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श्री सुपाश्वनाथाय नमः
Chhilla Ik Ibollebic log de
SEEसाहे, लापन२२.
ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
"5272008
श्रमण-संस्कृति
रूपरेखा
लेखक प्रोफेसर पुरुषोत्तम चन्द्र जैन शास्त्री,
एम० ए०, एम० श्रो० एल० पटियाला।
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श्रमण-संस्कृति
की रूपरेखा
S:::::::::::MIIIIIIIRAMAILY:४१५
लेखक:प्रोफेसर पुरुषोत्तम चन्द्र जैन शास्त्री,
एम. ए., एम. श्रो. एल. पटियाला
प्रकाशक:
प्रोफेसर पी. सी. जैन
पटियाला
विक्रम सं० २००७ ।
(मूल्य ईस्वी सं० १९५१ । Y : जैन प्रिटिंग प्रेस, अम्बाला शहर::::::
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पुस्तक मिलने का पताः--
__ मैनेजर जैन प्रिंटिंग प्रेस,
अम्बाला सिटी
ला० दीपचन्द मोहन लाल जैन जौहरो
अदालत वाजार
पटियाला (पेप्सु)
प्रो. पो. सी. जैन एम. ए
स्टेडियम
पटियाला ( पेप्सु )
मुद्रक - ला. रोशन लाल जी जैन ला. बाब राम जी जैन
जैन प्रिंटिंग प्रेम,
अम्बाला शहर । ( मर्वाधिकार कर्ता के अधीन है)
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श्रमण-संस्कृति के पुजारियों के कर कमलों
पुरुषोत्तम चन्द्र जैन
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(क)
* नम्र निवेदन भारतीय इतिहास में, जैन धर्म, जैन संस्कृति और जैन दर्शन का कितना ऊँचा स्थान है यह किसी से छिपा नहीं है। जिस भौतिकवाद की भयानकता से तंग आकर आज विश्व के सभी राष्ट्र आध्यात्मिकवाद के सर्वोत्तम सन्देश विश्व शान्ति की स्थापना' के महत्व को समझने लगे हैं उस विश्व शान्ति के सन्देश को जैन धर्म अनादिकाल से देता आया है । जैन धर्म के सिद्धान्तों की उत्कृष्टता निर्विवाद सिद्ध है। इस महान् धर्म के अहिंसावाद, कर्मवाद और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त सदा विश्व में इस की कीर्ति को प्रसारित करते रहेंगे। किन्तु समय का चक्र बड़ा विचित्र है। वह जैनधर्म जो कभी विश्वधर्म होने का दावा करता था, कुछ सदियों से अवनति की ओर जा रहा है और उस का प्रचार कम हो रहा है । इस का मूल कारण यही है कि जैन धर्म के अनुयायी अपने आदर्शधर्म के वास्तविक सिद्धान्त को न समझ कर पथभ्रष्ट होते जा रहे हैं। जैनदर्शन के सिद्धान्तों का महत्त्व उत्तरोत्तर केवल शास्त्रीय विभूति के रूप में ही रहता जाता है । जैन समाज के जीवन में उन
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(ख)
का व्यापक रूप में पालन लुप्त होता जा रहा है । इसका परिणाम यह हुआ है कि समाज में सर्वत्र फूट, ईर्ष्या, कलह और मिथ्या प्रचार का साम्राज्य है । अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को तिलाञ्जली दी जा रही है । प्रेम
और शान्ति के संदेश को ठुकराया जा रहा है । सम्प्रदायवाद के झूठे वितण्डावाद में धन का महान् अपव्यय किया जा रहा है और शिक्षा जो राष्ट्र और समाज के निर्माण के लिये परमावश्यक है, उस की ओरे उचित ध्यान नहीं दिया जाता। इस के अतिरिक्त अवनति का एक कारण और भी है । जैन साहित्य को देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि जैनधर्म किसी समय में विद्वानों का धर्म था किन्तु अहिंसा प्रधान धर्म होने के कारण इस के अनुयायियों ने न्यूनतम हिसा वाले व्यापार व्यवसाय को अपनाया। व्यापार से लक्ष्मी का आगमन स्वाभाविक है और लक्ष्मी के चक्र में पड़ा हुआ मानव अपने धर्म और संस्कृति को भूल जाए या उस की उपेक्षा करदे यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं । अस्तु, वर्तमान समय में जैनधर्म व्यापक रूप में व्यापारियों का धर्म ही रह गया है। जो भी कुछ जैन धर्म का प्रचार यत्र तत्र दृष्टि गोचर होता है उस का श्रेय जैनमुनि राजों को
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जाता है। लोग जैन सन्तों पर नुक्ता चीनी अवश्य करते हैं किन्तु मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि जैन मुनिरत्नों ने जैन धर्म के प्रचार का भार अपने ऊपर न लिया होता तो जो भी जैन धर्म का प्रचार और जैनागमों का पठन पाठन आज दृष्टिगोचर होता है उस का भी प्रभाव होता । व्यापारी लोग जैन धर्म के वर्तमान प्रचार को भी कायम रखने में समर्थ न हो पाते ।
अस्तु, जैनधर्म के प्रचार, सामान्य ज्ञान और सुधार को ही दृष्टि में रखकर 'श्रमण-संस्कृति की रूपरेखा' नामक ग्रन्थ की रचना की गई है । श्रमण शब्द जैन और बौद्ध दोनों के लिये प्रयुक्त होता है किन्तु यहां जैन से ही अभिप्राय है। संस्कृति शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है । संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाले सम्पूर्ण विषयों पर इस ग्रन्थ में प्रकाश नहीं डाला गया है । जो कला आदि विषय अवशेष रह गए हैं उन पर दूसरे ग्रन्थ में प्रकाश डाला जाएगा।
पञ्जाब विभाजन के समय मुझे अपना पुस्तकालय लाहौर में ही छोड़ कर आना पड़ा। इस ग्रन्थ के कुछ अध्याय तो मैंने लाहौर में ही लिख डाले थे, शेष यहां आकर तैयार किये। यहां लिखते समय अभीष्ट सभी
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(घ)
ग्रन्थों की प्राप्ति के अभाव में बहुत स्थलों में मुझे अपनी स्मृति से ही काम लेना पड़ा। अतः बहुत संभव है कि कई स्थानों में उद्धरणों की तथा अन्य अशुद्धियां रह गई होंगी। आशा है विज्ञ पाठक मझे उन के लिये क्षमा करेंगे और यदि उन के विषय में सूचित करने का कष्ट करेंगे तो मैं उन का बहुत ही कृतज्ञ हूंगा।
अन्त में मैं जैनधर्म के सुयोग्य विद्वान् श्री डाक्टरबनारसीदास जी जैन एम. ए., पी. ऐच. डी. का वहुत २ धन्यवाद करता हूं जिन्हों ने इस ग्रन्थ को भूमिका लिखने का कष्ट किया है।
पाठक इस ग्रन्थ को पढ़ कर लाभ उठायेंगे तो मैं अपना परिश्रम सफल समझूगा। स्टेडियम, पटियाला
नम्र निवेदक:३०-१-५१
पुरुषोत्तम
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9 भूमिका प्रोफेसर पुरुषोत्तम चन्द्र जैन द्वारा रचित "श्रमणसंस्कृति की रूपरेखा" नामक ग्रन्थ को पढ़ कर मुझे अत्यन्त हर्ष हुआ। लेखक ने इस ग्रन्थ की नींव लाहौर में ही रखी थी और इस के कई अध्यायों के बारे में मुझ से चर्चा भी की थी। मेरी बड़ी इच्छा थी कि इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो जाए तो पाठकों को बड़ा लाभ होगा । अब इस ग्रन्थ को मुद्रित होते देख कर इस का परिचय कराने में मुझे बड़ा आनन्द होता है ।
प्रो० पुरुषोत्तम चन्द्र जी जैन शास्त्री, एम. ए., एम. ओ. एल. कुछ समय तक 'जैन विद्या भवन' लाहौर में मेरे साथ भी काम करते रहे। वहां इन को तुलनात्मक अनुसन्धान में बड़ी रुचि हो गई । फिर ये ऐचिसनकालेज लाहौर मे प्रोफेसर हो गए और डाक्टर आफ फिलासफी की डिगरी प्राप्त करने के लिये शीलांकाचार्य कृत 'महापुरिस चरियं पर थीसिस लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस निमित्त इन को जैनाचाये श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वर जी म.' मरुधर प्रान्तीय मन्त्री मुनिश्री छगन लाल जी म० तथा
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( च )
मुनि श्री पुण्य विजय जी म ० जैसे विद्वान् सन्तों की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । परन्तु पंजाब विभाजन के कारण थीसिस का काम समाप्त नहीं हो सका ।
उपर्युक्त कथन से भलीभांति विदित होता है कि श्री पुरुषोत्तम चन्द्र जी ने तुलनात्मक अनुसन्धान में पूर्ण योग्यता प्राप्त करने के बाद ही प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है । यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक विषय का विश्लेषण जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों के दृष्टिकोण से किया है । वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों भारत के महान् धर्मों की संस्कृतियां साथ २ चली आई हैं और तीनों में पारस्परिक प्रभाव पड़ता रहा है । बहुत सी बातों में जैन संस्कृति वैदिक और बौद्ध संस्कृति से प्रभावित हुई और बहुत सी बातें जैन संस्कृतिने वैदिक और बौद्ध संस्कृति को सिखाई । अत: जैन संस्कृति को पूर्णरूप से समझने के लिये वैदिक और बौद्ध संस्कृति का समझना परमावश्यक है ।
प्रस्तुत पुस्तक में जैनधर्म विषयक कई एक महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया गया है जो इस के अध्याय शीर्षकों से ही प्रकट होता है । पुस्तक की रचना शैली प्रौढ़ होने के साथ २ सरल और सरस भी है । कर्ता ने अपने कथन की पुष्टि के लिये यत्र तत्र अनेक शास्त्रीय प्रमाण दिये हैं ।
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इस के पढ़ने से जहां जैन संस्कृति का विद्वान् आनन्द ले सकता है वहां सामान्य पाठक भी लाभ उठा सकता है।
देखने में आता है कि अजेन जनता में जैन धर्म के बारे में अनेक भ्रमभूलक धारणाएँ पाई जाती हैं, इस पुस्तक में बड़े रोचक ढङ्ग से उनका निराकरण किया गया है । पहला अध्याय पढ़ने से पता चलता है कि जैनधर्म को प्राचीनता के विषय में लोगो के कैसे विचित्र
और असत्य विचार हैं। श्री पुरुषोत्तम चन्द्र जी ने एकएक को ले कर उन का खण्डन किया है । इसी प्रकार जैनधमे और राजनीति, के प्रकरण में वेदिक राज़नीति की अपेक्षा जैन राजनीति की विशेषताएँ बड़े ही सुन्दर ढङ्ग से वर्णन की गई हैं। जैनी लोग अपने राजनैतिक स्वतन्त्र विधानों से प्रायः अपरिचित हैं । उन विधानों का दिग्दर्शन इस प्रकरण में कराया गया है। 'अनेकान्तवाद' और 'श्रमण-सस्कृति में ईश्वर का स्थान' इन अध्यायो में ग्रन्थ कर्ता की दार्शनिक विद्वत्ता का पता चलता है। दार्शनिक विश्लेषण के साथ २ कर्ता ने सामाजिक सुधार की दृष्टि नहीं खोई । यही बात अन्य अध्यायों की है।
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(ज)
लेखक ने जैन सङ्घ की वर्तमान दशा पर भी बड़ी स्पष्ट आलोचना की है। कहां इस का वह जाज्वल्यमान भूत और कहां आजकल की परिस्थिति । इस पर केवल आलोचना ही नहीं की गई बल्कि इसे सुधारने के उपाय भी बतलाए गए हैं।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक ज़न और जेनेतर दोनों के लिये बड़ी ही उपयोगी सिद्ध होगी। जैन लोग तो इस को पढ़कर अपने धर्म की भूत और वर्तमान दशा को जान सकते हैं। जेनेतर लोग इस के पढ़ने से जैन धर्भ विषयक असत्य धारणाओं को छोड़ कर उस का वास्तविक स्वरूप समझ सकेंगे।
पजावी विमाग, पटियाला, ३०-१-५१
बनारसीदास जैन एम. ए.,
पी. एच. डी. (निवृत्त प्रोफेसर पंजाब यूनिवर्सिटो)
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विषयानुक्रमणिका
१-जैनधर्म की प्राचीनता २-द्राविड़ जाति में जैनधर्म ३-श्वेताम्बर मत की प्राचीनता ४-जैनधर्म और राजनीति ५ -जैन धर्म में वर्णव्यवस्था
वैदिक वर्ण व्यवस्था वर्णव्यवस्था का प्रारम्भ अनेक जातियों की उत्पत्ति जैन वर्ण व्यवस्था बौद्धों में वर्णव्यवस्था ६-जैन हर्म में स्त्री का स्थान
वैदिक धर्म में स्त्री का स्थान जैन धर्म में विवाह पर्दा प्रथा धार्मिक जीवन नारी सम्मान की पराकाथा ७-अहिंसा परमो धर्मः
वैदिक धर्म में हिंसा अहिंसा पर दृष्टिपात जैन धर्म में अहिंसा तत्व की साधना राष्ट्र पिता के विचार दर्शक पुरुष क्या करें ?
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'अहिंसा' शब्द निषेध अहिंसा की मर्यादित व्याख्वा हिंसक और अहिंसक उद्योग प्राचीन भारत की अर्थ व्यवस्था शरीर श्रम मेग विशेष दावा अहिंसा समाज का प्राण है हिंसा अहिंसा विषयक बौद्ध दृष्टि कोण =-अनेकान्त बाद
अन्यदर्शनों पर प्रभाव जीवन में धर्म की प्रधानता धर्म के नाम पर एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म सप्त भंगी समन्वय स्याद्वाद के वर्तमान अनुयायी संगठन की आवश्यकता संकुचित वातावरण १-श्रमण-संस्कृति में ईश्वर का स्थान
ईश्वर विषयक ज्ञान की उत्पत्ति का मूल अनेक प्रमों की उत्पत्ति वैदिक मन्तव्य वेद में ईश्वर सत्ता ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है वेदान्त दर्शन में ईश्वर
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द्वैतवाद अद्वैतगद सांख्य में प्रकृति और पुरुष न्यायशास्त्र में ईश्वर की परिभाषा श्रमण संस्कृति में ईश्वर ईश्वर सृष्टिकर्ता क्यों नहीं ? जैन मन्तब्य सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर का संमार से सम्बन्ध बौद्ध धर्म में ईश्वर की मान्यता बौद्ध धर्म में निर्वाण बौद्ध परम्परा में क्षणिकवाद नित्य सत्य धर्म निकाय एकाग्र ध्यान की प्रधानता १०-श्रमण-संस्कृति का स्वरूप
संस्कृति की परिभाषा संस्कृति और सभ्यता श्रमण संस्कृति की विशेषताएं कर्म विपाक भौतिकवाद और अात्मतत्त्व पञ्च महाव्रत सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य
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अपरिग्रह
तप की प्रधानता सामाजिक जीवन गृहस्थ धर्म
विवाह
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श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक भ्रमण - संस्कृति की महानता
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शुद्धि-पत्रक अशुद्ध
शुद यातुयाम
चातुयाम १७
'निर्माणमासन्न' इत्यादि पाठ कल्पसूत्र की टीका का है। कल्पसूत्र का पाठ इस प्रकार है:-"उप्पिं संमेय सिहरंसि'
पृ० २०८, प्रा. ७ इत्क्षीण
इत्थीणं प्राचन
प्राचीन सार?
