________________
शीलोपदेशमाला-बालावबोध जावउं छ
नथी दीघउ लीजइ छइ १२. कर्मणि रूपो : जाणीसिइ, देखाडीसिइ, पामीइ, रचीइ प्रज्वालीइ, मोकलीइ
जाईइ, सारीई, जगाडीइ, जाणीइ, वालीइ, काढीइ, मागीइ,
जिपाइ, लोपाइ, अवाइ, जवाइ, शकाइ, घसाइ, हणासिइ. १३. कृदंत : कर्मणि वर्तमान कृदंत : पालीतउ.
भूत कृदंत : केटलांक आगळ्थी ऊतरी आवेलां 'सिद्धावस्थ' भूत कृदंतनां रूप मळे छे : लागउ, छूट उ, बेटउ, उभगउ, थाकउ.
__ क्वचित कूबरि जीतउ, कदंवि हारिउ एवी भूतकृदंतने कमणि गणती जूनी रचना मळे छे. पण घणुखरु अकर्मक क्रियापद साथे कर्तरि रचना होय छे. ___कर्मणि भूतकृदंत : बंधाणउ, झलाणउ, रोसाणउ, भराणउं, थंभाणउ, दूखाणउ, दूहवाणउ, पचाणी, मूकाणउं, संतोषाणउ, छेदाणउ, प्रतिबोधाणा.
१४. अनुगो अने नामयोगी इई के -इ प्रत्यय उपरांत-लगइ, -इ करो, इसिउं करणार्थ छे. 'साथे' ना अर्था -सहित. -साथिई. -संघातिई वपराया छे. संप्रदानना अर्थमा -नइ,-मादि तथा -नइ अथि (हेति, कारणि, काजि, कीधइ) मळे छे. अगदानना अर्थमां -इतु (-तु), थी, थिकउं, हूंतउ छे. -नउं ने -तणउ संबंधार्थ छे.
__ 'पासे' ना अर्थमां-पासि, -पाहिइ,-पाहंति, कन्हइ, कन्हलि, समीपि मळे छे. -पासि,-कन्हह ने समोपि कर्मना अर्थमां पण वपराया छे.
-लगइ करणार्थ, अपादानार्थ अने 'सुधी'ना अर्थमां वपरायो छे. 'सुधी' ना अर्थमां लगइ उपरांत सीम अने तांई पण मळे छे. 'पाछळ' ना अर्थमां पाछलि, -केडिई, पूठिई छे.
--इतु (-तु) : अपादानार्थ : भव-इतु, मुख-इतु, यंत्र-इतु, उत्संगितु, देवलोक-तु. -उपरांत : अतिरिक्ततावाचक. -ऊपरि : अधिकरणार्थ ('ऊपर'). -कन्हइ (-कन्हि), कन्हलि : (१). 'पासे' (२) कर्मार्थ ('ने') : सारथि-कन्हइ
पूछइ, मा-कन्हइ पूछइ, बाप-कन्हइ पूछइ. -केडिई : 'केडे,' 'पाछळ'. -दूकडउं : 'पासे. -तणउं (कवचित ज): संबंधार्थ. -ताई : 'सुधी'--- ता-ताई, उदय-ताई. -थिकउं (-थकउं) : अपादानार्थ-घोडा-थका (='घोडेथो'), तिहां-थिकी, तेह
थका, जेह-थका, मगाहि-थकी, -माहि-थिकउ. -थी : अपादानार्थ-देवलोक-थी, तिहां-थी, -माहि-थी. -नइ : कर्मार्थ-हरिणीनइ लेइ; संप्रदानार्थ – तू शिशुपालनइ दीधी, शिष्यनइ
भणावे. -नउं : संबंधार्थ.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org