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मेरु सुंदरगणि-विरचित
समणी विहु विसय-रसा पुव्व भवे दोवई कम - नियाणा । सिवदायगं पि हु तवं मुहाई हारिंसु ( ? ) ही मोहो ॥६४
व्याख्या : - द्रुपदी = दुपद राजानो पुत्री अनइ पांडवनी कलत्र । द्रुपदी पूर्विलइ भवांतरि सागरदत्त श्रेष्टिनी पुत्री हूंती, ते पुत्री श्रमणी महासति हुई । पछइ विषयरस = लोलपता - लगइ नियाणउं बांधिउं । ते नियाणा-लगइ आपणउं तप मुहियां हारविउ । जिणि कारणि बाटी-वडइ अरहट वेचिउ । जिम' कोई दोरीनइ काजि वैदूर्य-मणि भाजइ, लोह - खंडन की इ. प्रवहण भांजर, तिम तीणी महासतीइ भोगनइ काजि मोक्ष-दायक तप मुहियां हारविउं । एतलइ गाथार्थ हुए ।
हिवs द्रुपदीनी कथा कहीइ-
[ ३७. द्रुपदीनी कथा ]
चंपानगराई त्रिणि ब्राह्मण-सहोदर, सोमदेव, सोमभूति, सोमदत्त - इणि नामिई वसई । ते त्रिहु नी ए त्रिणि प्रिया - नागश्री १, भूतश्री २, यक्षश्री ३ । ए त्रिहद्द आपणइ आपणइ वारि रसवती करइ अनइ सर्व कुटुंब एकठउं भोजन करइ । इम एक दिनि नागश्रीइं आपणइ वार व्यंजन सहित रसवती कीधी । पणि ते व्यंजन माहि अजाणपणइ कडूई तूंबडी पचाणी । पछइ संपूर्ण पाकनइ अंति रसवती चाखतां ते कडूई तू बडी सर्प-दृष्टनी परिइ अनिष्ट जाणी । तुम्ही लोभ- लगइ लांखी नहीं, एकांति राखी मूंकी । पछइ कुटुंब सर्व जमाडिउं । जेतलह भर्तारदेवर जिमी बाहर गया, तेतलइ उद्यानि वनि धर्मघोषसूरि ज्ञानी समोसरिया । हिवइ तेह-माहि एक धर्मरुचि महात्मा माखक्षपणनइ पारणइ नागश्रीनइ घरि विहरवा आविउ । तेतलइ नागश्रीइ दुर्गति पडिवा-भणी महात्मानइ कडुडं तूंबडउं दीघउं । तिणि महात्माइ ते गुरुनइ आणी देखाडिउं । तिसिईं गुरे वत्सलपणा - लगइ कहिउं, 'ए तू'बडउं नागश्रीइ तुझन दीघउं, पणि तूं म लेजे, किहांइ प्रासुक भूमिकाई लेई परिठविजे ।' एइवउ गुरूनउ आदेस पामी धर्मरूचि नगर बाहरि परिठविवा गयउ तिहां परिठवतां बिंदु एक भूमिकाई पडिउँ । तिहां कीडी आवी । जे जे कीडी बिंदुइ लागइ, ते मरइ । ते देखी चोंतवइ, 'जु एकणि बिंदुइ एवडी कीडी मूईं छई, तु सर्व परिठवतां न जाणीइ केता जीव परिसिई ?" इम चींतवी आराधना-पूर्वक ते कडूउं तूं बडउ धर्मरुचि - महात्माई ४ लीघउँ । लेतां समान मरण पामी सर्वार्थसिद्धिइं पहुतउ । तिसिहं गुरु वाट जोई जु, 'अजी धर्मरुचि नावइ ।' पछइ गुरे बि महात्मा मोकल्या । तीणे धर्मरुचिनउं स्वरूप जाणी गुरुनइ आवी कहिउं । तिवारई गुरे महात्मा - आगलि सर्व वात कही । ते वात कीणइ प्रकारि सोमदेवादिके जाणी, नागश्री ऊपरि रीसाणा । पछी सोमदेवि नागश्री घर-हूंती काढी । तिहां लोके गरहीती-निंदीती जाती हूंती ज्वर - खास "स्वास-अतीसारनी बेदना अनुभवती, क्षुधा तृषा सहिती, रौद्र ध्यान लगइ मरी छठी नरग पृथ्वीइ गई । तिहां हूंती मत्स्यनइ भवि गई । वली सातमी नरग पृथ्वी, वली मत्स्यनई भवि, इम सघले नरके भमी । पछइ वली पृथ्वीकायमाहि भी । इम गिरि - सरिदुपल-न्यायि करी कर्मना लाघव इतु नागश्रीनउ जीव भमी भमी चंपानगरीइ सागरदत्त - श्रेष्टिनी भार्या सुभद्रा, तेहनी कुखिह सुकुमालिका
एहवइ नामि पुत्री हुई ।
सर्वत्र 'द्रौपदी' पाठ छे.
६. K. छ- काय माहि
१. K. जिम कोदिरा नई काजिई वैडूर्य मणि भाजइ । २. K. मां ३ K. शिवाय 'परठवा' । ४. K. वावडिं । ५ Pu. K. कास, ७. K.C. सत्र 'सुकुमारिका' पाठ आपे छे.
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