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________________ शीलोपदेशमाला-चालावबोध किम्हइ पूरउं कीधळ' जाईइ। कांई व्रतनइ भंगि नरकपात हुइ।' तिवारइ राजा पूछइ, 'तुझनई वैराग्य स्या-लगी ऊपनउ ? भोगनइ योग्य एहवलं जे सयर, ते तूं तपरूप अग्निकुंड-माहि कुसुममालानी परिई कांइ घातइ तिवारइं पतिव्रता कहइ, 'अहो राजेन्द्र ! ए सयरनई तई सिउं वखाणिउं, जे सयर दोषने सए भरिउं छ ? ए सयर जि वैराग्यनउं कारण । सांभलि, ते केहवउ छइ १ यतः वसासृग्मांसमेदोस्थिपित्तविण्मूत्रश्लेष्मभिः । सवत्येतद्वपुरैः नवभिः पूतिगंधितां ॥१॥ एहवा डीलनइ वली वली जे विलेपन-स्नान-धूपे करी संस्करीइ, पणि तु ही दुर्गंधि न छोडई । ए अशुचिन निधान छइ । एहवा डीलनइ विषइ कउण मोह करइ ? अपि तु न कोई। कांड बाहरि दीसतां रूडउं माहि त उ एहवउं । जिम विषफल मुहि मीठउ लागइ अनइ अंतरंगि विणास ऊपजावइ ।' इत्यादि घणउ उपदेस रतिसुंदरीई दीधउ। पणि मगसेलीआ पाषाणनी परिहं राजा भेदीइ नही, मन-माहि चीतवइ, 'ए तां च्यारि मास सर्व बोल कहउ, पछइ तु माहराइ हाथि वात छइ ।इम चीतवी राजा कहिवा लागउ, 'तू काई असमाधि म करेसि, आपणउ नीम सुखिई पूरवि ।। इसि कही राजा आपण घरि आविउ । इम करतां जि च्यारि मास गया ।। पछइ अवधि पहतीइ राजा कहिवा लागउ, 'आज हूं आपणउ मनोरथ पूरव ।' तिवारई रतिसुंदरी कहिवा लागी, 'हे राजन् ! सघले आपणउ स्वार्थ जि वाल्ह।' इसिकही वली रतिसुंदरी कहिवा लागी, 'आज जि तां मई सबल खीरनउ आहार लीधउ छइ, तिणि करि माहरउ डील आकुल थाइ छइ, डील फूटइ छइ, सूल आवइ छइ, माथ दुखइ छइ ।' इम कहती मीणहल खाई वमन कीधउं। तिसिइ राजानइ तेडी कहिउँ, 'जोइ-न कृतघ्न डीलन विलसित । एहवउ परमान्न लीधउ हूंतउ, अनइ हिवडां जिम अशुचिमइ थयउ, तिम भोजन-समान एकवार हैं दीधी, अनइ हिव तूं माहरी वांछा करइ छइ । ते तु हूं वम्या अन्न-समान हुई छ। हिव त ए वांछा करतउ लाजतउ नथी? परनी ग्रही पराई स्त्रीना अंगीकार समान पृथ्वी-माहि अवर काई पाप नथी ।' तिवारई राजा कहइ, 'हे सुंदरि ! ए वात सर्व जाणउ। पणि अतिरागना यश-लगइ ताहरउ संगम वांछउँ ।' तिसिइ महासती कहिवा लागी, 'अजी माहरा अंगन तझनई सिउ अनुराग छइ ?' वली राजा कहइ, 'ताहरउं डील तपिइ करी दाध छइ, पणि ताहरां जे बि लोचन ते मइं न मूंकाई।' तिसिइ रतिसुंदरीइ आपण शील राखिवाभणी लोचन बेह काढी राजानइ हाथि आप्यां । ए स्वरूप देखी राजा चमत्करिउ हूंतउ रतिमुंदरी-ऊपरि राग मूकी कहिवा लागउ, 'हे कृशोदरि ! एहवउ दारुण कष्ट तइं सिउं कोधलं. जे मुझनइ महा दु:खदायक हूउं.?' तिवारई सती कहिवा लागी, 'तुझनइ मुझनइ ऊषध समान ए बात हुई, जिणि कारणि "ऊषध पीतां कडूउं हुई, पणि परिणामि गुणकारक, तिम हिवडां कष्ट ह, पणि आगलि गुणनइ हेति होसिइ ।' पछइ रतिसुंदरीइ तिम उपदेस देवा मांटि विषड निश्चल हुउ, वैराग्य ऊपनइ रतिसुंदरीनइ खमाविवा लागउ। तेतलइ शीलनड प्रमाणि शासन देवताई बेहू लोचन नवां कीधां । पछइ राजाई महुंता-साथिई रतिसुंदरी नंदनपुरि १. K, करिठ। २. K. नाखइ । ३. P. मयणहल Pu. मीडहल । ४. K. राजा पणि भति रागना वश-लगइ कहइ 'ताहरु संगम वांछ।' ५. P. L. Pu. उसह K. उसड। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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