सोरट्ठ शास्त्रय
शास्त्रीय ग्रन्थां
ग्रन्थों घुद्ध राजा
राजात्रों स्म रण
स्मरण ऋणदान
ऋणदाम विम्तारो
विस्तारो बृदहन्नीति
बृहदहनीति तापतः
तापितः
दुष्टस्य बना
बिना वव्यवस्था बर्णव्यवस्था सिद्धर्ण वए च
एव च तवो विससो तवों विसेसा नाराणाम् नराणाम् जन्मान्तर
जन्मान्तर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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कम भा
जा
द्वेषदि
जवन
भवान्
रौव
और
मनु य
सस्कृति
मार्गमतिभ्यः
द्विजम्मा
शुद्ध
जननी
आगामी
यह
मारना
सीमा
जो उद्योग
चीज़
भारतीय
प्रचार
जैन
संहार
भूमि
संभवन्ति
बीवों
काम भी
जो
द्वेषादि
जीवन
भगवान्
रौरव
श्रोर
मनुष्य
संस्कृति
मार्गवर्तिन्यः
द्विजन्मा
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॥ प्रीयतां भगवान् ऋषभ श्रीः ॥
॥ जैन धर्म की प्राचीनता॥
जैन धर्म की उत्पत्ति के लिये कोई समय विशेष निश्चित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह धर्म अनादि काल से भारत में चला पाता है । बहुत समय तक तो कुछ भारतीय और पाश्चात्य विद्वान् इस धर्म को बौद्ध धर्म की ही एक शाखा मानते रहे किन्तु अब तक जो साहित्यक गवेषणाएं हो चुकी हैं उनके आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन एक पृथक् धर्म है। कुछ समय तक तो कुछ विद्वान् यही मानते रहे कि महावीर महात्मा बुद्ध का ही दूसरा नाम है । इस के पश्चात् वे कुछ आगे बढ़े और उन्हों ने मान लिया कि महावीर स्वामी वास्तव में महात्मा बुद्ध से भिन्न व्यक्ति थे और उन्होंने ही जैन धर्म की नींव रखी थी। उन के पूर्व जैन धर्म का अस्तित्व न था । विद्वानों ने कहा कि जैनधर्म को चलाने वाले महावीर स्वामी अवश्य ऐतिहासिक व्यक्ति थे किन्तु उन के साथ जो अन्य २३ तीर्थंकरों का नाम लिया जाता है वे सब काल्पनिक व्यक्ति थे । अस्तु, समय की प्रगति के साथ २ विद्वान् लोग और भी आगे बढ़ते गए। बड़ी २ गवेषणाएं हुई और बहुत ऐसी बातें जो पहिले असत्य और काल्पनिक समझी जाती थीं, सत्य रूप में प्रकट हुई। अब तक हुई अनेक गवेषणात्रों ने जैन धर्म की प्राचीनता पर बड़ा प्रकाश डाला है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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[
२
]
जिस प्रकार वैदिक मन्तव्य के अनुसार परमात्मा इस सृष्टि को संहार के बाद ' यथा पूर्वमकल्पयत् ' पूर्व की तरह पुनः निर्माण करता है और पूर्व की तरह फिर भगवान् अनेक अवतारों के रूप में अवतरित होता है । इसी प्रकार जैन धर्म में भी समय समय पर पूर्ववत् तीर्थ कर अवतार लेते रहते हैं और जैन धर्म के ज्ञान की सत्यता को प्रकट करते रहते हैं । यह चक इसी प्रकार निरंतर चलता रहता है। जैनधर्म के आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभ स्वामी थे और अन्तिम दो श्री पाव. नाथ जी और भगवान् महावीर जी । जैनधर्म की वैदिक धर्म से तुलना के साथ साथ इस बात का ध्यान रखना परमावश्यक है कि वैदिक धर्म संसार को प्रादि और अन्तवाला मानता है किन्तु जैन धर्म संसार को अनादि और अनन्त मानता है। श्रतएव जैन धर्म में वैदिक सिद्धान्त की तरह सृष्टि की उत्पत्ति और संहार नहीं होते किन्तु सृष्टि का प्रवाह उसी प्रकार अनन्त काल से चला आ रहा है और चलता रहेगा।
हां ! जैसे कि पहिले लिखा जा चुका है कि पहले तो जैनधर्म को बौद्ध धर्म की शाखा माना जाता था फिर महावीर स्वामी को जैनधर्म का उत्पादक माना जाने लगा, किन्तु अबतक की खोज के परिणाम स्वरूप जैनों के २३ वें तीर्थकर भी पार्श्वनाथ जी को भी ऐतिहासिक व्यक्ति माना जा चुका है। उदाहरण के लिये महावीर स्वामी जी के पिता सिद्धार्थ कश्यप गोत्र के थे और ज्ञातृ क्षत्रिय थे । 'नायकुल चंदे' ऐमा कल्प सूत्र में भी पाठ पाता है। महावीर स्वामी को उन के जोवन काल में भी लोग "ज्ञातृ पुत्र" के नाम से जानते थे । पाली में 'नात' ज्ञाति को ही कहते हैं। इस प्रकार "ज्ञातृ पुत्र" का अर्थ होता है "नात पुत्र" | "नाय पुत्र" और "नायपुत्त" की समानता प्रत्यक्ष है। बौद्धों के “सामाअफल सुत्त" में नात पुत्र के धर्म का वर्णन करते हुए इस प्रकार लिखा है:
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[ ३ ]
'यातुयाम
संवर संवुत्तो'
इस में यातुयाम शब्द बड़ा ही सार गर्भित है । पाश्चात्य विद्वान् जैकोबी ने लिखा है कि यहां यातुयाम शब्द महावीर और २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ इन दोनों के सिद्धान्त प्रचार की भिन्नता दिखाता है । पा नाथ के समय चार ही महाव्रत थे । जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और परिग्रह त्याग | ब्रह्मचर्य नामक महाव्रत को तो महावीर स्वामी नेही सम्मिलित किया श्रतएव पार्श्वनाथ का धर्म 'यातुयाम' और महावीर का 'पंचयाम' है । इस प्रकार 'पंचयाम' का प्रचार करने वाले भगवान् महावीर से भिन्न 'चातुयाम' के प्रचारक जैनधर्म के २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी के ऐतिहासिक व्यक्तित्व में कोई संदेह नहीं रह जाता ।
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इसके अतिरिक्त बंगाल का सम्मेत शिखर जो पार्श्वनाथ पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है जैनों के प्रधान तीर्थों में से एक हैं । भद्रबाहु रचित 'कल्प सूत्र' जिस का रचनाकाल ईसा पूर्व ३०० वर्ष करीब है उस में जो श्री पार्श्वनाथ जी के विषय में वर्णन आता है उस का एक उद्धरण इस प्रकार है:
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1
निर्वाणमासन्न' संमेताद्रौ ययौ प्रभुः । ( कल्पसूत्र - पृष्ठ १६८ )
अर्थात् निर्वाण के समय श्री पार्श्वनाथ प्रभु इसी संमेत शिखर पर आए और यहीं से मोक्षपद को प्राप्त हुए ।
इसी प्रकार हेमचन्द्राचार्य विरचित “त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भी:
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[ ४ ]
ज्ञात्वा निर्वाणमासन्न संमेतादौ ययौ प्रभुः । त्रयस्त्रिशन्मुनि युतो मासं वनशनं व्यवात् ॥ (त्रिष. श. पु. च. पृष्ठ २१६ )
अर्थात् निर्वाण के समय श्री पार्श्वनाथ प्रभु संमेत शिखर पर आए । ३३ मुनि भी उन के साथ थे और उन्होंने वहाँ महीने का अनशन भी किया !
इस प्रकार के वर्णन प्रभु पार्श्वनाथ के विषय में शास्त्रों में यत्र तत्र उस ऐतिहासिक सत्य को पुष्टि करते हैं, जिस के आधार पर अबतक परंपरा से चले आते संमेत शिखर को पार्श्वनाथ पहाड़ी के नाम से पुकारा जाता है । इस तरह जैन धर्म के २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं ।
उपर्युक्त विश्लेषण से पाठक यह न समझे कि श्री पर्श्वनाथ प्रभु ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध हो चुके हैं । इस कारण जैनधर्म का प्रारम्भ उन से ही समझना चाहिये | ऐसा समझना सत्य से दूर जाना होगा । भगवान् महावीर और श्री पार्श्वनाथ प्रभु इन दो अवतारों के अतिरितः अन्य २२ तीर्थकरों के विषय में हम भले ही प्राधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से महत्व रखने वाले प्रमाण देने में असमर्थ हो किन्तु इस का अर्थ यह नहीं कि वे वास्तव में काल्पनिक ही हैं। उन के जीवन के विषय में कुछ एक प्रमाण ऐसे मिलते हैं जिन्हें महत्व दिया जाना चाहिये । मथुरा में कंकाली टीले की खुदाई से बहुत से जैनधर्म के प्रतोक अवशेष निकले हैं । इनका समय ईसा पूर्व २०० वर्ष है । यहां से जो शिलालेख मिले हैं उन में भक्तों ने अपनी श्रद्धाञ्जलि श्री ऋषभनाथ जी स्वामी को इस प्रकार दी है:
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प्रीयतां भगवान् ऋषभ श्रीः ।
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( ५ )
८८
याद रहे कि ऋषभ स्वामी जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं । इस के अतिरिक्त प्रायः सभी शिलालेखों में 33 नमोरिहंताणं श्राता हैं | जिसका अर्थ स्पष्ट है कि एक या दो नहीं किन्तु चहुत से तीर्थकरों को श्रद्धाञ्जल दो गई है । यदि भगवान् महावीर स्वामी या पार्श्वनाथ प्रभु से जैनधर्म का प्रारम्भ हुआ होता तो उन दोनों के खा एक के नाम लिखकर ही श्रद्धाञ्जलियां दा होतीं । ऐसा न कर के यादि तीर्थंकर ऋषभ स्वामी का नाम शिलालेखों में आता है। जिन को श्रद्धाञ्जलि
गई है और उनके अतिरिक्त बाकी के सब तोर्थंकरों को श्रद्धाञ्जलियां दी गई हैं । इस से यह स्पष्ट है कि श्री ऋषभ स्वामी से ले कर अन्य सत्र तीर्थंकर समय समय पर अवतार ले चुके हैं और उन सबके लिये ही कंक लीट ले के शिलालेखों में श्रद्धाञ्जलियां अर्पित की गई हैं ।
निस्मन्देह हमारे पास ऐसे अकाट्य और वजनदार प्रमाण नहीं हैं, जिन के आधार पर चोबीस तीर्थंकरों का हा ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध कर दिया जाए, किन्तु जैसे २ उत्तरोत्तर खोज होती जायेगी और इतिहास पर प्रकाश पड़ता जाय वैन २ न की काल्पनिक बातें सत्यरूप में मानी जाने लगेंगी । पहिले तो लोग जैन धर्म का बौद्ध धर्म से पृथक् अस्तित्व ही नहीं मानते थे किन्तु अत्र मानते हैं । पहिले तो लोग भगवान् महावीर स्वामी और पार्श्वनाथ प्रभु को भौ ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं मानते थे, किन्तु अब सभी विद्वान् मानते हैं । भविष्य में जैसे ही प्रमाण मिलते जाएंगे, वैसे ही अन्य तीर्थंकरों को भी ऐतिहासिक व्यक्ति मान लिया जायगा ।
वैदिक धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद को कुछ विद्वान् ईसा पूर्व १२०० वर्ष मानते थे और कुछ २५०० वर्ष मानते थे किन्तु मोहन जोदड़ो नगर की खुदाई के बाद जो खोज हुई है उस के आधार पर
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अब विद्वान् लोग ऋग्वेद को ३.००० वर्ष का पुराना मानने लगे हैं । इस प्रकार प्रमाण मिलने पर पूर्व के विचार रद्द होते रहते हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि भविष्य को खोज अवश्य ही तीर्थङ्करी के व्यक्तित्व पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालेगी !
