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सुन्दरगणि-विरचित
छइ राजा जूजूआ तेड्या । तिसिहं राजा छए बारणे जुजुभा जुजुआ पइठा । पणि एक-एकनइ जाणता नथी । ते प्रतिमा देखी हर्षित हूंता साक्षात् मल्लीकुमरी जाणी जेतलइ माथइ हाथ लगाss dres ढांकणउं 'अलगउं हूउं । तिसिद्धं माहि-थकी दुर्गंधि ऊछली । तिसिहं तिम किमइ जिम नाक ढांकी अलगा नासिवा लागा । तेतलई मल्लिनाथ ते राजा बोलाव्या, 'अहो ! जउ सोनानी पूतली एवडउ दुर्गंध, तु हूं मलमूत्रनुं थानक, माहरइ विषई एवडउ स्युं कूडउं व्यामोह ? ए विषयसुख विषप्राय छइ, ए विषय लगी संसार - माहि जीव भमइ छइ' । श्री मल्लिनाथ भवांतरना स्नेह लगी तिम किमइ प्रतिबोध्या जिम ते छइ राजानइ जातीस्मरण ऊपनउं । पछई छइ राजा कहई, 'अम्हनइ दीक्षा दिउ । तेतलई मल्लिनाथ कहइ, 'मुझनइ जिवारइ केवलज्ञान ऊपजिसिहं, तिवारइं तुम्हनई चारित्रनी प्राप्ति होसिहं ।' ए वात सांभली छइ राजा प्रतिबोध्या हूंता नमस्कार करी मल्लिनाथनइं खमावी आपणे आपणे स्थानके पहुता ।
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तिवार पछी सउ वरस जन्म- इतु बउलिइ हूंतइ लोकांतिक देवताए आवी दीक्षानु काल कहिउ । तिसिई वन-माहि के केल्लि - तद-तलइ, शिबका-तु ऊतरी, सर्व आभरण मूंको, अष्टम-तपि दीक्षा Raat | सामायक-सूत्र ऊचर्यां । पछइ मन-पर्याय ज्ञान ऊपनउं । तिणइ जि दिनि केवलज्ञान ऊपन | इंद्रनउं आसन कांपिउ । तिसिहं अवधिनइ योगिइं इंद्र आवी केवल - महिमा कीघउ । समोसरण कीधउ । तिहां श्री मल्लिनाथ धर्मोपदेश देवा लागा, सर्व भाषाइ जिम सर्व जीव समझई । तीणी देसनाई प्रतिबुद्ध तीणे छए राजाए दीक्षा लीधी । श्री कुंभराजाई श्रावक [न] उ धर्म पडिवजिउं । तिहां स्वामीना मुख इतु त्रिपदी पामी अठावीसे गणधरे चऊद पूर्व नवा कीधा । पण पहुर पछी गणधरे पादपीठि बइसी देसना दीधी । तेतलइ कुम्भराजाई कलमशालिनड शाटउ (?) आणिउ । वानित्र वाजते तेहनउं अर्ध देवता लिई, अर्ध सर्व राजादिक लिइ । कणमात्र भुई न पडइ । ते जि को एक कण लिइ, तेहनइ पूर्विला रोग सर्वं जाई अनइ नवा छमास- तांइ न ऊपजई । बीजई दिनि परमान्नि करी विश्वसेननइ घरि श्री - मल्लिनाथनइ पारणउं हूउं । पंच दिव्य हूयां |
पछइ स्वामी पृथ्वी -माहि भव्यजीवनइ प्रतिबोध देतां, पंचावन सहस्र वर्ष आयु पाली, पांच सह साधु सर्व सहित, समेत-शिखरि मास-दीह अणसण पाली, फागुण शुदि चारसि दिनि, भरणी नक्षत्र, स्वामी मोक्षि पुहता | इंद्रादिक देव पणि महामहोत्सव करी नंदीश्वरि पहुता ।
तु अहो भविको ! जिम श्री मल्लिनाथइ शील पालिउ, तिम तुम्हे पालउ ।
इति श्री - खरतरगच्छ श्री जिनचंद्रसूरिशिष्य वा० मेरुसुंदरगणि विरचित श्री - शीलोपदेशमाला - बालाविबोधइ श्री मल्लिचरित्र संपूर्ण ॥ १८ ॥
जे जीव मल्लि-नेमिनी परिई अदृष्ट- कामभोग ब्रह्मव्रत पालइ ते आश्चर्य कांइ नहीं, परं जे विषय सेवी अनइ शील पालइ ते धन्य । इहां दृष्टांत पूर्वक कहइ -
सो जयउ थूलभदो अच्छेश्यक रिचरिय-परिअरीओ । जस्सज्जवि बंभवए जयम्मि वज्जेइ जयढक्का ||४१
व्याख्याः - श्री आर्य - विजयसंभूतिनउ शिष्य श्री-स्थूलिभद्र जयवंतु हु । ते किसिउ छइ १ अछेरय=आश्वर्यकारीउं चरित्र तिणि करो परिकलित=सहित एहवा जे श्री-स्थूलभद्रनउ ब्रह्मव्रतपालनरूप यशपडह जगत्रय-माहि आज लगइ वाजइ छइ । अनइ वली अनेक युग सीम वाजिसि । कंदर्परूप महामल्ल जीप वइरी जवढकहा=जरभेरी वाजइ छ = विद्वांस एकांग वीरपण वर्णव । इति गाथार्थः । भावार्थ कथा-हूंत जाणिवउ -
१. Pu परहुँ पडिउ, K, अलगउं थय ।
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