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शोलोपदेशमाला - बालावबोध
११५ राजाई दवदंतीनइ हेति सयंवरा - मंडप मंडाविउ । अनइ ते मुहूर्त्त आडा सघलाइ च्यार प्रहर छ । तेह-भणी मइ तिहां न जवाइ । एह जि चिंतानुं कारण ।' तिवारइ कूबड कहइ, 'हूं तुझन कुंडिनपुरि प्रभाति लेई जाउं जु मुझनइ मनमानतां घोडा नइ रथ आपइ ।' तिसिइ राजाइ रथ मजूद कराविउ । पछइ तिणि रथि राजा, छत्रधर, तंबोलदार, बि चमरढाल, अनइ कूबड - एतला जणा रथि बइठा । वली कूचडि आपणी करंडी अनइ श्रीफल ए बि वानां संघाति लीघा । इम छ जणा रथि बइठा । पछइ कूबडइ रथ खेडिउ । जिम वायनउं प्रेरिंडं प्रवहण चालइ, तिम रथ चालिवा लाजउ । चालता राजानुं उत्तर संग ऊडी राजा कहइ, 'अहो कूबड ! रथ राखि, जिम वस्त्र लिउं तिवारइं कहइ, 'राजन ! जिहां वस्त्र पडिउ ते अनइ रथनइ पंचवीस जोअणनउ आंतरउ हूउ । अजी ए घोडा मध्यम छई, जु उत्तम हुई तु पंचास हुइ ।' इम मार्गि चालतां कउठनउ वृक्ष एक दीठउ । ते देखी राजा उत्कर्ष लगइ कूचडनइ कहर, 'ईणिइ वृक्षइ जेतलां फल लागा छइ तेतलां वलतां तुझनइ हूं कहिसु । हिवर्डा तु कालक्षेप खमइ नहीं ।' तिवारई कूबड कहइ, 'राजन् ! हिवडां जि उतिग देखाडि ।
इम
भुइँ पडिउं । तेतलइ कूबड हसीनइ
जोयणनड अंतराल
तू कालक्षेपन भय माणेसि ।' तिसिई राजाई कहिउ, 'ईणइ कउठि अढार सहस्र फल छ ।' पछइ कूबड एक मुष्टिनइ प्रहारि वृक्ष आहणिउ । तेतलई तडतडाट करतां फल भुई पड्यां । जु गणी जोइ तु ते अढ़ार सहस्र फल हुआं । पछइ कुब्जि ते विद्या लीधी । अनइ अश्वा हीआनी वात जाणिवानी विद्या राजानइ दीधी । तिसिइ एक दिसिई सूर्य ऊगिउ आइ एकइ दिसिहं विदर्भानी पोलिनई बारणइ आव्या ।
तेतलइ दवदंतीइ रात्रि सउणउं लही प्रभाति बापनइ कहइ, 'तात ! आज निवृत्तिदेवीइ हूं कोशलानगरीइ लोधी । तिहां मुझनइ वन देखाडिउ । वली तेहनइं वचनि हू सहकारि चडी । वली तीणt एक कमल माहरई हाथि दीघउं । एहवइ पंखीउ एक वृक्ष-तलइ पडिउ ।' एहवउ सउणउ दवदंतोइ कहिउ । तिवारई भीम कहइ, 'वत्सि ! तई सउणउं उत्तम दीठउं । जे कोशलानउ वन दीठड ते वली पूर्विली संपदा पामेसि । अन सइकार ते तुझन नल मिलसिई । वली जे पंखीउ पडिउ ते जाणे कूबर राज-हूंतउ पडिसिइ ।' इसिउ सउणानउ विचार सांभली हर्ष धरिवा लागी । तेतलइ वधामणीइ आवी वधामणी दीधी । कहिउं, 'स्वामी ! दधिपूर्ण नइ कूड पोलिनइ वारणइ आव्या ।' पछइ, भीमराजा साम्हउ आवी, घणउं बहुमान देई, आवासि ऊतारिया । तिहां कूबड - पाहइ सूर्यपाक - रसवती करावी सर्व जिम्या | पछइ दवदंती कूबड आपणइ घरि अणावी बापनइ इसिउं कहइ जउ, ' कूबड- रूपि नल। कांई, ज्ञानीइं तु इम कहिउँ हूंत उजु, नल टाली सूर्याक - रसवती बीजउ को करी न जाणइ । तु एह-भणी ए निषधराजानउ पुत्र नल जि । इहां संदेह नहीं । मुनिनां वचन अन्यथा न हुई । वली एक विशेष छह, जु एहनी आंगुली लागइ मुझनइ रोमांच ऊपजइ तु जाणिज्यो नल, नहीतर नही ।' तिवारइ कूबड़ कहइ, 'आजन्म परस्त्रीनइ हूं स्पर्श न करउँ ।' पछइ भीमराजाइ घणी अभ्यर्थना करी आंगुलीनउ स्पर्श करावि । तेतलई दवदंतीनइ रोमांच ऊपनं । तिसिहं दवदंती कहइ, 'स्वामी ! तही हूं सूती मूं की तूं गयउ । पणि हिवडां जागतां किम मूंकी जाएसि ?' इसिउँ कही कूच गृहांगण-माहि आणी, प्रार्थना करवा लागी, 'प्राणनाथ ! अजी आपणउं रूप प्रगट कांई न करइ ? मुझनइ कांइ संतापइ छइ ?' इम कहिइ हू तइ तिणइ कूबडइ
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