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________________ [१९ स्थूलभद्र-चरित्र ईणइ भरतक्षेत्रि पाडलीपुर-नगरि नंद राजा, शकडाल महुत उ, तेहनी भार्या लक्ष्मीवती । तेहना बि पुत्र-एक श्री-स्थूलभद्र, बीजउ सिरीउ । हिवइ जे सिरीउ, ते नंदराजानउ अंगोलगु, अनइ स्थूलभद्र, ते पूर्व-पुण्य-लगइ पितानइ प्रसादि उपकोशा वेश्या तेहनइ घरि बार वरस रहिउ । इसिई ब्राह्मण वररुचि नामा महा विद्वांस कवीश्वर, ते. सदाइ राजानइ अठोत्तरसउ नवे काव्ये करी स्तवइ । अनइ नंद राजा शकडाल महुता सामहं जोइ । पणि शकडाल मिथ्यात्वी-भणी प्रससा न करइ । इम करतां घणा दिवस गया। न नंदराजा दान दिइन प्रधान वर्णवइ । इसिई वररुचिई चीतंविउ, 'जां शकडालनी भार्या नहो आवर्जउं तां महुतउ दान देवा नही दिइं, कांई प्रवाहिई सर्व विश्व स्त्रीनउं वाहिउं भमइ छइ ।' इम चीतवी वररुचिई लक्ष्मी तिम आवर्जी जिम शकडालिई पतगरिउँ । प्रभाति राजा नंद सभा-माहि आवी बइठउ तेतलइ वररुचि आविउ । तिहां अठोत्तर सउ काव्ये राजानी स्तुति कीधी । राजाइं प्रधान सामहं जोयउं । तेतलाई प्रधानि स्त्रीनइ वचनिई कहिउं जु, 'ए काव्य भलां छइं ।' पछई राजाई संतुष्ट वर्तमान अठोत्तर सउ दीनार देवराव्या । इम बीजइ दिनि पंडित अठोत्तर सउ काव्ये करो वर्णवइ अनइ राजा प्रधान-पाहिति अठोत्तर सउ दीनार देवरावइ । इम घणा दिन गया । ___ अन्यदा महुतई चीतंविउं, 'ए मिथ्यात्वनी वृद्धि मुझ थकी हुई।' पछइ प्रधान राजा प्रतिइं कहइ, 'स्वामी! ए काव्य जूनां । जउ न मानउ तउ माहरी पुत्रीनइ आवइ छड, पूछउ । तुम्हनइ प्रभाति प्रत्यय देखाडिसु ।' पछह जक्खा १ जखदिन्ना २ भूता ३ भूतदिन्ना ४ सेणा ५ वेणा ६ रेणा ७ ए सात पुत्री मुहुतानी। तिहां पहली एक-संथूई, बीजी बि-संथूई, त्रीजी त्रि-संथूई - इम सातइ सात-संथूई । ते राजभवनि आणी, परीअछि बंधावी, माहि राखी । तेतलइ विद्धांस आविउ, काव्य कहियां । जक्खाइ जेतलइ एक वार सांभल्या तेतलइ जक्खाई राजा देखतां पाठ दीघउ । इम साते पुत्रीए अनुक्रमिइ पाठ दीधउ । ए वात जाणी राजाई दान वररुचिनइ निषेधाबिउ । राजा प्रधान प्रति कहइ, 'तिहि जि वर्णव्यां तु मई दान दोधडं।' पछड वररुचि पंडित गंगानइ तटि कपटयंत्र मांडी प्रभाति लोक देखतां कहा, 'हे मात । जु राजा दान न दिइ तु मात तू दिइ ।' इम कही जेतलइ पाणी-माहि यंत्र-ऊपरि पग आहणइ तेतलइ अठोत्तर सउ दीनारनी गांठडी बाहरि पडइ । ते गांठडी सर्व लोक देखता लिइ । इम ले वात प्रसिद्ध हुई । कांई सुप्रयुक्त पाखंडइ कउण कउण विप्रतारीइ नहीं ? हिवइ ए वात राजा आगलि पणि कुणहि एकि कही, 'स्वामी ! गंगा अठोत्तर सउ दीनार दिइ छड ।' राजा । वात साची मानी, कांइ राजा बलद पाणी ए जिम वालीई तिम वलई । इसिई शकडाल प्रणाम करी कहइ, 'स्वामिन ! प्रभात समइ आपणपे जईइ ।' ए वात राजाई पडिवजी । तिसिई संध्याई महतइ जण मोकली वररुचि पंडितनी मूकी छानी गांठडी अणावी । पछइ प्रभाति राजानड संघाति लेई नदीनइ कांठइ आव्या। तेतलह वररुचिई राजा देखतां नदीना अठोत्तर सउ काव्य करी स्तवी, गंगानइ प्रार्थइ, 'माता ! राजा नापइ, तूं आपि' । इम कही पग यंत्र-ऊपरि आह पणि जे महतह कपट करी ग्रंथि लीधी, तेह-भणी कांई न पडइ। इम वार वार पग आहणता को देखता जि शकडालइ आपणी बगल-हूंती गांठडी काढी राजानइ हाथि आपी. कहिवा १. A. लाछलदे । २. K. आवडइ । ३. L. K. संथी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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