हां यहां प्रसंगवश यह दशांना असंगत न होगा कि इतने प्राचीन ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में यत्र तत्र तीर्थङ्करों के नाम आते हैं । सेयाम्मन्नश्वास ऋषभाम् उक्षणो वशामेषा अवमष्टास आहुता ।
ऋग्वेद १०६१/१४ स नेमि राजा परियाति विद्वान् प्रजा पुष्टिं वर्धयमानोऽस्मे स्वाहा ।
यजु० ६२५ ऋग्वेद और यजुर्नेद के इन दो मन्त्रों में जैनियों के अादि तंङ्कर श्री ऋषभ स्वामी और २२ तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ का नाम पाया है। इम से भी जैन धर्म की प्राचीनता पर बड़ा प्रकाश पड़ता है।
इस के अतिरिक्त जैन धर्म का प्राचीनतम नाम “निग्गंठे पवयणे" अर्थात् निम्रन्थ प्रवचन था जैन शब्द का प्रयोग तो संवत् १००० के लगभग प्रयोग में आने लगा। इस के पूर्व जैन शब्द का प्रयोग बहुत ही कम होता था। और इसके स्थान पर "निन्य प्रवचन" का प्रयोग होता था। जैनागम भी इसी सत्य की पुष्टि करते हैं।
जैसे:"नयणं दाहामु तुमं नियट्ठा"।
उत्तराध्ययन अ० १२ श्लो. १६ __ " नो इत्तीर्ण कहं कहित्ता हवइ से निग्ग थे"
उत्त० १६/२
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इसो प्रकार आचारांग और कल्प सूत्रादि आगमों में भी निन्थ शब्द जैन साधु साध्वियों के लिये ही प्रयोग में आता है।
बौद्धों के धर्म ग्रन्थ “ महापरि निब्बाण सुत्त" में निग्गंठ शब्द का प्रयोग किया गया है । अशोक के शिलालेखों में भी "निग्गंठ' शब्द आता है, जिस का अभिप्राय जैन साधुओं से ही है । बद्धों के पिटकों में तो स्पष्ट बताया गया है 'निग्गंठ' बद्धों के प्रतिद्वन्दी थे। इस से यह स्पष्ट है कि निग्गंठ बौद्धधर्म से बहुत प्राचीन काल से चले पाते थे, और वे समय २ पर बौद्ध धर्म का बड़ा विरोध करते रहे । इस प्रकार 'निग्गठ' शब्द के प्रयोग से भी जैन धर्म भारत का बहुत प्राच न धर्म सिद्ध होता है ।
महनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से जो अवशेष निकले हैं वे भी जैनधर्म की प्राचीनता पर बड़ा प्रकाश डालते हैं । हड़प्पा से एक सील निकली है जिस का चित्र लाहौर के डाक्टर बनारसीदास जैन द्वारा सम्पादित “जैन विद्या" नामक त्रैमासिक पत्र के मुखपृष्ठ पर दिया गया है । हड़प्पा के इस अवशेष पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए एक योगो की मूर्ति है। ध्यान रहे कि तपश्चर्या की कायोत्सर्ग ध्यान की प्रथा जैन धर्म में ही परंपरा से चली प्रारही है। योगी की इस मूर्ति के सिर पर सर्पकण हैं; जिन की संख्या तीन दिखाई देती है। जैन धर्म के सातवें तीर्थकर सुगवनाथ और तेईसवें तीर्थंकर पार्वनाथ के सिर पर भी इसी प्रकार के सर्पफण पाए जाते हैं । यह मूर्ति पार्श्वनाथ की तो हो नहीं सकता क्योंकि उन को हुए तो करीब २७०० वर्ष हुए हैं । खोज करने वाले विद्वानों ने इस कायोत्सर्ग की मूर्ति वाली हड़प्पा की सील को ५००० वर्ष पुरानी माना है। अतः यह मुर्ति जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की ही होनी चाहिये । इस प्रकार
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( ८ )
सातवें
इस खोज से केवल जैनधर्म के बहुत प्राचं न होने का ही पता नहीं चलता किन्तु जैनियों के तीर्थंकर सुगश्वनाथ के व्यक्तित्व पर भी बड़ा प्रकाश पड़ता है । इस में कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में और कुछ प्राचीन अवशेष मिल जायें, जिन के आधार पर पार्श्वनाथ की तरह सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ को भी ऐतिहासिक व्यक्ति मान लिया जाय । जिस प्रकार अब तक अतीत काल के अवशेषों ने भविष्य के इतिहास पर सत्य का प्रकाश डाला है और उसे उज्वल बनाया है, इसी प्रकार भविष्य में भी होता रहेगा ।
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॥ द्राविड़ जाति में जैन धर्म |
___ कुछ भारतीय विद्वान् तो भारत को अनादिकाल से प्रार्यों का निवास स्थान मानते हैं किन्तु कुछ विद्वान् भाषा विज्ञान के आधार पर तथा अन्य कई ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पार्यो का बाहर से भारत में आगमन बताते हैं । आजतक हुई गवेषणा से यह स्पष्ट है कि प्रायों के भारत में प्रागमन से पूर्व यहां द्राबड़ जाति के लोग रहते थे। द्राविड़ जाति के तुर्गस, भृगु, गु ह्य श्रादि कई भेद थे । इतिहास से यह जाति भारत की प्राचीनतम जाति सिद्ध होती है । आर्यों के भारत में प्रागमन के पश्चात् दोनों जातियों में काफी संघर्ष चलता रहा। वैदिक धर्म का अति प्राचीन धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद इस को साक्षी देता है। उदाहरण के लिये सुदास के पिता दिवोदास ने यदु और तुर्वसों को हराया।
ऋग्वेद ८, ६१, २
कुछ काल पश्चात् दोनो जातियां शान्ति पूर्वक रहने लगीं। दोनों जातियों में विवाह सम्बन्ध भी होने लगे, और दोनों ने एक दूसरे के देवताओं को भी अपना लिया और उन की पूजा करने लगे। द्राविड़ लोग नाग पूजा करते थे। आर्यलोगों ने भी इसे अपनाया। अाजकल भी जो नाग पंचमी का त्योहार चला आता है वह उसी प्राचीन प्रथा का प्रतीक है। द्राविड़ों ने आर्य जाति के विष्णु आदि देवों को मानना और पूजना प्रारम्भ कर दिया । भगवान् शंकर के गले में सों की मालाएं शायद उसी द्राविड़ और अार्यों के पारस्परिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १० )
संमिश्रण को प्रकट करती हैं। जैनों के मातवें और तेईसवें तीर्थंकरों के शिरों पर सर्पफण के चिन्हों का भी होना कुछ २ उसी प्राचीन सभ्यता की झलक हो सकता है। अपने २ धर्म ग्रन्थों के अनुसार हम भले ही इन चिन्हों का जैसा चाहें अर्थ कर लें किन्तु साथ २ चले आते धर्मों के पारस्परिक प्रभाव को छिपाया नहीं जा मकता ।
द्राविड़ जाति के लोग जिन्हें आर्य अपना शत्रु मानते थे और अनार्य कह कर पुकारते थे अन्त में आर्य लोगों को प्रभावित करने में सफल हुए। यहां तक कि वे हिन्दू हो नहीं ब्राह्मण बन गये । किन्तु विशेषता यह रही कि ब्राह्मण बनकर पी वे द्राविड़ जाति से अलग नहीं हुए । द्राविड़ जाति का गौरव सदा उन के सामने रहता था। आर्य जाति के मूलपुरुष मनु को भी उन्हों ने द्राविड़ बना डाला । भागवत पुराण में लिखा है:
योऽसौ सत्यब्रतो नाम राजर्षि विड़ेश्वरः ।
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासोदिति श्रु तम् ॥ अर्थात् सत्यव्रत नाम का राजर्षि द्रविड़ राजा ही वैवस्वत मनु बनगया ।
इस श्लोक में तो अायों की उत्पत्ति ही द्राविड़ों से होने का प्रयत्न किया गया है । जो सनथा असत्य है किन्तु तत्कालीन द्रविड़ों के व्यापक प्रभाव का इस से स्पष्ट पता चलता है। आर्य जाति शायद द्राविड़ लोगों को इतना प्रभाषित न कर सकी जितना द्राविड़ों ने प्रार्य बाति को किया । सुयोग्य विद्वान् पण्डित रघुनन्दन शर्मा जी वैदिक सम्पत्ति के पृष्ठ ३७७ पर लिखते हैं कि रावण भी द्रविड़ राजा था और उस ने वेदों पर भाष्य लिखा था। हिंसामय यश, सुरापान, मांसभक्षण, व्यभिचार और लिंगपूजनादि सब दूषित बातें द्रविड़ों से ही पार्यो में प्राई।
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( ११ )
श्री मिनबन्धु जो भारत वर्ष के इतिहास भाग १ पृष्ठ ६८ पर लिखते हैं कि:
"प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन से इतना अनुमान होता है कि यह अन र्य लोग भूत, प्रेत, पर्वत और वृक्ष अादि को पूजते थे । आर्य मत से रुद्रकाली, अादि के पूजन-विधान तत्कालिक अनार्यमत की छाया से समझ पड़ते हैं।"
अस्तु, उपयुक्त विवर्ण से यह स्पष्ट है कि द्रविड़ और आर्य जाति या धर्मों में संघर्ष के पश्चात् मेल हो गया था और दोनों ने एक दूसरे की संस्कृति को अपना लिया। निश्चित रूप से यह कहन। कठिन है कि कौन सी प्रथा किसने किससे अपनाई क्योकि धर्मग्रन्थों में निम पाठ को विद्वानों का एक दल प्रक्षिप्त मानता है उसी को दूसरा दल मौलिक स्वीकार करता है!
जैन धर्म को हम भारत में अनादि काल से चला पाता धर्म मानते हैं । अब प्रश्न यह है कि जब द्राविड़ और आर्य जाति में संघर्ष चल रहा था और जब अन्त में दोनों ने एक दूसरे की संस्कृति को अपना लिया । उस समय जैन धर्मका भी अस्तित्व मिलता है या नहीं ? अभी तक मेरे देखने में तो कोई ग्रन्थ नहीं अाया, जिस में उस समय के जैन धर्मके इतिहास का पता चल सके। हां यत्र तत्र जैन और वैदिक धर्म के प्रन्थों में कुछ उद्धरण अवश्य ऐसे पाते हैं जिनमें हम तत्कालीन जैन धर्म के अस्तित्व का पता लगा सकते हैं। जैसे दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का “दर्शन सार" नामक एक ग्रन्थ है । इस में बहुत से जैन संघों की स्थापना बताई गई है। दर्शनसार में लिखा है कि षज्र. नन्दी ने मथुरा में द्राविड़ संघ की स्थापना की । "श्री मूल" नामक मूल संघ की देव, नन्दी, सिंह, सेन नाम की चार शाखाएं हुई, और
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( १२ )
उन चारों में द्राविड़ संत्र
को स्थान नई मिला । वज्रनन्दी ने एक एक विद्वान् ने तो द्राविड़
स्थापना की ।
स्वतन्त्र ही द्राविड़ संघ की संघ को नन्दी संत्र की ही शाखा माना है किन्तु मुझे उसकी युक्तियां - संतोष जनक प्रतीत नहीं होतीं । श्राप लिखते हैं कि "अर्धवली ने मूल संघ को चार संवों में विभक्त किया और द्राविड़ संघ को उसमें नहीं रखा : यदि द्राविड़ सम्प्रदाय प्राचीन होता तो इन चारों में अयश्य आता अतः यह बाद की स्थापना है ।"
यह युक्ति कोई सारपूर्ण प्रतीत नहीं होती। हो सकता है कि श्री मून संघ के साथ २ चले आते द्राविड संघ में कुछ सैद्धान्तिक मत भेद हों, जिन के कारण अर्धवली ने उसे अपने नवीन चार संघों में रखना उचित न समझा हो । श्रतएव चार संघों में द्राविड़ संघ का न रखा जाना उसकी प्राचीनता का वाधक नहीं है । अपने कथन की सिद्धि के लिये आप लिखते हैं कि "इरु गुलान्वय जिस में बड़े २ जैन गुरु हुए हैं और जिस का द्राविड़ संघ से महा सम्बन्ध था वह भी नन्दी संघ का ही भेद था" । इरु गुलान्वय को नन्दी संघ की शाखा मानने में हमें कोई श्रापत्ति नहीं, किन्तु दाविड़ संघ का इरु गुलान्वय से सम्बन्ध मात्र उसे नन्दी संघ की शाखा किसी सूरत में सिद्ध नहीं कर
सकता ।
११६० ईस्वी के रिकार्ड में जो द्राविड़ संघ के अनुयायी भूतवली, पुष्पदन्त, और समन्त भद्र श्रादि नाम श्राए हैं उन्हें द्राविड़ संघ के प्रचारक और उन्नति पथ पर लाने वाले मानना अधिक संगत मालूम होता है । द्राविड़ संघ से सम्बन्ध रखने वाले या उस के अनुयायी भद्रवाहु जिनका स्वर्गारोहण काल वीर संवत् १७० है उनको केवल लेखक ने उनकी स्मृति बनाए रखने के लिये लिख दिया है। ऐसी
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( १३ )
उपेक्षा करना भी नहीं ऊँचता । इस लिये द्राविड़ संघ को श्री मून से भी प्राचीन या उसके साथ २ चला पाता संघ मानने में कोई बाधा मालूम नहीं देती।
इस प्रकार जैन धर्म में द्राविड़ संघ की स्थापना से यह भलो प्रकार अनुमान लगाया जा सकता है कि द्राविड़ जाति की भी कोई ऐमी शाखा अवश्य थी जो जैन धर्मावलम्बी थी। या दूसरे शब्दों में प्राचीन द्राविड़ जाति में जैनधर्म का अस्तित्व भी द्राविड़ संघ की स्थापना में कारण हो सकता है।
जैन साहित्य के अतिरिक्त वैदिक साहित्य में भी कुछ उदाहरण इस सत्य के पोषक हैं । जैनधर्म के ग्रादि तीर्थंकर ऋषभ स्वामी माने जाते हैं। भागवत् पुराण में ऋषभ कों वैष्णवों का अवतार माना है
और इस में वर्णित ऋषम जीवन चरित्र जैन आदि तीर्थकर मे बिल्कुल मिलता जुलता है । इतनी समानता है कि कोई सदेह नहीं रह जाता कि ये दोनों वैदिक और जैन ऋषभ भिन्न हैं । भागवत् में ऋषभ के सौ पुत्रों के वर्णन में यह श्लोक आता है:
कविहरि रन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।
आविर्होत्रोऽथ द्रविडश्चमसः करभाजनः ।।
यहां द्रविड़ शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है । भगवान् ऋषभ स्वामी को हम आदि तीर्थङ्कर मानते हैं। उन के पुत्र का द्रविड़ नाम भी द्राविड़ जाति में जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध करता है । यद्यपि भागवत् पुराण में इन राजकुमारों की भागवत धर्म का प्रचार करने बाले बताया है किन्तु यहां उन्हें जैन दृष्टि से देखा जा रहा है । वैदिक
और जैन धर्म का उस समय पारस्परिक संघर्ष होने के कारण एक दूसरे के सिद्धान्तों को परिवर्तित करना स्वाभाविक है ।
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( १४ )
उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म श्रायाँ के ग्रागमन के पूर्व प्रचलित धमों में से एक है। यों के श्राने के पश्च त् भी इस ने उन से बराबर टक्कर ली और अपने उच्च सिद्धान्तों के बलपर फिर आर्य धर्म भी बन गया । समय श्राने पर कई बार यह भारत का राजधर्म भी बना। इस के उत्कट सिद्धान्तों ने ही इसे वैदिक और बौद्ध जैसे परिपन्थियों में जावित रखा | बुद्ध धर्म जैसे व्यापक राजधर्म भारत से लुमप्राय हो गए किन्तु जैनधर्म अपना अस्तित्व बनाये हुए है ।
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gaaaaalGGIIानना
श्वेताम्बर मत की प्राचीनता"s • এতেন্তোগ্রস্ত
जब किसी समाज, धर्म या सम्प्रदाय में अनेक त्रुटियां तथा न्यूनताएं अपनी अन्तिम सीमा पर पहुंच जाती हैं तो उन्हें सुधारने के लिये किसो सुधारक महापुरुष का जन्म होता है और वह अपने दृष्टिकोण के अनुकूल किसी नये धर्म या सम्प्रदाय को जन्म देता है। इस प्रकार अनादिकाल से प्रवाह रूप संसार में समय, परिस्थिति तथा वातावरण के परिवतन के कारण अनेक धर्म और सम्प्रदायों की उत्पत्ति होती रहती है। किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय की स्थिरता उस के सिद्धान्तों पर निर्भर है। यदि उस के सिद्धान्त समयानुकूल हैं और समाज के लिये उपयोगी है । तो उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि र स्थिरता निश्चित है। यदि उस के नियम समय विरुद्ध हैं तथा समाज को अवनति पथ पर लाने वाले है तो उन का अस्तित्व शीघ्र मिटने में कोई सन्देह नहीं हो सकता । यही कारण है कि ससार में अाजतक सैंकड़ों ऐसे धर्म या सम्प्रदाय उत्पन्न हुए जो अल्पकाल केलिये ही फले फूले और उत्तरोत्तर समय विरुद्ध होने के कारण वे ऐसे मिटते गए कि आज उन का नाम निशान भी नहीं रहा । जो समया. नुकूल थे तथा जिनकी नींव सत्य और सन्मार्ग पर रखी हुई थी वे अनेक प्रतिरोधों का सामना करते हुए अबतक अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं
और संसार को उन्नत पथ की अंर ले जारहे हैं | जैनधर्म भी उन्हीं महान धर्मों में से एक है । इस में भी यद्यपि उत्तरोत्तर अनेक सम्प्रदाय बनते जाते हैं परन्तु वास्तव में परंपरा से चले आते इस के दो ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १६ )
सम्प्रदाय हैं । एक श्वेताम्बर सम्प्रदाय और दूसरा दिगम्बर श्वेताम्बर का अर्थ है श्वेत वस्त्र धारी और दिगम्बर नग्न | इन दोनों में भी प्राचीनतर कौनसा है यह विषय विवादास्पद है । कई विद्वानों ने यत्र तत्र इस विषय पर अपने विचार प्रकट किये हैं । यह लेख भी इसी विषय पर प्रकाश डालने के हेतु लिखा गया है ।
कुछ विद्वानों का विचार है कि दिगम्बर सम्प्रदाय श्वेताम्बर सम्प्रदाय से प्राचीन है । कुछ विद्वानों के विचार से श्वेताम्बर सम्प्रदाय दिगम्बर सम्प्रदाय से प्राचीन है । दोनों मन्तव्य के लोग अपने २ दृष्टिकोण के अनुसार युक्तियाँ देते हैं। दोनों में सत्य कौन है इस विषय पर संक्षेप से प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जायगा ?
