ कुमारि तिहां जई वीरमतीनइ सर्व वात कही। अहिनाण-भणी खड्ग पण दीधउं । तिवारई तिणि वीरमतीइं आगतास्वागत करी, कुमारनइ पल्यंकि बइसारो, घर-माहि जई, बीजी भूमिकाई चडी । तिसिई कुमारि चीतविउं, 'एहनउ इ वीप्सास न कीजह ।' इम चीतवी पल्यंक मूकी कुमार एकइ खूणइ लुकी रहिउ । हिव वीरमतीइ ऊपरि चडी यंत्रशिला कापी। ते तत्काल खडखडती पल्यंक-ऊपरि पडी। पल्यंक चूर्ण हउ । पछइ वीरमती आवीनइ कहइ, 'अरे! माहरा पितानइ हणी जीविवउं वांछइ ?' ते वीरमतीनइ इम कहिता जि कुमार प्रगट थई जटीए झाली भूमिगृह-बाहरि काढी. ते शिला तिम जि देई, राजा-समीपि लेई आविउ । तिवारई राजा कुमारनी सौर्य प्रसंसिवा लागउ । पछइ राजाई नगरना लोक तेडी जेहनी जे वस्तु हंती तेहनइ ते वस्तु आपी। थाकती राजाह लीधी। पछइ राज इं संतुष्ट वर्तमान एक सहस्र हाथी, एक लाख जात्य तुरंगम, एक कोडि सोनउं. लाख गामनउ एक देश, दस कोडिनउ भंडार, वली अनेक वस्तु आभरणअलंकार-सहित आपणी कमलसेना कन्या, एतलां वानां ते अगडदत्त-कुमारनइ दीधां। वली सात-भूमिक आवास दीधउ। हवइ तिहां कुमार सपरिवार उपाध्यायनइ ध्यातउ, राजानइ बापनी परिई मानतउ, सखिड रहइ छइ । इसिइ काई एक स्त्री वधावती कुमारनइ कहइ, 'जे पूर्विइ बंधुदत्त श्रेष्ठिनी पुत्री मदनमंजरी संतोषी हंती. तीणीइ ताहरउ वृत्तांत, चोर निग्रहिवउं, राज-पत्रीन परिण । सर्व सांभली हूं तुझ-कन्हलि मोकली छउ ।' इम कही कुमरनइ कठि कुसुममाला घाती । वली कहिवा लागी, 'अहो कुमार ! माहरउ अभाग्य, जे तई हूं वीसारी' । तिवारड कमार कहइ, 'तू तेहनई कहिजे, जउ खेद न धरे । चालतां तुझनइ साथि लेई चालिस ।। म कसरी आपणा हाथनी नामांकित मुद्रिका देई मोकली । इसिई कुमारनइ पोलीइ आवी वीनती कीधी. 'स्वामी ! शंखपुरना बि प्रधान बारणइ आवी ऊभा रहिया छई।' पछइ कुमारि माहि तेडाव्या । ते बेहू उलखी, आलिंगनपूर्वक बहुमान देई, आपण-कन्हलि बइसारी माता-पितान क्षेम-कल्याण-कारण पूछि । तिवारइ सुवेग कहइ, 'हे कुमार ! जे दिवस-लगइ तुम्हे चाल्या ते दिवस-लगह मातापितानइ असमाधि न भागी।' ए वास सांभली कुमार अपात करतउ इसि कहइ, 'मइ माबापनई दुःख जि कीघउ ।' तिवारई वली सुवेग कहइ, 'तुम्हे जे देशांतरना कुतूहल जोयां, तिणि करी ए दुख इ सुखरूप हूउ। तु हिव आवउ। आपणे गणे. दर्शनि करी पिताना मनोरथ पूरउ ।' पछई कुमार ते बेड् प्रधान सत्कारी, संतोषी आपणइ साथि लेई राजा-समीपि आविउ । तिहां सुवेग पाहंति सर्व वृत्तांत कहाविउ। पछइ भुवनपालि राजाइ पुत्रीनइ सर्व सीख देई कुमारनइ चालिवानी अनुमति दीधी । कुमार पशि उपाध्यायनइ पूछी सपरिवार चालिउ। पछइ कुमारि कटक वहितउं करी, आपणि पाछउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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