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________________ शोलोपदेशमाला-बालावबोध इसिई बेहू दल मिरई, सुभट किलकलारव करइं, हाथिए गुडि ढलई, घोडे पाखर पडई) सुंभट सन्नाह पहि। ई, माहोमाहि वरणी वरइ । हाथीउ हाथीआ साथिई, घोडु घोडा साथिई, रथ रथिई, पायक पायकिइं, भथाइत भथाइतिइं, सींगणीउ सींगणीधा साथिई, अनेक सल्ल. वावल्ल-भल्ल-तोमर-नाराचे करी माहोमाहि झूझ करतां आकास धूलिई छायउं । लोहीनी नदी वहिवा लागी। सुभट पडिवा लागा । खङ्ग ने झारकारे आकासि उद्योत होइवा लागउ । सींगिगिने टणत्कारे आकाश गाजी रहिउ । एहवी आरेणि होता नारद आकासि नाचतउ, बिह दलनइ धरिम देतां जि, गदाई करी जरासिंधुई राम तिम हणिउ, जिम मुखि लोही नाखतउ पडिउ, केसव बाणे करी तिम ढांकिउ, जिम देखइ कोई नही । यादवनउ सर्व सैन्य भागउं। जरा-विद्यानइ बलि सर्व कटक अचेत ह । तिसिइ मातुल सारथी श्री नेमिकुमार-प्रतिइं कहइ, 'स्वामी ! यद्यपि तुम्हे निरीह निरहकार छउ, कहिनी करणवार न करउ, पणि तथापि ए यादव निवेंस जाता उद्धरउ । आपणउ पराक्रम देखाउ ।' इस कहिइ हूंतइ, श्री नेमिनाथइ धनुष हाथि लेई जरासिंधुना कटकनी. ध्वजा सर्व कापी, सर्व शस्त्र छेद्यां । तिहां संखेसरउ पार्श्वनाथ प्रगट कीधउ । तेहना पखालन जलि जरा-विद्या गई । यादव सर्व पाछा वल्या । तेतलई जरासिंधु बोलिवा लागउ, 'अरे गोपाल ! माहरउ जमाई हणी तूं पश्चिम समुद्रई नासी गयउ सीयालनी परि, तु आज तझनई हणी जीवयशा-पांहि जलांजलि देवराविसु ।' इणिई वचनि कृष्ण बोलिवा लागउ. 'तड बहिलउ था । ताहरा मायबापनइ साथिई तूझनई मेलिसु ।' इम कहतां बेहू झूझ करा, ते शस्त्र नही, ते विद्या नही, जे तिहां प्रयुंजी नही । इम झूझ करतां, जरासिंधुनां सर्व शस्त्र खूटा। तिसिई जरासिंधु राजाई चक्र-रत्न स्मरिउं, तेतलइ ज्वालामाला कराल करतां चक्र आविर्ड। तिसिई नारायण भणो मूकिउं । हीयइ जेतलइ लागउं, तेतलइ कृष्णना भाग्य-लगई हाथि आदि बइटउं । नारायणि चक्र वलतू मूकी जरासिंधु हणिउ । तिहां देवताए जयजयारव कीचड. नवमउ वासुदेव एहवी उद्घोषणा कीधी, कुसुमनी वृष्टि कीघी । पछइ मातुल सारथी आप. णइ ठामि पहृतु । त्रिखड साधी नारायण द्वारवतीई आविउ । संख १ खड्ग २ धनष ३ चक्र ४ वनमाला ५ कौस्तुभमणि ६ गदा ७ – ए सात रत्ने सहित नारायण राज्य करिता लागउ । अनइ श्री नेमिकुमार विषय-विमुख-हंतु सुखिई रहइ । इसिइ साब-पजून विद्याधरनी, राजानी पुत्रीए परिवरिया वन-माहि क्रीडा : श्री समुद्रविजय शिवादेवी श्री नेमिकुमार प्रतिई कहइ, 'वत्स ! तु गुणे करी संपूर्ण यौवनवई आविउ हूंतु इ जे स्त्रीनउं पाणिग्रहण नहीं करतउ, तिणि करी अम्हे महा दुहवण आणउं छउँ जिम भलउं इ माणिक्य हेम-विण न सोभइ, तिम स्त्री-विण तूं सोभतउ नथी । तेह-भणी एक वार परणि. जिम अम्हे वह' लोचने देखू ।' ए यात साभली नेमिकुमार कहा, 'आम तात ! ए स्त्रीना संग्रह परमार्थवृत्तिई दुखदायक छइ । तेह-भणी माहरउं मन नही। . इसिह यशोमतीनउ जीव अपराजीत-विमान-तु चिवी, उग्रसेननी भार्या धारणी, तेहनी कखि अवतरी. राजीमती एहवइ नामि पुत्री हुई । क्रमिइं वाधती वाधती यौवनावस्थाई आवी । इसिई नेमिकुमार आयुधशाला-माहि फिरता फिरता आव्या । तिहां सारंग धनुष. पंचयज्ञ संख देखी हाथि लेवा लागा । तेतलइ रखवाले कहिउं, 'स्वामि ! न वाइवलं, परहुं छउ । १. K बिहुँ २. K परिग्रह, Pu. संसर्ग ३. L पंचजन्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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