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शीलोपदेशमाला-बालावबोध
१५३ वली विसयातुरनइ दुखी संसार देखाडइ
विसईण दुक्ख-लक्खा विसय-विरत्ताणमसमसम-सुक्ख ।
जइ निउण परिचिंतसि ता तुज्झ वि अणुभवो एसो ॥७७ व्याख्या:-जे मानवी विषयासक्त हुइ, तेहनइ दुक्खना लक्ष ऊपजई। अनइ जे विषयहता विरता हुई, तेइनइ सुक्ख असामान्य परम सुख ऊपजई। ए वातनइ विहरइ अनेराना कह्या-पाहइ आपणइ होइ-निपुणपणइ हीआ-साथि आफणी विचारी जोइ । रे जीव! तहन अनुभूत स्वरूप छई । आपणा हीया-सिउं विचारी जोइ । एतलइ गाथार्थ हउ। वली ए उपदेश कहइ
जासिं च संग-वसओ जस-धम्म-कुलाइ हारसे मूढ ।
तासि पि किंपि चित्ते चिंतसु नारीण दुच्चरियं ॥७८ व्याख्या:--रे जीव-आत्मन् ! तूं नारीनु जे संग-संभोग, तेहनह काजि आपणउ यश, धर्म, कुलाचार समस्त हारवइ छइनीगमइ छइ । तु ते नारीना जे दुश्चरित दोष छई, ते आपणा हीया-सिउ विचारी कांइ न जोइ? वली नारीना विशेष कहइ--
चवलाओ कुडिलाओ वंचण-निरयाउ दुट्ठ-धिट्ठाओ ।
तह नीय गामिणीओ जाओ तेसि पि को मोहो ? ॥७९ व्याख्याः --जे नारी स्वभाविइं चपल चंचल-स्वभाव हुइ, अनई वली महा-कुटिल वक्र स्वभाव हुइ, परवंचनानइ विषइ निरत सावधान हुइ, वली मनुष्यनई आपदाइं पाडिवानइ काजि महादुष्टि, धृष्टा, वली वक्र-चित्त, वली नदीनी परिई नीचगामिनी, इसी जे निर्गुणि, निर्लज्जि, निस्नेहि, ते स्त्री-उपरि किसिउ मोह कीजइ ? अपि तु न कीजइ । हिवह ए नारी क्षण-एक राग धरइ ते कहइ
गण-सायरं पि परिसं चंचल-चित्ता विवजिउ पाया।
रच्चइ निरक्खरे विहु नीअत्तमहो महिलाए ॥८० व्याख्याः --ए पापिणी स्त्री चंचल-चित्त हूंती, गुणरूप रत्न तेहनउ सागर-समुद्र इसिउ गुणसागर ते आपणउ पुरुष मेल्ही, जे निरक्षर मूर्ख हाली-पींडार-प्रभृति जे पुरुष हुई, तेहनइ विषइ राचइ-तिहां मन करइ, तेह-सि रमई । तु अहो लोको ! ते स्त्रीनउ नोचपणउं अधमपणउं जोउ । वली स्त्रीनउं अधमपणउं कहइ
रूवोवहसिय-मयरद्धयं पि पुहवीसरं पि परिहरिउ ।
इयर-नरे वि पसज्जइ ही ही महिलाण अहमत्तं ॥८१ व्याख्याः --जीणइ पुरुषि आपणइ रूपि करी मकरध्वज कंदर्प हसिउ जीतउ छइ, अथवा पृथ्वीपति राजा हुइ तेहवा इ आपणा पुरुषनइ परिहरी, कामातुर हूंती स्त्री जे कुरूप, दालिद्री, कर्मकरादि जे पुरुष ते-ऊपरि अभिलाष करइ-अंगना संग करइ । 'ही ही' इसिई खेद-वचनि । जोउ-नि, महिला स्त्रीनउं अधमपणउं । जे रूपिई न राचइ, गुणे न राचइ, किंतु काम-सुखि राचइ, इणि कारणि अधमपणउं कहिउं ।
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