1
दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो शब्दों पर दृष्टि डालने से तो दिगम्बर ही प्राचीन मालूम होते हैं । जिस प्रकार प्रगतिवाद की दृष्टि से ग्रामीण सभ्यता नागरिक सभ्यता से प्राचीन ठहरती है क्योंकि नागरिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता का उत्तरोत्तर विकास है। ठीक इसी प्रकार विकासवाद की दृष्टि से दिगम्बर नम पहिले होने चाहियें और श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धारी बाद में । वस्त्र भूषणादि धारण करना ये नागरिक सभ्यता के चिन्ह है | वास्तविक विचार करने से उपर्युक्त युक्ति सार गर्भित प्रतीत नहीं होती । उदाहरण के लिये संस्कृत और प्राकृत शब्दों पर दृष्टि डालिये । प्राकृत भाषा से स्वाभाविक भाषा और संस्कृत से संस्कार की हुई भाषा ये अर्थ प्रतीत होते हैं इस से यह स्पष्ठ ज्ञात होने लगता है कि प्राकृत प्राचीन भाषा है और संस्कृत बाद की किन्तु वास्तव में यह बात असत्य है । साहित्यिक दृष्टिसे संस्कृत के वेदादि ग्रन्थ बहुत प्राचीन ठहरते हैं और आजकल उपलब्ध प्राकृत साहित्य उन से बहुत पीछे का है। इस के अतिरिक्त 'प्रकृतिः संस्कृतम्-ततः श्रागतम्
।
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( १७ )
प्राकृतम् इत्यादि प्रमाणिक विद्वानों की निरुक्तियों से भी संस्कृत प्राचीन और प्राकृत पीछे की ठहरती है। ठीक इसी प्रकार दिगम्बर
और श्वेताम्बर शब्दों से दिगम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता का अनुमान करना सत्य सिद्ध नहीं होता है ।
___ मेरे एक मित्र ऋग्वेद का प्रमाण देकर दिगम्बर सम्प्रदाय को बहुत प्राचीन सिद्ध करते हैं । उन की यह धारणा है कि उनकी युक्ति बड़ी ही प्रबल है। ऋग्वेद में एक ऋचा है जो इस प्रकार है:मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला । (१०/ १३६/ २) केशी केतस्य विद्वानत्सखा स्वादुर्मदिन्तमः । ( ./ १३६/६ ) अर्थात्- ‘ऐसे मुनि जिन की वायु ही कोपोन हो अर्थात् नग्न हो और शरीर पीली सी धूल में भरा हो ।
केशिन मैंने, सिर पर बड़े २ केशों वाला मुनि । जो उस के भावों को ममझता है उस का बड़ा ही प्रिय मित्र होता है।'
आप का कहना है कि ऋग्वेद में आया हुआ इस प्रकार का साधु का वर्णन जैन मुनियों का ही वर्णन हो सकता है क्योंकि जैन साघु पहिले नमावस्था में ही रहते थे। मेरे विचार में यह कल्पना भी कोई सार पूर्ण प्रतीत नहीं होती। जैन धर्म के अति रक्त अन्य किसी धर्म में नग्न साधु नहीं होते थे इस में कोई सत्य नहीं है। ऋग्वेद वैदिक सम्प्रदाय का प्राचीनतम एक प्रमाणिक और महत्वप्रद ग्रन्थ है। वैदिक सम्प्रदाय में भी नम साधु बड़े प्राचीन काल से चले आते हैं और अाजकल भी जहां उन' की संख्या सहस्रों में हैं वहां जैन दिगम्बर साधुओं की संख्या सारे भारतवर्ष में केवल चौदह पन्द्रह तक ही
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[ १८ ]
सीमित है । इस के अतिरिक्त वेद मन्त्रों में जो केशिन् शब्द अाया है । वह भी ध्यान देने योग्य है ! केशिन् का अर्थ है लम्बे २ बालों वाला। वास्तव में लम्बी २ जटाओं को धारण करने वाले जिन्हें हम आज भी महती संख्या में भारत के कई प्रदेशों में पाते हैं वैदिक सम्प्रदाय के ही साधु होने चाहिये, दिगम्बर जन के नहीं । दिगम्बर साधु विशाल केश धारी नहीं पाए जाते । अतः ऋग्वेद के मन्त्र से यह निर्णय करना कि श्वेताम्बर से दिगम्बर प्राचीन है सम्भव नहीं हो सकता !
वर्तमान जैनधर्म के लिये जो " जैन " शब्द प्रचलित हैं इस का प्रयोग भगवान् महावीर स्वामी के बाद में प्रयोग में आने लगा है। इस के पूर्व तीर्थकर धर्म' को “निग्गंठे पवयणे" अर्थात् निम्रन्य प्रवचन के नाम से पुकारा ज.ता था । महाराज अशोक के शिलालेखों में भी यत्र तत्र 'निग्गंठ' शब्द का प्रयोग पाता है। वहां 'निग्गंठ' से अभिप्राय जैन धर्म से ही है । कुछ विद्वान् निम्रन्थ का अर्थ वस्त्र रहित करते हैं और उससे यह सिद्ध करते हैं कि अशोक के समय में जो जैनधर्म प्रचलित था वह दिगम्बर जैन था क्योंकि दिगम्बर जैनियों की ही मूर्तियां तथा साधु नम पाए जाते हैं । इस प्रकार वे 'निम्रन्थ' शब्द की व्याख्या से दिगम्बर सम्प्रदाय को श्वेताम्बर सम्प्रदाय से प्राचीन सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। मेरे विचार से 'निम्रन्थ, शब्द का अर्थ उन्होंने ठीक नहीं समझा। 'निग्रन्थ' शब्द में "अधि" शब्द का अर्थ वास्तव में राग द्वेषादि ब-धन करना हो उचित जान पड़ता है। प्रात्मा को बन्धन में डालने वाले वास्तव में राग द्वेष ही है न कि बायोपकरण रूप वस्त्रादि । वस्त्रादि बाल परिग्रह को धारण करने वाले शरीर में स्थित श्रात्मा यदि रागद्वेष प्रादि से मुक्त हो जाय तो उसे प्रन्थि रहित समझना चाहिये । प्राध्यात्मिक मुक्ति के लिये ज्ञान की प्रावश्यकता है जिस के द्वारा रागद्वेषादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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शत्रुओं का नाश होता है । वस्त्रादि बाह्योपकरण अात्म धर्म में किसी प्रकार की भी बाधा नहीं डाल सकते। क्या वस्त्रादि . बाह्योपकरणों से दूर रहने मात्र से आत्मा कभी रागादि देषों से मुक्ति पा सकता हैं ? अाजकल भी हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहण हैं जहां वस्त्रादि बाह्योपकरणों के सद्भाव में भी पवित्रात्माएं छिपी मिलती हैं । और इस के विपरीत बाह्योपकरणों से हीन शरीरों में रागद्वेषादि से मलिन श्रात्माएं वर्तमान हैं । अतः अात्म धर्म में बाधक ज्ञान का अभाव हो सकता है वस्त्रादि का सदभाव या अभाव उस के लिये अपेक्षित नहीं । कितने आश्चर्य की बात है कि अाज विकासवाद के युग में भी कितने ही समझदार पुरुष इन बातों को इतना महत्व देते हैं । अस्तु, भेरे विचार से 'निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ रागद्वेषादि बन्धन मुक्त करना हो संगत है। इस प्रकार 'निर्ग्रन्थ' शब्द के आधार पर दिगम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध नहीं हो पाती। . देवसेनाचार्य कृत दर्शनसार नाम का एक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में एक श्लोक अाता है जिस के अाधार पर , कुछ विद्वानों ने दगम्बर मत को श्वेताम्बर मत से प्राचीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम संवत् ६०६ है। वह श्लोक इस प्रकार है :छतीस परिससए विकम रायस्स मरणपत्तस्स । सारह वलहीर उप्परणों सेवड़ो संघो ॥ श्लोक ५१ ।
अर्थात् विक्रम को मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश क वल्लभी पुर में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई।
इस से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि विक्रम की दूमरी सदी में ही श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई और उस
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(२०)
से पूर्ण दिगम्बर संप्रदाय ही परपरा से चला आता था। मेरे विचार से उपयुक्त दर्शनसार का उदाहरण के ई महत्व नहीं रखता क्योंकि इस प्रकार का एक उदाहरण श्वेतांबर ग्रन्थों में भी प्राता है। वह गाथा इस प्रकार है:छब्बास स. स्सेहिं नवुत्तरेहिं सिद्धिगयस्स वीरस्स । तो वोडियार दिट्ठी रहवीर पुरे समुपना। अर्थात्- वीर भगवान् के मुक्त होने के ६.६ वर्ष पश्चात् वोट्टिको अर्थात् दिगम्बरों का प्रवर्तक रथवी पुर में पैदा हुअा।
इस के अतिरिक्त दर्शनसार के उदाहरण के आधार पर यदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् मान ली जाए तो एक बड़ी अड़चन सामने आती है। महाराज अशोक के पश्चात् कलिङ्गाधिपति खार्वेल बना । वह जैन सम्राट थ । उदयगिरि और खण्डगिरि स्थित हस्तिगुरा नामक गुफा से जो खावेल का शिलालेख मिला है उम का सुयोग्य विद्वान् श्री के० पी० जयसवाल ने विवर्ण दिया है। इस लेख का समय ईस्वीसन् से १७० वर्ष पूर्व निश्चित् किया है। मम्राट खावेल किस प्रकार जैन साधुओं को अनेक प्रकार के कौशेय और श्वेतवस्त्र बांटा करते थे इसका इस शिलालेख में बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। यदि श्वेताम्बरों की उत्पत्ति विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुई होती तो खार्वेल का ईसा पूर्ण १७० में जैन साधुओं को श्वेत् तथा पह वस्त्र बांटना कैसे संगत हो सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि दर्शनसार की गाथा दिगम्बर मत की प्राचीनता को सिद्ध नहीं करती।
संसार में जितने भी उच्चकोटि के धर्म है प्रायः सब अध्यात्मिक दृष्टि से पुरुष और स्त्री को ममान अधीकारी समझते है । सब धर्मों के
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( २१ )
प्राचीन प्रमाणिक ग्रन्थों में पुरुष और स्त्री दोनों को ज्ञान के समान अधिकारी माना है। गत विश्व युद्ध से भी यह स्पष्ट है कि महिल एं जीवन क्षेत्र के किसी भी विभाग में पुरुषों से न्यून नहीं रही हैं । साहित्य, विज्ञान और राजनीति आदि क्षेत्रों में स्त्रियों ने ऐ। प्रवीणता दिखाई है जिसे किसी भी अंश में पुरुषों से कम नहीं कहा जा सकता। यद्यपि हमारे देश में स्त्री जाति को अबला बाति अथवा निर्बल जाति के नाम से पुकारा जाता है किन्तु संसार के इतिहास में स्त्री जाति के ऐसे वीरता के कारनामें मिलते हैं जिन के सामने पुरुष को भी सिर झुकाना पड़ता है। भारत के अति प्राचीन धर्म ग्रन्थों से भी यह स्पष्ट है कि स्त्री के पुरुष के समान ही अधिकार थे। यहां तक कि यज्ञ में भी पत्नी के बिना पति दीक्षित न हो सकता था। राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो सीता के अभाव में उस को स्वर्णमयी मूर्ति बना कर रखनी पड़ी। गार्गी की विद्वत्ता से विद्वान भली भान्ति परिचित हैं । इस प्रकार वैदिक धर्म ग्रन्था में स्त्री का स्थान कर्मकाण्ड तथा ज्ञानादि क्षेत्रों में समान है। प्राचीन उपलब्ध शिलालेखों ताड़ पत्र लिखित ग्रन्थों और सिक्कों आदि के श्राधार पर बो गवेषणा हुई है उस से यह स्पष्ट है कि वैदिक धर्म अनेक सदियों से भारत का व्यापक धर्म रहा है । इतने महान् और व्यापक धर्म के साथ २ चलना और अपना संघर्षमय जीवन बिताना एक ऐसे हो धर्म के लिये सम्भव हो सकता है जिस के सिद्धान्त या तो अपने प्रतिद्वन्दी के मुकाबले के हों या किसी दृष्टि में उस से भी उत्कृष्टता रखते हों । मेरे विचार में यदि जैन धर्म प्राचीन काल में स्त्री को ज्ञानक्षेत्र में पुरुष के समान अधिकारिणी न मानता तो वैदिक विद्वान् उसकी ऐसी खिल्ली उड़ाते और उसका ऐसा खण्डन करते कि श्राज उसका
अस्तित्व भी शायद कठिनता से रह पाता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २२ )
समय परिवर्तन के साथ २ संसार की परिस्थिति सदा बदलती रहती है। जो जाति, धर्म वा सम्प्रदाय अपने को समय के अनुकूल बना लेता है वही अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है । जिस में समयानुकूल परिवर्तित होने की शक्ति नहीं है उसका मिट जाना स्वाभाविक है । किन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि श्राब के वैज्ञानिक और विकासवाद के युग में भी कितने पठित व्यक्ति भी पुरानी अन्धपरम्परा के रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं । अस्तु, मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि अन्य धर्मों की तरह जैन धर्म में भी स्त्री को पुरुष के समान ही ज्ञान की अधिकारिणी माना है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अनेक साध्वयें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
जैन धर्म के सिद्धान्त बड़े विशाल और महत्वपूर्ण है। जैन धर्म मनुष्य मात्र को चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो मंत्र का अधिकारी मानता है । जैन धर्म को विशालता देखने के लिये श्री हेमचन्द्राचार्य का अधोलिखित लोक ध्यान देने योग्य है । बत्र श्राचार्य जी वैदिक मत के देवता भगवान् सोमनाथ के मन्दिर के तानने श्राए तो उन्हों ने कहा
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नमस्तस्मै ॥
भत्र बोजांकुर जननाः रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु हरो जिनो वा अर्थात् संसार में उत्पत्ति के मूल कारण रागादि जिसके नष्ट हो गए है ऐसा देवता चाहे उसका नाम ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन हो उसको मैं नमस्कार करता हूं । इतनी विशालता रखने वाला जैन धर्म स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणी न मानता यह संभव नहीं । अतः उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणो न मानने वाला दिगम्बर मत बाद का है और श्वेताम्बर जैन उस से प्राचीन है ।
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श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों से यह स्पष्ट है कि वीर निर्वाण संवत् ६८० विक्रम संवत् ५१० ) के आस पास जैन संघ वल्लभीपुर में देवर्धि गणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में एकत्रित हुआ। अब तक जो शास्त्र य ज्ञान प्राचीन परम्परा से बिखरा पड़ा था उस का कई कारणों से लोप होना भी प्रारम्भ हो गया था । उस का विस्तार रूप से फैनाव सर्वथा संभव न था । अतः संघ का ध्यान इस ओर गया कि श्रागम और अन्य साहित्य को एकत्र ग्रथित करना परमावश्यक है । ऐना करने से यह ज्ञान भविष्य के लिये सुचारु रूप से सुरक्षित भी रह सकता था और इस का सार्वत्रिक प्रचार भी पूर्ण रूप से हो सकता था । अतः सत्र की अनुमति से बिखरे हुए श्रागम तथा अन्य साहित्यिक ज्ञान को एकत्र ग्रथित किया गया !
