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मेरुसुन्दरगणि-विरचित [१७. नवभव-गर्भित नेमि-चरित्र ]
जंबूद्वीपि भरतक्षेत्रि अचलपुर नगर। तिहां विक्रम राजा राज्य करइ । तेहनइं गृहांगणि धारिगो भार्या, सकल स्रोने गुणे करो अलंकृता । अन्यदा रात्रिनइ समइ निद्रा-माहि सहकारनउ वृक्ष एक दीठउ । पणि वली कोई एक दिव्य पुरुष आवी धारणोनइ इसिउं कहइ जउ, 'ताहरई आंगणइ सांप्रत ए वृक्ष वाव छ । वली केतलइ कालि अनेथि वाविसु । इम ए वृक्ष नव वार वावीसिइं अनइ एहनां फल उत्कृष्टां दिनि दिनि वाधतां होसिइं ।। इसिइ धारणी जागी । प्रभाति राजानइ सउणानी वात कही । पछइ सुपनपाठके कहिउं, 'तुम्हारइ पुत्रनी प्राप्ति होसिइं । पणि नव वारनउ अर्थ जाणी न सकीइ । ए वात तु ज्ञानी जाणइ ।' पछइ धारिणी गर्भ धरती पूरे मासे भलइ दिवसि पुत्र जायउ । पछइ राजाई दस दिवस पुत्र-जन्मना उत्सव करी धन एवढं नाम दीधउं । पछइ बालक वाधतउ वाधतउ यौवनावस्थाई आविउ ।
एहवइ प्रस्तावि कुसुमपुरि नगरि, राजा सिंह विमलाराणी सहित सुखिइं रहतां, धनवती एहवई नामि पुत्री जाई । ते पणि धनवती वाधती वाधती सकल कला अभ्यसती यौवनावस्थाई आवी । इम एकदा उद्यान-वन-माहि क्रीडा-भणी' गई, तिहां धनवतीइं क्रीडा करतां कोई एक पुरुष हाथि पाटो लीधइ दोठउ । तिसिई धनतीइं ते पुरुष-कन्हलि बलात्कारि पाटी लीधी । पछडा तिणि पाटीइ लिखिउ छइ जे रूप ते जोई पुरुष-प्रति कहिवा लागी जउ', 'ए रूप कहिनउ आश्चर्य-कारक ते कहइ ?' तिवारइ तिणि पुरुषिई कहिउं, "अचलपुर नगरनउ अधिपति विक्रमराजानउ पुत्र धन, तेहनउ ए रूप ।' पछइ ते धननउं एड् रूप देखी रोमांच अगि ऊपनउ । वली-वली रूप-सामहउं जोती मदनने बाणे पीडी हुंती कमलिनी सखा प्रति कहा, 'एहवलं रूप मई कहीइं दीठउं नहीं । ए रूप जोतां मुझनइ जे आनंद ऊपजइ छइ ते परमेश्वर जाणइ ।' पछइ कमलिनी सखी साथिई धनवती घरि आवी, पणि बोलइ नही, चालइ नहा , सड नही । एहवउ स्वरूप देखी कमलिनी पूछा, 'हे सखि ! ए सिउ जे तू बोलह नही ? मुझ आगलि तु ताहरइ कांई गोप्य नथी ।' तुहइ धनवती बोलह नही । पछइ कमलिनीइं कहिलं, 'जाणिउं, ते धन जे चित्रि लिखिउ दीठउ, तेहन ध्यान करइ छइ रात्रिदिवस ।' इणई वचनि धनवतीइं नीचउं माथउं कीधउं । पछइ कमलिनी कहइ, 'सखि ! धीरपण आणि ।'
तिवार पछी धनवती मा-कन्हइ आवी । तिसिंई माई सालंकार साभरण करी पिता-समीपि मोकली । पुत्री देखी पितानइ वरनी चिंता ऊपनी । तेतला पुण्यना योग-लगा विक्रमराजानउ दूत राजकाज-भणो आविउ । ते जेतलइ राजकाजनी वात कही ऊभउ रहिउ, तेतलइ वली राजाई पूछिउं, 'दूत ! कांई कउतिग दीठउं पृथ्वी-माहि ?' तेतलइ दूत प्रणाम करी कहिया लागउ, 'राजन ! राजा विक्रमनउ पुत्र धन अन: ताहरी पुत्री धावती ए बिना संयोग जउ मिलइ तु एतला उपरांत कांइ कुतिग नथी ।' लिवारइं राजा कहिवा लागउ, 'अहो दूत ! तई माहरा मननी वात जाणी । जु ए वात कही तु हिवइ ए वात सफल करि ।' पछइ ए वात सखीना मुख-इतु धनवतीइं सांभली मनि हर्ष धरइ। तिसिई दूतनई राजाई कुंकुम अणावी लेख लिखी दीधउ । पछइ दूति जई अचलपुरि राजा विक्रमनई ए
१. K. क्रीडानइं. २. K. जइ
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