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________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४७ मरण-हुतउ राखउ ।' तु जोउ, स्त्रीना स्नेह एहवा छइ, जे राजा नइ पउतार छांडी चोर-ऊपरि मन कीधउ । जिणि कारणि स्त्री एहवी जल्पंति सार्धमन्येन पश्यत्यन्यं सविभ्रमा । हृदये चिंतयत्यन्यं प्रियः को नाम योषितां ॥१॥ इम जाणी पंडिते ममता न करिवी । तिवारइ चोर कहइ, 'सोननइ वली सुरह। एक तुझ थकी माहरा प्राण ऊगरई, अनइ वली ताहरी प्राप्ति हुई । तु हुं आजन्म ताहरउ चोल लोपउनही । पणि कहइ (? हि.) कीणी युक्तिई माहरा प्राण राखेसि तिवारइ वरतु राणी कहइ, 'जिबारई प्रभाति तलार आविसिइ, तिवारइ हूं कहिसु, ए माहरउ पति भरतार ।' पछइ चोर कहइ, 'ए वात वारु कही ।' तेतलइ प्रभाति राजाना सुभट 'हणि' 'हणि' करतां देवकुल माहि पइसी पूछिवा लागा; 'तुम्ह-माहि चोर कउण ?' तिसिइ ते पापिणी चोर-साम्हु जोई कहइ, 'ए माहरउ भरतार। अम्हे देशांतरि जाता हतां । तिसिई सांझ पडी। पछइ अम्हे ए देवकुल-माहि आवी सूतां तिवारइ तलार विमासवा लागा जु, ‘ए चोर हुइ, तु एहवउं स्त्रीरत्न किहां? जेहनइ लक्ष्मी सरीखी ए वल्लभा, ते चोर किम घटइ ?' पछइ ते स्रीनइ व्यतिकरि, बापडउ निरपराध पउतार चोर करी बांधो सूलीइ दोधउ । तिवारइ तृषा ऊरनीइ जे जे लोक मार्गि आवइ, ते ते कन्हलि पाणी मांगइ । पणि राजाना भय-लगइ कोई पाणी पाइ नही। इसिई जिनदास श्रावक तीणी वाटइ आवतउ देखी पाणी मांगिउं। तिवारई जिनदास कदइ, 'जु माहरउं वचन करइ, तु तुझनइ पाणि पाउं ।' तीणइ कहिउं 'करिसु ।' तिवारइ जिनदासइ कहिउं, 'नवकारनु पद स्मरि । जेतलइ ई पाणी आणी पाउं, तेतलई तू "नमो अरिहंताण" ए पद ऊचरि ।' पछइ पउतारइ जलनी वांछाई वली वली पद स्मरिवा लागउ। तिसिइ जिनदास राजानउ आदेस अवगणी पाणी. लेई आवतउ तिणि पउतारि दोठ। पाणी आवतउ देखी संतोष ऊपनइ वली वली “नमो अरिहंताणए पद स्मरतउं प्राण मूकिउ। तु जोउ-न, अज्ञात-धर्म-तत्त्व इ नकारनइ प्रमाणि अकाम-निर्जराइ, मरी व्यंतर-माहि देवता हूउ ।। हिवइ ते दुराचारिणी चोर-साथि मार्गि जाती हूंती । विचालइ नदी एक महांत आवी।, तिवारई चोर कहइ, 'हे प्रिये ! हूं तुझनई वस्त्र-अलंकार-सहित नदीनइ पेलइ पारि लेई जई नही सकउं । तेह-भणी पहिलउ आपणा वस्त्र-आभरण सर्व माहरइं हाथि आपि, जिम पेलइ, पार लेई मूंकउं। पछइ बीजी वार तुझनइ लेई मूकिसु ।' इणि वचनि राजवल्लभाई सर्व आपणां आभरण-वस्त्र ऊतारी तेहनइ हाथि दीधां । तिवारइ चोर कहइ, 'हे स्वामिनी ! जां लगह ए. पारि जई आभरण पेलइ पारि मूंकि आवउं, तां-लगइ तूं निर्भय हूंती ए शरकडना वन-माहिरहि । हंहिवडां जि आवी तुझनइ लेई जाइसु ।' इम कही ते चोर नदीनइ पेलइ पारि जई विमासिवा. लागउ, जे स्त्री पउतारनइ आपणी नथी हुई, ते मुझनइ किम आपणी होसिइ १ इम चीतवीते चोर सर्व आभरण लेईनइ नाटउ । तिसिइ राजवल्लभा नग्न शरकडना वन-माहि थकी... पोकारिवा लागी. 'अहो पुरुष ! म नासि, म नासि । अरे अधम ! मुझनइ मंकी तूं किहां जाइ छइ ?' तिवारइ चोर कहइ, 'हूं तुझनइ नग्न देखी बीहउं । तेह-भणी हूं जाउं छा . इम कहितउ चोर नासी गयउ । पछइ राणी दीन-दयामणी थकी ऊभी रही । इसिई प्रस्तावि ते पउतारनउ जीव देवत्वपणउं पामिइ हूंतइ अवधिज्ञाननइ बलि ते राणीनई - नदीनइ उपकठि निरावरणी दीठी। तिसिड पूर्वभव-संबंप-लगइ प्रतिबोधिवा-भणी देवताई सीआलियान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002655
Book TitleSilopadesamala Balavbodh
Original Sutra AuthorMerusundar Gani
AuthorH C Bhayani, R M Shah, Gitaben
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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