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शोलोपदेशमास-बालावबोध
हसीनइ कहिवा लागउ, 'अरे ! तइ न सांभलिउं जउ - कायरना हाथन शस्त्र वीरनई मंडन हुइ १ इसिउ कहितउ जि'चीतरानी परिई ऊलली, चित्रगत्इिं अंधकार विकुर्वी तेहना हाथनउ खांडउ लीध । अनइ सुमित्रनी बहिन पणि लीधी । क्षणांतरि जउ जोइ, तु ने ते खांडउ, न ते स्त्री । पछइ क्षण एक विषाद करी ते ज्ञानीनउ वचन चौंतारिउ'-'जे ताहरउ खांडउ लेसिई, ते पुत्रीनइ भर्तार होसिइ' । पछइ हर्ष धरतउ चीतवइ, 'हिवइ ते खड्गनउ हरणहार मइ किम जाणीसिइं? वली तां एक अहिनाण देहरई कुसुमवृष्टिनउ छइ ।' तिसिई चित्रगति सुमित्रनी बहिन अखंड-शील लेई आविउ ।
तिसिई सुमित्र भगिनीनइ विरहइ पुत्रनइ राज देई आपणपे चारित्र लीधउं । नव पूर्व किंचित् न्यून सुमित्रिइं भण्या । तिसिई सुमित्र गुरुनी अनुज्ञा पामी विहार करतउ मगध-गामबाहरि काउसग्गि रहिउ । तिसिइ उरमाई पद्म जे पूर्विई रीस-लगइ बाहरि नीकलिउ हूंतउ, तीणई ते मुनि दीठउ । तेतलइ वयर जागिउं । तेण पनि आकर्णात बाण मंकी महात्मा हीइ तिम वीधिउ, जिम ते पद्म नरगि गयउ । ए भाव पछइ ते रुषि चीतवइ, 'ए अपराध माहरउ, जे मई एहनइ राज नापिउं ।' वली आपण सर्व-जीव-साखिइं 'मिच्छामि दुक्कड' देतउ मरीनइ ब्रह्म-देवलोकि देव इउ । पद्म तिहां-हंतउ जातउ सापिइंडसिउ। पछइ मरी सातमी नरक-पृथ्वीइ गयउ । सुमित्रनउँ मरण जाणी चित्रगति असमाधि करतउ नंदीश्वरि यात्रा-भणी गयउ । तिहां रत्नवती-सहित अनंगसिंह, बीजा इ विद्याधर, देवता, सर्व तीर्थयात्रा-भणी मिल्या छई । तिसिई चित्रगति शाश्वतां तीर्थनी पूजा करी, भावस्तुति भणी वीतरागनां स्तवन कहिवा लागउ । तिसिई सुमित्र ब्रह्मलोक-हंतउ आवी चित्रगति-ऊपरि कुसुमनी वृष्टि कीधी । पछइ अनंगसिंह ते फूलनी वृष्टि देखी खांडानउ हरणहार जाणि उ, अनइ पुत्रीनउ वर पणि एह जि एहवउ निश्वय करो, मनि हर्ष आणिउ । तेतलइ रत्नवतीइ चित्रगति दृष्टिइं दीठउ । भवांतरनउ स्नेह जागिउ । पछइ पिताई हिां जि लान लेई पुत्री रत्नवती चित्रगतिनइ परिणावी । जिम सोना नई हीरानउ संयोग मिलिउ सोभइ, तिम रत्नवती नइ चित्रगति शोभिवा लागां । पछइ घणउ काल गृहस्थावास पाली, रत्नवतीनु पुत्र पुर दरनइ राज देई आपणपे चारित्र लीघउ । पछइ घणउ काल चारित्र पाली माहेंद्र-देवलोकि देवतापण पाम्यां ।
इति श्री शीलोपदेशमालानइ बालावबोधि श्री नेभिच रत्रि च्यारिभवनउ वर्णन कहिउ ॥
हिवइ इसिई प्रस्तावि, पश्विम-विदेहि, पद्मविजयि, सिंहपुर नगरि, हरिनंदी राजा अनई प्रियदर्शना भार्या । तेहनी खिई माहेंद्र-देवलोक-इतु चवी अपराजित-पुत्रपणइ अवतरिउ । हिव ते मउडई मउडई वाघतां सर्व कला अभ्यसी । इम एकदा महुतानउ पुत्र विमलबोध अनइ अपराजित कुमार बेहं मित्र घोडइ चडी वहियालिई घोडा फेरिवा लागा । तिसिई तिणे दृष्ट घोडे बेहूं महा अरण्य माहि लीधा । जेतलई वेहू मित्र घोडा-थका ऊतरइ, तेतलइते बेहूं घोडा पडया । पछइ राजकुमार अनइ प्रधानपुत्र तलावि पाणी पीई, सुत्था थई, कहिवा लागा, 'आपणपे आगइ देसीतरनी मनसा करतां, हिव ते सफल' करीइ । पितानउ वियोग सहसिउं, पणि पृथ्वीनां कउ. तिग जोईइ ।' पछइ बेहूं नवनवां कउतिग जोतां जावा लागा ।
१. L, वीतरागनी B. वानरनी २. Pu. करां
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