दिग् म्बर सम्प्रदाय का साहित्य इस साहित्यके बहुत पश्चात् लिखा गया है । हबत नं.चे लिखे उदाहरण से स्पष्ट है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मन्तव्य के अनुसार जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थकर पहिले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से आए पश्चात् इन्द्र की आज्ञा से हरिनेगमेसा देवता ने उन्हें क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में रखा । यह वर्णन कई श्वेताम्बर ग्रन्थों में आता है इसका विस्तार पूर्वक वर्णन पढ़ना हो त! पाठक कल्पसूत्र में पढ़ सकते हैं । दिगंबर संप्रदाय के ग्रन्थों में इस प्रकार की घटना का कहीं उल्लेख नहीं और न ही दिगंबर लोग इस बात को मानते ही हैं | श्वेतांबरों के मत की प्रमाणिकता के लिये मथु के कंकाली टीले से एक शिला मिली है जिस पर भगवान् महावीर स्वामी के गर्भ हरण का बड़ा सुंदर चित्र खुदा हुआ है । लिपि तत्व के धुरंधर विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह शिला लेख ईस्वी सन् से एक शताब्दी पहले का खुदा हुआ है । इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्वेतांबर साहित्य को प्राचीनता भी श्वेतांबर सम्प्रदाय की प्राचीनता पर बड़ा
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प्रकाश डालती है। उपयुक्त उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि विक्रम संवत ५१० के लगभग वल्लभी पुर में जिम ज्ञान को ग्रथित किया गया था वह प्राचीन परंपरा से चला आता ज्ञान है। अतः साहित्यिक दृष्टि से भी श्वेतांबर सम्प्रदाय दिगंबर संप्रदाय से प्राचीन ही सिद्ध होता है ।
इस प्रकार दिगवर शब्द के अर्थ से ऋग्वेद की ऋचा से, निग्रन्थ शब्द की परिभाषा से, दर्शन सार के उद्धरण से और साहित्यक दृष्टि से तो श्वेतांबर सम्प्रदाय से दिगंबर संप्रदाय प्राचीन नहीं ठहरता । श्वेताँबर ही दिगंबर से प्राचीन सिद्ध होता है। हां, भविष्य में होने वाली नई गवेषणात्रों से यदि दिगंबरों की प्राचीनता को प्रमाणित करने वाले और नए कुछ प्रमाण मिल जाएं तो दूसरी बात है। यह लेख केवल गवेषणात्सक दृष्टि से लिखा है, सांप्रदायिक दृष्टि से नहीं । यदि अब भी ऐसे अकाटय प्रमाण मिल सके जिनसे दिगंबर श्वेतांबरों से अधिक प्राचीन सिद्ध होते हो तो भी मेरे लिये कम प्रसन्नता की बात नहीं।
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जैन धर्म और राजनीति komcxc:MAASEc
वैदिक, जैन और बौद्ध ये तीनों धर्म बहुत प्राचीन काल से साथ २ चले आते हैं। यों तो तीनधिर्मों के प्राचार्यों ने 'अहिंसापरमोधर्मः' अर्थात् अहिंसा ही मानव का महान् धर्म है इस सिद्धान्त को अपने २ दृष्टिकोण से उचित स्थान दिया है किन्तु जैन धर्म में अहिंसा का सिद्धान्त अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुका है। अहिंसा का अतिरूप चाहे श्राबकल के समय के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल उस से यहां कोई मतलब नहीं है । मैं यह बात अवश्य दावे के साथ कह सकता हूं कि अहिंसा का वास्तविक, तात्विक या शुद्ध स्वरूप देखना हो त। जैन धर्म में ही मिल सकता है । जैनधर्म में हिंसा दो प्रकार की मानी गई है, द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा । द्रव्यहिंसा का सामान्य अर्थ है किसी जीव को प्राणों से विमुक्त करना या दूसरे शब्दों में उसे मारना। भावहिंसा वह होती है जिस में विचार से किसी जीव का अनिष्ट किया जाता है। द्रव्यहिंसा का निषेध तो अन्य धर्मों के धर्मग्रन्थों में भी अपने २ दृष्टिकोण से उचित रूप से ही किया गया है किन्तु भाव हिंसा को जितना महत्वप्रद स्थान जैन धर्म ग्रन्थों में दिया है उतना अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। जैन शास्त्रों में भावहिंसा का सूक्ष्मस्वरूप नीचे दिये उदाहरण से पाठकों को स्पष्ट हो जाएगा।
विक्रम् को ११ वीं शताब्दी में गुर्जर प्रान्त के पान नगरमें राजा कुमार पाल राज्य करता था। पहिले वह कुल परंपरागत वैष्णव धर्म
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का अनुयायी था और बाद में उस ने तत्कालीन प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री हेमचन्द्राचार्य के प्रभाव में आकर जैनधर्म को स्वीकार किया । जैनाचर्य ने राजा कुमारपाल को जैनधर्म की भनी भांति शिक्षा द और उस से मांसाहार का त्याग करवाया । वह जैनधर्म के सिद्धान्तों से इतना प्रभावित हो गया था कि वह वास्तव में अपना जीवन उन के अनुकूल ही बनाने लग गया था। एक दिन वह बड़ा उदास मन होकर गुरुदेव के चरणों में पाया और प्रायश्चित की प्रार्थना करने लगा। गुरुदेव ने पूछाः- प्रायश्चित कौन से अपराध के लिये करना चाहते हो १ राजा कुमार पाल ने कहा कि श्राब मैंने अपने आहार में ढिंगरी या खुम्बों की सब्जी खाई । उस ढिंगरी की सब्जी को दांतों से चला रहा था तो मुझे पूर्वअनुभूत मांस का सा स्वाद आने लगा और मेरी रुचि परित्यक्त मांस की ओर गई । अतः यह मानसिक या भावहिंसा थी। और मैं उस के निवारण के लिये प्रायश्चित करना चाहता हूं। प्राचार्य ने कहा:- हां इस प्रकार की भावमयी या मानसिक हिंसा के लिये अवश्य प्रायश्चित करना होगा। और इस का प्रायश्चित यहो है कि तुम एक पत्थर का टुकड़ा लेकर स्वयं अपने हाथ से अपने दांतों को तोड़ डालो। श्राज्ञा पाते ही कुमारपाल ने झर दातों को तोड़ने के लिये पत्थर उठाया किन्तु वह प्रहार करने को हो या कि गुरुदेव जी ने झर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा:- प्रायश्चित हो मया है । तुम ने वास्तविक हिंसा या द्रन्य रूप हिंसा नहीं की किन्तु भाव रूप में की थी। अब तुम ने अपने दांतो को तोड़ने का हद निश्रय कर लिया है अतएव इस भावमयी अहिंसा से उस भावहिंसा का निवारण हो गया है।
उपर्युक्त उदाहरण से पाठकों को भली भान्ति स्पष्ट हो गया होगा जैक जैनधर्म में अहिंसा कितनी चरम सीमा तक पहुंची हुई है।
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द्रव्य हिंसा के तो अनेक सुन्दर उदाहरण आप को वैदिक और बौद्ध धर्म ग्रन्थों में भी मिल जायगे किन्तु भाव हिंसा के इस प्रकार के उदाहरण अन्यत्र कम ही देखने में आते है। जैन धर्म मन, बाणी, और कर्म इन तानों से हिंसा के परित्याग की शिक्षा देता है।
जैन धर्म में "अहिंसा परमो धर्मः" के सिद्धान्त को अतिरूप में देखकर कई लोगों के मन में ये शंकाएं उठा करती है कि यदि जैनियों के हाथ में किसी देश का राज्य सौंप दिया जाए तो निस्संदेह वहाँ अराजकता के सिवाय और क्या हो सकता है। जो लोग कीड़ी को मारना आप समझते हैं वे दड प्रधान राज्य को कैसे चला सकते हैं। जैनी राजा किसी प्रकार की भों हिंसा करने के लिये तैयार न होगा और राज्य का चलाना हिंसा के बिना सर्वथा असंभव है। प्रजा में चोर, लुटेरे; धूर्त, और आतताहयों का कुछ संख्या में होना स्वभाषिक है और उन को दबाने केलिये हिंसा का प्राश्रय भो अनिवार्य है । इस के अतिरिक्त कोई बलवत्तर विदेशी राजा यदि चढ़ाई कर दे तो वह सहज ही में जैन राजा को अपना गुलाम बना सकता है और साथ २ उस की प्रजा को भी। बैनी राजा कभी भी हिंसा के भय से शत्रु से युद्ध करना पसंद न करेगा । हिंसा से वह परतन्त्रता को अच्छी समझेगा इस लिये जैनधर्म कायरों का धर्म है। भारत वर्ष में इस धर्म के अनुयायी भी प्रायः बनिये या वैश्य है । वैश्य जाति कभी भी वीरता के लिये प्रसिद्ध नहीं रही उल्टा कायरता का कोई दृष्टान्त देना हो तो ज़रूर लोग वैश्य जाति से देते है। .
इस प्रकार के विचार रखने वाले सन्जनो के लिये सर्व प्रथम मैं यह बताना चाहता हूं कि बैन धर्म अनन्त परंपरा से वास्तव में
क्षत्रियों का ही धर्म रहा है। यही कारण है कि जैन धर्म में क्षत्रिय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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माना है। जैन धर्म के त र्थङ्कर भी क्षत्रिय । जैसे २ जैन धर्मावलम्बियों पर हिंसा अन्य कृषि आदि कर्मों को
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बर्ण को ही सब से बड़ा वर्ण वर्ण में ही वतृत होते रहे हैं के सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया वे छोड़ कर वाणिज्य की ओर झुकते गए क्योंकि बाणिज्य में अन्य व्यवसायों की अपेक्षा हिंसा कम होती है । वाणिज्य के प्रभाव से वे बड़ी संख्या में पू ंजीपति बनते गए पूंजी के प्रभाव से उनमें विलास प्रियता भी श्रा गई और विलास प्रियता के आने से जैसा अकसर लक्ष्मी का प्रभाव होता है उनसे वोरता के भाव भी नष्ट होने लग गए । इस प्रकार कई सदियों के निरन्तर वाणिज्य व्यवसाय के प्रभाव के परिणाम स्वरूप आज वे शुद्ध वैश्यों के रूप में हमारे सामने वर्तमान है । अतः आज की जैन समाज में यदि वीरता के अंश की कमी है ता उसके लिये जैन धर्म को या जैन धर्म के सिद्धान्तों को दोष युक्त नहीं ठहराया जा सकता । महात्मा बुद्ध का यदि कोई अनुयाया हिंसक हो तो इससे महात्मा बुद्ध को या बुद्ध धर्म को दोषी नहीं ठहराया जा सकता । मेरा तो यह विश्वास है कि प्रत्येक धर्म का संस्थापक या सुधारक उच्च कोटि के सिद्धान्तों को ही अपने अनुयायि के सामने रखता है । किन्तु देश काल और परिस्थितियों के कारण यदि उन सिद्धान्तों में परिवर्तन आ जाता है या उस धम के अनुयाया उन सिद्धान्तों में अपने दृष्टिकोण के अनुसार परिवर्तन कर लेते हैं तो इसमें किसी संस्थापक या सुधारक का दोष नहीं होता ।
राज्य की, अराजकता की और इस प्रकार की बातें वही लोग कर सर्वथा श्रनभिज्ञ हैं । जैन शास्त्रों कहानियें और जीवनियें मिनती
अब रही बात जैन राजा के उसकी शत्रु द्वारा सहज दासता की। सकते हैं जो जैन शास्त्रों के मन्तव्य से में अनेक चक्रवर्ती जैन राजाओ की हैं । जैन राजा हिंसा को उचित स्थान देते
हुए
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भी सुचारु रूप से
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( २६ )
र.ज्य का प्रबन्ध चलाते ये और पूर्ण शक्ति से शत्रु का सामना करके देश की रक्षा करते थे। यहां जैन शास्त्रों में पाए चक्रवती जैन राजाश्र के जीवन से कई उदाहरण लिखे जा सकते है किन्तु अाधुनिक विचार के विद्वान् उन्हें पौगणिक कथाएं कह कर अबहेलना कर देंगे । अतः ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दृष्टि से जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकत ऐसा उदाहरण देकर ही पाठकों को जैन धर्म में राज सत्ता का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न किया जायगा।
जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध धर्म में राजनीति पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं इसी प्रकार जैन धर्म भी जब उन्नति के शिखर पर था तब इसके विद्वानों ने भी राजनीति विषय पर ग्रन्थ लिखे थे। जैसे २ जैन राजसता उठतो गई जैन राजनैतिक साहित्य का महत्व भी कम होता गया और वह दिन प्रति दिन लुप्त होता रहा । विक्रम की ११ वीं शताब्दी तक केवल "अहनीति शास्त्र" के उदाहरण यत्र तत्र बिखरे मिलते थे । अभी तक यह पता नहीं चल सका कि जैन राजनीति पर लिखे इस ग्रन्थ का कर्ता कौन था । इस शास्त्र का पता भी हमें हेमचन्द्राचार्य कृत "लघ्वहनीति" नामक ग्रन्य से लगता है | कुमारपाल राजा ने अपने गुरु श्री हेमचन्द्राचार्य से यह प्रार्थना की कि वे जैन राजनीति पर छोटा सा अन्य तैयार करें। इस पर हेमचन्द्राचार्य ने "लघ्वहनीति" नामक ग्रन्थ की रचना को । इस प्रन्थ के मंगलाचरण के बाद लिखा है:कुमारपालश्मापालाग्रहेण पूर्व- निर्मितात् । अहंन्नीत्यभिधाच्छास्त्रात् सारमुदधृत्य किंचन ॥ १/६ भूप प्रजा हितार्थ हि शीघस्मृति विधायकम् । लधहनीति सच्छास्त्रं सुखबाधं कराम्यहम् ॥ १७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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[ ३० ।
अर्थात्- राजा कुमारपाल के अाग्रह से प्राचीन काल से चले आते अईनीति नामक शास्त्र से कुछ सार लेकर राजा और प्रजा दोनों के हित के लिये शीघ्र स्मण होने योग्य लध्वहनीति नाम के शास्त्र की रचना करता हूं। उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैनराजनीति पर शास्त्र प्राचीन काल से चला आता था किन्तु वह उत्तरोत्तर लुप्त होता गया। अब तो वह बिल्कुल लुप्त हो चुका है। इस के केवल कुछ उद्धरण यत्र तत्र लघ्वहनीति में विखरे मिलते हैं । जैसे:इति संक्षेपतः प्रोक्तः ऋणदान क्रमो ह्ययम्। विस्तारो बृ दहनीति शास्त्र वर्णितो भृशम् ॥
ऋणदान प्रकरण पृ. ६६. एव देय विधिः प्रोक्तः सभेदो विस्तरेण वै । महाहनीति शास्त्राच ज्ञेयस्त दभिलाषिभिः ॥
देय विधि प्रकरण पृ० १०६. लध्वनीति में जैन राजनीति के विषय संक्षेप से वर्णन किये हुए हैं । जहां विस्तार की बात आती है वह लिख दिया गया है कि यदि विस्तार से देखना हो तो वृहदहनीति शास्त्र से देख सकते हैं।
लघ्वहनीति में लिखा है कि जैन धर्म के श्रादि तीर्थकर भी ऋषभ स्वामी के पूर्व भी नीति शास्त्र का प्रभाव न था किन्तु कलयुग के प्रभाव के कारण वह लुप्त प्रायः हो गया था । नीति शास्त्र के लुप्त होने पर सामाजिक शिथिलता बढ़ने लगी और लोग बड़े दुखी हो गए। लोगों के कल्याण के लिये ऋषभ स्वामी ने नीति शास्त्र को पुन: उज्जीवित किया इस कारण ऋषभ देव को नीति शास्त्र का प्रवर्तक माना जाता है। लघ्वहनीति में लिखा है कि लोगों को सामाजिक मर्यादा में बांधने के लिये अषभ देव ने कुछ मर्यादाएं स्थापित की।
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[ ३१ ]
जसे: - ( १ ) वर्णाश्रम विभाग । (२) संस्कार विधि । (३) कृषि वाणिज्य शिल्प विधि | ( ४ ) व्यबहार विधि । (५) राजनीति मार्ग । (६) पुरपट्टन विधि । (७) विद्या । (८) क्रिया लौकिक तथा पारलौकिक ।
आदि पुराण के तीसरे पर्व में श्री जिन सेन ने भी श्री ऋषभ देव को ही नीति शास्त्र का प्रवर्तक लिखा है । श्रादिराज ऋषभ देव ने कर्म को छः भागों में बांटा । (१) युद्ध । (२) कृषि । (३) साहित्य | (४) शिल्प ( ५ ) वाणिज्व । (६) व्यवसाय । ग्राम और नगर की पद्धति भी उन्हों ने चलाई । दण्डशाला और बन्दिशाला का प्रारम्भ भी उन्होंने ही किया । मनुष्यों में वर्ण व्यवस्था की मर्यादा भी उन्होंने चलाई। इससे यह स्पष्ट है कि जैनियों की स्वतन्त्र राजनैतिक मर्यादा उनके आदि तीर्थंकर ऋषभ देव से ही चली आती रही किन्तु जब जैन राजसत्ता समाप्त हो गई तो जैन राजनीति शास्त्र भी उत्तरोत्तर लुप्त होता गया और अन्त में स्थिति यहां तक पहुँची कि वे वैदिक नीति से ही शासित होने लगे ।
यदि जैन राजनीति और वैदिक राजनीति में तुलना की जाय तो बहुत सी बातों में सर्वथा समानता पाई जाती है और बहुत सी सर्वथा एक दूसरे से भिन्न हैं । उदाहरण के लिये समानता देखिये:अनित्यो विजयो यस्मादृश्यते युद्धयमानयोः ।
पराजयश्च सप्रामे तस्माद्ध विवर्जयेत् ॥
मनु० ० ७ श्लो० १६६. अर्थात्ः - युद्ध करने से पूर्व यदि किसी राजा को विजय में सन्देह हो और पराजय निश्चित हो तो ऐसी स्थिति में युद्ध का परित्याग करना चाहिये ।
हेमचन्द्राचार्य का भी ठीक ऐसा हो मन्तव्य है जैसे:
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[ ३२ ]
संदिग्धो विजयो युद्धेऽसंदिग्धः पुरुषक्षयः । सत्स्वन्येष्वित्युपायेषु भूपो युद्धं विवर्जयेत् ॥
लघ्व० पृ० २७ लो० २०. अर्थात्ः -- यदि युद्ध में विजय होने का सन्देह हो और जन संहार स्पष्ट दिखाई देता हो तो दूसरे उपायों को काम में लेकर युद्ध का परित्याग
श्रेयस्कर है।
" पुरुषक्षयः " से पाठक भलीभान्ति समझ सकते हैं कि हेमचन्द्राचार्य ने राजनीति में भी अहिंसा को कितना ऊँचा स्थान दिया है ।
कूट युद्ध के लिये वैदिक राजनीति की तरह जैन राजनीति भी विरुद्ध है । जैसे:
न कूटैरायुधैहन्यात् युध्यमानो रणे रिपून् । न कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलित तेजनैः ॥
मनु० अ० ७ श्लो० ६० । अर्थात्ः संग्राम में कूट शस्त्रों से, जलते हुए अग्नि कर्णिका के सदृश फल बाले, विष से, बुझे हुए तथा जलते हुए अग्निबाणों से शत्रु को कभी न मारे ।
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ध्वनी में इसी प्रकार का एक श्लोक है:नातिरूत्तै विषाक्तैर्न नैव कूटायुधैस्तथा । दृषन्मृदादिभिर्नैव युध्येत् नाग्निता, पतैः ॥
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पृ०० इष रेलों० ५६। अर्थात्ः - श्रत रूखे, विष से बुझे हुए श्री अग्नि में तपीए हुए श्रादि कूट शस्त्रों से युद्ध न करे !
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लवई नीति में दंड देने के लिये दस स्थान बताए
(१) उदर । (२) उपस्थ । (३) जिल्हा । (४) हा । (५) कान (६) धन । (७) देह । (८) पाद । (६) नासा । (१०) चक्षु । इनमें से
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[ ३३ ]
एक तो अशारीरिक दंड है जैसे धन और अन्य नौ शारीरिक दण्ड हैं। वहां लिखा है कि दंड देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जिस अंग के द्वारा अपराध किया गया हो उसी का निग्रह करना श्रावश्यक है दूसरे का नहीं।
ठीक इसी प्रकार का मन्तब्य मनु जी का भी है। जैसे:
येन येन यथांगेन स्तेनो नृषु विचेष्टते । तत्तदेव हरेत्तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः ।।
___ मनु० अ०८ श्लो० ३३८. चौर दूसरे की वस्तु जिस २ अंग से चुरावे राजा उस के उस अंग को कटवा डाले जिस से कि फिर कभी चोरी न कर सके ।
___ यहां पर लिखना अप्रासंगिक न होगा कि जैन धर्म ग्रन्य स्थानाङ्ग सूत्र में दण्ड नीति के सात प्रकार बताए हैं (१) हक्कारे । (२) मक्कारे । (३) धिक्कारे । (४) परिभासे । (५) मण्डलीबन्धे । (६) कारागारे । (७) छविच्छेदे।
छविच्छेद वा अंगच्छेद एक ही बात है। अतः अंगच्छेद दण्डनीति का सातवां प्रकार है। ठीक स्थानाङ्ग के समान ही लघ्वहन्नीति भी सात प्रकार के दण्डों का वर्णन करती है। जैसे:- (१) हाकार, (२) माकार, (३) धिक्कार, (४) परिभाषण, (५) मण्डलबन्ध, (६) काराक्षेपण, (७) अङ्ग खण्डन ।
इसी प्रकार वर्णव्यवस्था की स्थापना में भी वैदिक और बैन धर्म समान हैं । ऋग्वेद की ऋचा के अनुसार:'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् , बाहु राजन्यः कृतः ।' उरू तदस्य यद्वश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत् ।।
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[ ३४ ]
ब्रह्मा ने मुख से ब्राह्मण की, भुजात्रों से क्षत्रिय की, उरू से वैश्य की और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति की। जैन मन्तव्य भी इस के साथ प्रायः मिलता जुलता ही है। जैन धर्म के आदि पुराण के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने हाथ में तलवार पकड़ कर क्षत्रियकी, उरू से चलने का संकेत करके वैश्य की और चरणों से शूद्र की उत्पत्ति की । ब्राह्मणों की उत्पत्ति बाद में ऋषभ स्वामी के पुत्र भरत ने शास्त्र पढ़ाते हुए मुख से की।
जैन धर्म में वर्णव्यवस्था प्रारम्भ से कर्म से मानी जाती है किन्तु वैदिक धर्म में विशेष जोर जन्म से वर्ण व्यवस्था मानने पर दिया है । यद्यपि वैदिक धर्म ग्रन्थों में ऐसे भी अनेक प्रमाण हमारे सामने हैं जिन से वर्ण व्यवस्था कर्म से सिद्ध होती है किन्तु व्यापक रूप से जन्म से ही वर्णव्यवस्था प्रचलित रही है। मेरे विचार में जैन शास्त्रों में प्रतिपादित कर्म वर्ण व्यवस्था का परित्याग कर श्राज की जैन समाज जो व्यापक रूप में जन्मगत वर्ण व्यवस्था को मानने लगी है यह जैनियों पर वैष्णवधर्म का ही प्रभाव है।
इसी प्रकार शत्रु पर चढ़ाई करने के समय के विषय में भी प्रायः दोनों एक मत ही हैं । जैसे:मार्गशीर्षे शुभे मासि यायाद्यात्रां महीपतिः । फाल्गुनं वाऽथ चैत्रं वा मासौ प्रति यथा बलम् ।।
मनु० अ० ७ श्लो० १८२. अर्थात् पवित्र अगहन के मास में राजा युद्ध की यात्रा करे अथवा जैसी अग्नी सामर्थ्य हो उस के अनुसार 'फाल्गुण अथवा चैत्र के महीने में शत्रु के राज्य पर आक्रमण करे ।
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( ३५ )
अन्येष्वपि तु कालेषु यदा पश्येद् ध्रुवं जयम् । तदा यायाद्विगृह्य व व्यसने चोत्थिते रिपोः ॥
मनु० अ० ७ श्लोक १८३ अर्थात्:- राजा जब अपनी जीत निश्चय जाने तथा जब देखे कि शत्रु इस समय विपत्ति में फंसा है तब वह अन्य किसी महीने में युद्ध के लिए यात्रा करे।
अब पाठक ज़रा जैन राजनीति की ओर ध्यान दें:सुमुहूर्ते सुशकुने मार्गादौ मास सप्तके । युद्धं कुर्वीत राजेन्द्रो वीक्ष्य काल बलाबलम् ॥
लघ्व० पृ० २६ श्लोक ३३ अर्थात्:- अच्छे मुहूर्त में अच्छे शकुन होने पर मार्गशीर्षादि पाठ महीनों में अच्छा समय देख कर युद्ध के लिये प्रयाण करना चाहिये ।
यहां पर भी श्रावण, भाद्रपद, पाश्विन और कार्तिक इन चार 'महीनों में युद्ध यात्रा का निषेध कर के अहिंसा धर्म की ओर कितना ध्यान रखा गया है।
इसी प्रकार जैन राजनीति धर्म युद्ध के पक्ष में होते हुए भी यह कहती है किःशत्रावन्याय निष्टतु कर्तव्यं यथोचितम् ।
लघ्व० पृ० ३६ श्लोक ६. अर्थात् शत्रु यदि अन्याय पर तुला हो तब तो उस के साथ युद्ध अवश्य करना चाहिये।
इसी प्रकार दुष्टों को दंड देने के लिये और साधुत्रों के पालन के लिये भी वैदिक और बैन मन्तब्य एक ही है । जैसे:
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( ३६ )
निग्रहेण तु पापानां साधूनां संग्रहेण च । द्विजातय इवेज्याभिः पूज्यन्ते सततं नृपाः ।।
मनु० अ०८ श्लोक ३११ अर्थात्:- जिम प्रकार द्विज यज्ञों द्वारा पवित्र होते हैं उसी प्रकार राजा लोग पापियों को दंड देने तथा साधुओं की रक्षा करने से पवित्र हुश्रा करते हैं।
इस से मिलते जुलते लघ्वहनीति के उदाहरण पर पाठक जरा दृष्टि डालें:शिष्टानां पालनं कुर्वन् दुष्टानां निग्रहं पुनः । पूज्यते भुवने सर्वैः सुरासुर नृयोनिभिः ॥
__ लव. पृ० २२१ श्लोक ६. अर्थात्:- सज्जनों का पालन करने और दुष्टों का निग्रह करने वाले राजा लोग संसार में देव, राक्षस और मनुष्य सब के द्वारा पूजे जाते हैं।
बाल, अातुर और वृद्ध ये तीनों मनु और हेमचन्द्राचार्य दोनों की दृष्टि में क्षन्तव्य हैंक्षन्तव्यं प्रभुणा नित्यं क्षिपतां कार्यिणां नृणाम् । बालवृद्धातुराणांव कुर्वता हितमात्मनः ॥
मनु० अ० ८. श्लोक ३१२. अपना कल्याण चाहने वाले राजा तथा कार्यार्थी, बालक, वृद्ध तथा रोगी इन के द्वारा होने वाली निन्दा को क्षमा करता रहे । बालातुरातिवृद्धानां क्षन्तव्यं कठिनं वचः ॥
. लघ्व० पृ० २२१. श्लोक ६. अर्थात्:- बालक रोगी और अतिवृद्धों के कठिन वचन को भी क्षमा कर देना चाहिये।
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( ३७ )
उपर्युक्त कुछ उदाहरणों से पाठकों को भलीभाँति पता चल गया होगा कि बहुत सी बातों में वैदिक और जैन दोनों का राजनीति के नियमों में एक ही मत है। अन्य भी बहुत से विषयों पर दोनों मतों में समानता है, किन्तु यहां तो विस्तार भय से थोड़े से उदाहरण दिये गए हैं।
अब कुछ एक ऐसे उदाहरण दिये जाते हैं जिनसे पाठकों को पता चलेगा कि बहुत से विषयों पर जैन और वैदिक मत में विचार भिन्नता है। उन उदाहरणों से पाठकों को यह भी पता चलेगा कि जैन राजनीति किस प्रकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए थी और किस प्रकार उस के अनुयायी उस पर अमल करते थे । जैनराजनीति में सब से बड़ी विशेषता हमें यह मिलती है कि उचित दण्ड के विधान के साथ २ 'अहिंसा परमोधर्म.' के सिद्धान्त की उपेक्षा नहीं की गई। जैन राजा के दण्ड में कटुता के साथ २ दया के माधुर्य का अंश भी हमें मिलता है।
लघ्वहनीति में लिखा है कि स्त्री, ब्राह्मण या तपस्वी इन से कोई बड़ा भारी अपराध भी हो जाय तो भी इनका न तो कोई अंग च्छेद ही करवाना चाहिये और न ही उनको मृत्युदण्ड ही देना चाहिये। देश से बाहिर निकालना ही इन के लिये पर्याप्त है ! इस के विपरीत मनु बी ने लिखा है:
गुरु वा बालवृद्धं वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । श्राततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।।
मनु० अ०८. श्लो० ३५०. अर्थात् - यद गुरु, बालक, वृद्ध अथवा बहुत शास्त्रों का जानने
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( ३८ )
वाला ब्राह्मण भी याततायी बन कर आवे तो बिना विचारे ही उसे मार डाले।
जैन राजा न्याय मार्ग में स्थित रहते हुए दण्ड तो प्रत्येक अपराधी को देना उचित समझते हैं किन्तु अहिंसा धर्म को सदा दृष्टि में रखते हुए वध के स्थान में उसे देश निकाला देना अच्छा समझते हैं। मारने की अपेक्षा अपराधी को ऐसा दण्ड देना जिस से वह जीवित रह कर आनन्म पश्चात्ताप करता रहे अधिक अच्छा है। श्रपराधो को मार कर नष्ट करने से कोई महत्व नहीं किन्तु उस को ऐसी परिस्थिति में रखना जिस से वह अपनी भूल को समझ सके उस के लिये प्रायश्चित्त कर सके और पुनः एक सच्चरित्र मागरिक बन सके, अधिक अच्छा है । विगड़ी मशीनरी को नष्ट तो हर एक ही कर सकता है किन्तु उस के पुरजों को ठीक कर पूर्ववत् चला देने वाले का ही गौरव होता है । श्राज का सभ्य संसार भी इस सत्य को भलीभाँति समझने लगा है और उसी का यह परिणाम है कि बहुत से पाश्चात्य देशों में अपराधियों को मृत्यु दण्ड का विधान रोक दिया गया है। जैन राजनीति में भी मृत्यु दण्ड का सर्वथा अभाव नहीं है किन्तु दूसरे कठिन दण्डों के सद्भाव में इसका त्याग अधिक अच्छा माना जाता है ।
वैदिक राजनीति के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अनपत्य मर जाय तो उस की सम्पत्ति की अधिकारिणी उस की पत्नी नहीं हो समती किन्तु " राजगामी तस्यार्थ संचयः " अर्थात् राजा ही उसका अधिकारी होता है। मनु जी का कहना है कि:वशाऽपुत्रासु चैवं स्याद्रक्षणं नकुलासुच । पतिव्रतासुच खीषु विधवास्वातुरासु च ॥
मनु० अ०८. श्लोक २६
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[ ३६ ]
-
बन्ध्या, पुत्रहीना, जिस स्त्री के कुल में कोई न हो, पतिव्रता विधवा तथा रोगिणी स्त्री के धन का रक्षक राजा होता है।
जैन राजनीति का मन्तव्य इस से सर्वथा भिन्न है हेमचन्द्र जी लिखते हैं:
अनपत्ये मृते पत्यौ सर्वस्य स्वामिनी वधूः। अर्थात्- पति यदि निःस तान मर जाय तो उस की सारी सम्पत्ति की अधिकारिणी उस की पत्नी होती है । इसी प्रकार आगेःभ्रष्टे नष्टे च विक्षिप्ते पतौ प्रजिते मृते । तस्य निश्शेष वित्तस्याधिपास्याद्वरवणिनी ।।
पुत्रस्य सत्वेऽसत्वे च भवत्साऽधिकारिणी ॥
पृ० १२८. श्लो० ५२, ५३. अर्थात् - पति यदि भ्रष्ट हो जाये, नष्ट हो जाये, पागल हो जाये, सन्यासी हो जाये या मर जाए इन सब हालतों में उस के पुत्र हो चाहे न हो तो पति की सारी सम्पत्तिकी अधिकारिणी उस की पत्नी होती है।
___ वैदिक साहित्य में पुत्र का स्थान बड़ा विचित्र है:पुन्नानी नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः । तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा ।।
मनु अ०६. श्लोक १३८ अर्थात्-जिस कारण बेटा “" नाम नरक से पितरों की रक्षा करता है इसी से स्वयं ब्रह्मा ने बेटे को पुत्र कह कर पुकारा है।
इस सत्य की और भी पुष्टि करते हुए मनुजी लिखते हैं:
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[ ४० ।
ज्येष्ठेन जात मात्रण पुत्री भवति मानवः । पितृ णामनृणश्चैव स तस्मात्सर्वमर्हति ।
मनु अ०६, श्लोक १०६. पिता ज्येष्ट पुत्र के जन्म लेते ही पुत्रवान हो जाता है और पितृ ऋण से उऋण होता है अतएव पिता का सब धन पाने का अधिकारी वही है।
इस प्रकार मनु जी के मन्तव्य के अनुसार पुत्रहीन मनुष्य की गति नहीं हो सकती। वह मर कर नरक में जाता है। अतः पितरों को पिण्डदान के लिये पुत्र का होना नितान्त आवश्यक है । मनु जी का तो यहां तक कहना है कि पुत्र की उत्पत्ति केवल नरक से बचाती ही नहीं परन्तु स्वर्ग के मार्ग को खोलने में भी एक निश्चित साधन है।
श्राप कहते हैं कि:पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते । अथ पुत्रस्य पौत्रण ब्रनस्याप्नोति विष्टपम् ॥
मनु श्र०६. श्लोक १३७. अर्थात्- पुत्र के जन्म लेने से मनुष्य स्वर्गादि लोकों को पाते हैं और पौत्र के जन्म से स्वर्ग में चिरकाल पर्यन्त अवस्थिति होती है और प्रपौत्र की उत्पत्ति से सूर्यलोक में निवास किया करता है । इस प्रकार मनु जी पुत्र के साथ २ प्रपौत्र को भी स्वर्ग का साधन मानते हैं ।
जैन सिद्धान्त इस के सर्वथा विपरीत है। भद्रबाहु सहिता में लिखा हैपुत्रण स्यात् पुण्यत्वमपुत्रः पापयुग्भवेत् ।
पुत्रवन्तोऽवदृश्यन्ते पामरा कणयाचकाः ॥ ८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ४१ )
दृष्टास्तीर्थकृतोऽपुत्राः पञ्चकल्याणभागिनः । देवेन्द्रपूज्यपादाब्जाः लोकत्रय विलोकिनः ॥ ६ ॥ अर्थात्- यदि पुत्र की उत्पत्ति ही पुण्यवानी का लक्षण है तो सैंकड़ों पुत्रों वालों की दुर्गति होती क्यों दिखाई देती है ? इस के विपरीत पुत्ररहित तीर्थकर पांच कल्याण के भागी, त्रिलोकदर्शी और इन्द्रादि से पूजित पाए जाते हैं।
जैन सिद्धान्त के अनुसार पिता के कर्मों का भोक्ता पुत्र नहीं और पुत्र के कर्मों का भोक्ता पिता नहीं हो सकता । दोनों को अपने अपने कर्मों का फल स्वतन्त्र रूप से भोगना पड़ता है । यदि पिता दुश्चरित्र और पापी है और पुत्र सक्रियावान् है तो पिता को तो अपने कर्मों का दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा ही। पुत्र अपने शुभ कर्मों का शुभ फल पाएगा। उत्तम से उत्तम पुत्र भी पापी पिता के कर्मों को धोने में कभी समर्थ नहीं हो सकता । पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र भले ही पिता के कल्याण के लिये कितनी क्रियाएं क्योंन करे किन्तु वे मृतात्मा के लिये सब व्यर्थ हैं । जैन शास्त्रों में श्राद्ध क्रिया का कोई महत्व नहीं है । पुत्र ऐहलौकिक आनन्द का कारण बन सकता है, पारलौकिक क्रिया में पिता के लिये वह कोई महत्व नहीं रखता यह जैन दर्शन का मन्तब्य है।
मनु नी ने द्विजमात्र के लिये ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, नृयज्ञ ये पांच यज्ञ माने हैं। इन सब का लक्षण करते हुए श्राप कहते हैं कि:अध्याफ्नं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवो बलि तो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम् ।।
मनु अ. ३. श्लो० ७०.
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( ४२ )
अर्थात् - शिष्यों को अध्यापन ब्रह्म यज्ञ, पितरों को तर्पण पितृयज्ञ, होम करना देवयज्ञ, जीवांको अन्न की बलि देना भूतयज्ञ, और अतिथि का आदर सत्कार करना नृयज्ञ कहलाता है ।
वैदिक धर्म ग्रन्थों में यज्ञों का बहुत ऊंचा स्थान है । ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञों का विस्तार पूर्वक वर्णन तथा विधान मिलता है । राजा के लिये राजसूय, और अश्वमेधादि यज्ञों का विधान है। बहुत से यज्ञों में पशुवध का भी विधान है। यज्ञ के लिये पशु को मारना भी पाप नहीं समझा जाता उल्टा आगे के जन्म में उत्तम गति पाने के लिये उसे सर्टिफिकेट मिल जाता है । मनु जी का कथन है कि:
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञम्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे
वधोऽवधः ॥
मनु श्र० ५, लो० ३६. अर्थात् स्वयंभू ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये और यशों की समृद्धि के लिये पशुत्रों को बनाया है । अतएव यज्ञ में पशु का वध श्रवध अर्थात् वध जन्य दोष रहित है ।
औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥
श्रीषधि पशु वृक्षादि और पक्षी ये सब पर फिर उत्तम योनि में जन्म ग्रहण करते हैं ।
मनु श्र० ५. लो० ४०. यज्ञ के निमित्त मारे जाने
इस प्रकार वैदिक धर्म ग्रन्थों में हिंसामय यज्ञों का विधान मिलता है । कुछ एक वैदिक विद्वानों ने जो हिंसा में विश्वास नहीं करते वैदिक मन्त्रों का अर्थ अपने दृष्टिकोण के अनुकूल ऐसा किया है कि जिस से हिंसा विधान के प्रतिपादन का निवारण हो जाता है किन्तु
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( ४३ )
वह प्रयास सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि गौणार्थ मुख्यार्थ की विशेषता को छिपा नहीं सकता । बहुत से लोगों ने जहां संभव हो सका है हिंसा प्रतिपादक पाठों पर प्रक्षेत्र की मोहर लगाने का भी निष्फल प्रयास किया है । काल्पनिक युक्तियें तथा स्वमन्तव्यानुकूलार्थ वास्तविक उत्य को छिपाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते ।
उपर्युक्त वैदिक यज्ञों से अब पाठक जैनयज्ञों की तुलना करें । हेमचन्द्राचार्य ने लध्वर्हन्नीति में जैन राजा के लिये पांच यज्ञों का विधान किया है - जैसे -
दुष्ट य दण्डः सुजनस्य पूजा, न्यायेन कोशस्य च संप्रवृद्धिः । अपक्षपातो रिपु राष्ट्र रक्षा चैव यज्ञा कथिता नृपाणाम् ॥
पृ० ६ श्रो० ४४. अर्थात्ः - दुष्ट को दण्ड देना, सज्जन को पूजा करना, न्याय से खजाने को बढ़ाना. किसी का पक्षपात न करना और शत्रु से राष्ट्र की रक्षा करना ये राजाओं के लिये पांच यज्ञ हैं ।
जो लोग जैन धर्म को कायरों का धर्म मानते हैं और जैन राजा को शत्रु के सामने शीघ्र पतन की कल्पना करते हैं उन को जैनियां के प्रथम यज्ञ और अन्तिम की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये ।
जैन राजा ' हिंसा परमोधर्मः ' का उपासक होते हुए भी अपराधी दुष्ट पुरुष को बना दण्ड दिये नहीं छोड़ सकता । चौथे यज्ञ
सम्बन्ध है । दण्ड देते
"" अपक्षपात का प्रथम यज्ञ से बड़ा घनिष्ट समय न्यायाधं श पक्षात रहित होना चा हये गुण किस प्रकार प्राचीन काल में घटित होते रहे हैं यह नीचे लिखे
। जैन राजा में ये दोनों
दृष्टान्त से पाठकों को भी भांति ज्ञात हो जाएगा:
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८०
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.
[ ४४ ]
प्राचीन समय में मलय देश की राजधानी रत्मपुर में प्रजापति नामक राजा राज्य करता था। उस के पुत्र का नाम चन्द्रचूल था जो कि बड़ा ही दुष्ट और दुश्चरित्र था। रत्नपुर में एक कुबेरदत्त सेठ रहता था जिस ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण वहां के एक श्रेष्ठीपुत्र श्रीदत्त के साथ किया। कन्या बड़ी ही रूपवती थी । उस के सौन्दर्य की महिमा चन्द्रचूल के कानों तक पहुंची। जबकि विवाह संस्कार हो रहा था तब चन्द्रचूल उप्त सुन्दरी कन्या को बलपूर्वक हरण करने केलिये लोगों की बड़ी भीड़ में पहुंच गया।
राजकुमार के इस दुष्टाचार से लोगों को बड़ा दुःख हुआ। नगर के पञ्च मिलकर राजा के पास गए और राजकुमार की इस नीचता की शिकायत की। राजा न्यायप्रिय था और पक्षपात करना तो जानता ही न था । जब उस ने अपने पुत्र की दुश्चरित्रता की बात सुनी तो उसे उस पर बड़ा क्रोध आया। चन्द्रचूल को राजा के सामने लाया गया। राजा ने उसे देखते ही तुरंत श्राज्ञा दी:तदालोक्य 'किमित्येष पापीहानीयते द्र तम् । निशातं शूल मारोप्य श्मशाने स्थाप्यतामिति ।। अर्थात्:- इस पापी को यहां लाने की क्या आवश्यकता है ? इस को तो शीघ्र ही शमशान घाट में तीखे शूज पर लटका दो।
राजा का मन्त्री बड़ा बुद्धिमान् था। उस ने राजकुमार को दण्ड देने का भार अपने ऊपर ले लिया। वह राजकुमार को जंगल में ले गया और वहां जैन मुनियों की सेवा में उसे दीक्षा दिलाई ।
यह थी जैन राजाओं की न्याय परायणता और निष्पक्ष दण्ड विधान । न्याय के सिंहासन पर बैठ कर वे पक्षपात नहीं दिखाते थे ।
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( ४५ )
दुष्ट को दण्ड देना इस प्रथम यज्ञ का वे भलीभाँति पालन करते थे । वे दुष्ट दुष्ट में भेद नहीं समझते थे । दुष्ट चाहे प्रजा में उत्पन्न हुना हो चाहे रान महल में, दुष्ट तो दुष्ट ही है; अतः उस को दण्ड अवश्य मिलना चाहिये और दण्ड भी ऐसा जो कि उस की दुष्टता के अनुकूल हो ।
हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि ओ राजा न्याय में स्थित रहता है । चोर, धूर्त और दुष्टों को दण्ड देता है वह सीधा स्वर्ग में जाता है । इस प्रकार उन लोगों के लिये जो जैनधर्म में वीरता के अभाव की कल्पना करते हैं और इसी कारण जैनियों को कई प्रकार की अनुचित उपाधियां देने का साहस कर बैठते हैं । जैन राजाओं के प्रथम और अन्तिम दो यज्ञ पर्याप्त उत्तर होगा। किसी भी धर्म के शास्त्रीय ज्ञान से परिचित हुए बिना उसके ऊपर टीका टिप्पणी करना कहां तक ठीक होता है इस की कल्पना पाठक स्वयं कर सकते हैं ।
अन्त में मैं जैन राजनीति की एक विशेषता और बताना चाहता हूं | वह विशेषता वैदिक राजनीति में नहीं पाई जाती चक्रवर्ती राजा तो वैदिक और जैन दोनो की नीतियों में पाए जाते हैं । वैदिक धर्म में चक्रवर्ती पद को पाने के लिये अश्वमेघ और राजसूय यज्ञों का विधान है। जैन शास्त्रों में चक्रवर्ती बनने के लिये राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का विधान नहीं मिलता । जैन धर्म में भी चक्रवर्तीत्व पद पाने के लिये जब युद्ध करना पड़ता होगा तब हिंसा अवश्य होती होगी ही किन्तु जैन धर्म ग्रन्थों में बल की परीक्षा के लिये अन्य भी अहिंसामय उपाय बताए गए हैं । हिंसामय युद्धों के स्थान पर जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध का विधान है । इन में बाहुयुद्ध प्रधान रहा है । प्रायः जब दो राजाओं में युद्ध होता है तो दोनों पक्ष की लाखों की संख्या में
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[ ४६ ]
सेनाएं एक दूसरे पर टूट पड़ती हैं। कोई वीर राजा हुए तो सेना के साथ २ युद्ध में चले गये। नहीं तो अकमर सेनाएं ही लड़ा करती हैं
और गजा अपने आप को महलों में या किलों में सुरक्षित रखते हैं ! इस प्रकार दो व्यक्तियों के राज्य लाभ के लिये सइस्रों सिपाही युद्ध भूमि में अपने जीवन खोबैठते हैं । जैन नीतिज्ञों को यह बात ठीक नहीं लगी। इस कारण उन्हों ने गहयुद्ध की प्रथा चलाई । बाहयुद्ध में केवल दो विरोधी राजाओं का ही युद्ध होता था। सेना उम में भाम नहीं लेती थी। जो राजा जीतता उस से पराजित गना अधीनता स्वीकार कर लेता। इस तरह से नात्रों के युद्ध से जो लाग्बों व्यनि प्रों का संहार होता. वह बच जाता । जैन धर्मग्रन्थों में बाहुयुद्ध के बहुत से उदाहरण मिलते हैं । कहते हैं कि नेमि महाराज एक बार अचानक है। भगवान् कृष्ण की शस्त्रशाला में चले गए। उन्होंने श्रीकृष्ण जी के चक्र को कुम्हार के चक्र की भांति घुमा दिया। शाङ्ग धनुष को मृणाल को तरह, कौमोद की गदा को लाठी की तरह उठा डादा अंर पाञ्चजन्य शंख को खूब ज़ोर से बजाया। शंख ध्वनि को सुन कर कृष्ण जी को किसी शत्रु के पाने का संदेह हश्रा और वह तुरन्त ही शस्त्रशाला में
आ गए। वहां उन्होंने नेमि महाराज को खड़े पाया। दोनों ने वल. परीक्षा के लिये बाहुयुद्ध को ही उचित समझा और फिर दोनों का बाहुयुद्ध हुश्रा।
इसी प्रकार भरत और बाहुबलि का युद्ध भी बहुत प्रांमद्ध है । पहले दोनों की सेनाएं लड़ने को उद्यत थीं किन्तु दोनों के प्रधानमत्रियों ने सेनाओं के युद्ध में बहुत जन संहार देखकर यहो निश्चय किया कि दोनों का बाहुयुद्ध हो और अ-त में हुश्रा भी यहो ।
इस प्रकार जैनराजनीति में युद्ध के विधान में 'अहिंसा पामो.
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( ४७ )
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धर्म" इस सिद्धान्त 'का बहुत ऊंचा स्थान है । इस छोटे से लेख में पाठकों को भलीभांति पता चल गया होगा कि जैन धर्म वास्तव में वीर धर्म है। जो लोग इस से अन्यथा कल्पना करते हैं वे जैनधर्म के मर्म से अनभिज्ञ हैं । उन को चाहिये कि वे जैन शास्त्रों का अध्ययन करके इस के महत्व को समझे । इम के साथ २ मैं जैन कुलोत्पन्न सज्जनों से भी निवेदन करना चाहता हूं कि वे नाममात्र के जैन होने में ही गौरव न समझे । उन को अपनी प्राचीन संस्कृति और प्राचीन गौरव को कभी न भुलाना चाहिये । यदि वे अपने पूर्वजों के दिखाए पथ पर चलेंगे तभी वास्तव में सच्चे जैन कहलाने के योग्य बन सकेंगे।
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- जैन धर्म में वर्णव्यवस्था
जैसा कि पहले भी बता चुके है वैदिक, जैन और बौद्ध ये तीनों धर्म अति प्राचीन काल से साथ साथ चले आए हैं अतः तीनों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता रहा है। तीनों धर्मों के अनुयायी एक दूसरे के सिद्धान्तों को समय २ पर अपनाते रहे हैं | और एक दूसरे से प्रभावित होते रहे हैं । निस्सन्देह तीनों का जीवन चिरकाल से पारस्परिक संघर्षमय चलता रहा है । और प्रत्येक ने अपने अपने सिद्धान्तों को ही एक मात्र कल्याण का साधन माना है किन्तु यह संघर्ष ऐसा ही था जैसा कि तीन सहोदर भाइयों का होता है। तीनों धर्मों के धर्म ग्रन्थों को यदि सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ा जाय तो उसके निचोड़ में अति प्राचीन भारतीय सभ्यता की एक ही झलक Eष्टगोचर होती है। तीनों धर्मों की गहराई में एक हो संस्कृति छिपी मिलती है । ठीक इसी प्रकार जैसे तीन सहोदर भाइयों में पारस्परिक मतभेद के होने पर भी मातृस्नेह का श्रोत समान रूप से ही वहा करता है । अतएव वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों में किसी एक के सिद्धान्त पर उसी के दृष्टि कोण से विवेचन करना या कोई निर्णय देना उस मन्तव्य के साथ अन्याय करना होगा। किसी भी विषय का विश्लेषण तीनों धर्मों के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए तुलनात्मक दृष्टि से ही करना चाहिये । ऐसा करने से ही यह सन्दर और निर्णयात्मक हो सकता है। अतएव जैन धर्म में वर्णव्यवस्था के विश्लेषण के साथ साथ वैदिक और बौद्ध धमों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ४६ )
में वर्णव्यवस्था की परिपाटी का दिग्दर्शन नितान्त आवश्यक हो जाता है। तीनों धर्मों की साथ साथ प्रगति होने के कारण तीनों ने जो एक दूसरे की सामाजिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला है उसकी उपेक्षा नहीं की बा सकती । सामाजिक धार्मिक और राजनैतिक श्रादि सभी क्षेत्रों में यह प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
॥ वैदिक वर्ण व्यवस्था । चारों वेदों में सब से प्राचीन ऋग्वेद माना जाता है । इस वेद के दस मंडल हैं। प्रथम नौ मण्डलों में कहीं भी वर्णव्यवस्था का विधान नहीं पाया जाता। दशम मंडल में वर्णव्यवस्था का विधान मिलता है जो इस प्रकार है:ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहु राजन्यः कृतः । उरू तदस्य यवश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत् ॥
इस मंत्र में ब्राह्मण की मुख से, क्षत्रिय की भुजात्रों से, वैश्य की उरू से और शूद्र की पैरों से तुलना या उत्पत्ति ध्यान देने योग्य है।
इस मंत्र के आधार पर बहुत से विद्वानों ने वैदिक काल में जन्मगत बव्यवस्था सिद्धर्ण करने की कोशिश की है किन्तु भाषा विज्ञान के पण्डितों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ऋग्वेद के दशम मंडल की रचना प्रथम नौ मण्डलों के बहुत बाद की है। दशम मंडल की भाषा से ही यह बात सिद्ध हो जाती है कि उसकी भाषा प्रथम नौ मंडलों की भाषा से भिन्न प्रकार की है। अतः ऋग्गैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व नहीं माना बा सकता।
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( ५० )
॥ वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ ॥
वर्ण शब्द का अर्थ है रंग (complexion) | भारतीय भार्य लोगों का रंग गौर और सुन्दर होता था । कृष्ण या काले वर्ण के द्राविड़ अादि जातियों के लोग भी भारत भूमि में बसते थे। आर्य जाति का काले रंग की जातियों से कुछ काल तक संघर्ष भी रहा । ऐसा प्रतीत होता है कि पार्यों ने उन कृष्ण वर्ण जाति के लोगों से जिन्हें वे अनार्य या दस्यु कह कर पुकारते थे अपनी उत्कृष्टता की भिन्नता प्रकट करने के लिये ही वर्ण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ किया होगा। बाद में जैसा कि ऋग्वेद के दशम मंडल में मिलता है समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय गैश्य और शद्र इन चार भागों में विभक्त कर दिया। प्रारम्भ में यह वर्ण व्यवस्था कर्म गत थी बन्म गत नहीं । कोई भी पुरुष अपने उच्च यानीच कर्मों मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बन सकता था । यही कारण है कि वैदिक धर्म के प्रसिद्ध ऋषि विश्वामित्र वशिष्ठ और दीर्घतमा श्रादि अब्राह्मण होते हुए भी अपने उत्कृष्ट कों से ब्राह्मण पद को प्राप्त हुए । मनु जो महाराज भी इसी सत्य की पुष्टि करते है:शूद्रो ब्राह्मणतामेति बाह्मणश्चैति शूद्रताम् । क्षत्रियाजातमेवंतु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ॥
मनु १०/६५/ अर्थात् जिस प्रकार शूद्र ब्राह्मण बन जाता है और ब्राह्मण शद्र बन जाता है उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य के विषय में भी जानना चाहिये।
कुछ काल के पश्चात् वर्ण के स्थान में जाति शब्द का भी प्रयोग होने लगा। वैदिक साहित्य में सर्व प्रथम यह शब्द कात्यायन
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( ५१ )
श्रौत सूत्र में मिलता है। उसमें इसका प्रयोग वर्ण के अर्थ में नहीं किया किन्तु परिवार या कुल के अर्थ में मिलता है । परन्तु जैसे २ वर्ण व्यवस्था जन्म सिद्ध अधिकारों में फंसती गई नैसे २ वर्ण के स्थान में जाति शब्द का प्रयोग विशेष रूप से होने लगा। अन्त में जाति शब्द का प्रयोग इतना अधिक प्रचलित हो गया कि वर्ण शब्द उसके सामने लुप्त सा हो गया। श्रान कल भी हमारे देश में सर्वत्र जाति शब्द का ही प्रयोग होता है। ब्राह्मण वर्ण, क्षत्रिय वर्ण, गैश्य वर्ण और शूद वर्ण के स्थान में ब्राह्मण जाति क्षत्रिय जाति, वैश्य जाति और शूद्र जाति का प्रयोग करते हैं ।
।। अनेक जातियों की उत्पत्ति ॥
प्रारम्भ में जब वर्णव्यवस्था का युग शुरु हुआ तो चार ही वर्ण थे । अाज की भाषा में चार जातिय थीं। इन्हीं चार बातियों में से अाज की सैंकड़ों जातियों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इसका पता बहुत कुछ मनुस्मृतिसे चल जाता है । मनु जी की राजनीति के अनुसार ब्राह्मण को तो चारों वर्णों की कन्याश्रों के साथ विवाह करने का अधिकार है और बाकी के वर्ण या जातियें अपने से नीचे किसी भी वर्ण की कन्या के साथ विवाह सम्बन्ध कर सकती हैं किन्तु अपने से उच्च वर्ण के साथ नहीं।
शूद्रव भार्या शूदस्य सा च स्वा च विशः स्मृते। ' ते च स्वाचैव राज्ञश्च ताश्च स्वाचाग्रजन्मनः ।।
मनु श्र० ३ श्लोक १३. अर्थात्:- शूद्धा ही शूद्र की स्त्री हो सकती है दूसरी नहीं । वैश्य को
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वैश्य वर्ण की और शूद्रा श्रौर ब्राह्मणों को चारों वर्षों
है ।
( ५२ )
क्षत्रिय को क्षत्रिया वैश्या तथा शश, की कन्याओं से विवाह करनेका अधिकार
चारों वर्ण अपने २ वर्ण में विवाह सम्बन्ध करके जो संतान उत्पन्न करते हैं वह संतान ही शुद्ध ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मानी जाती है । जैसे:1 --
सर्व वर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्त्रक्षतयोनिषु । श्रानुलोम्येन संभूता जात्या ज्ञ ेयास्त एव ते ||
मनु श्र० १०. श्लोक ५०. अर्थात्ः - इन चार वर्णो में सवर्ण अक्षतयोनि विवाहिता स्त्रियों में अनुलोम क्रम से जो संतान उत्पन्न होती है जैसे ब्राह्मण से ब्रह्मणी में जो पुत्र उत्पन्न होगा वह ब्राह्मण कहलावेगा । क्षत्रिय से क्षत्रिया में उत्पन्न क्षत्रिय, वैश्य से वैश्या में उत्पन्न वैश्य होता है ।
इसके विपरीत जैसा कि मनु जी ने ऊपर भिन्न वर्णों में भी उत्तरोत्तर विवाह का विधान किया है उस से जो सन्तति उत्पन्न होती है वही आज की सैंकड़ों जातियों की उत्पत्ति में मूल कारण है । उनकी उत्पत्ति के विषय में भी मनुस्मृति में पर्याप्त विवर्ण मिलता है जैसे:
ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्वष्टो नाम जायते ।
निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते ।। श्र० १०. लोक ८.
क्षत्रियाच्छद्र कन्यायां क्रराचार विहारवान् । क्षेत्र शूद्रवपुर्जन्तुरुप्रो नाम प्रजायते ॥ ६ ॥
क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः । वैश्यान्मघवैदेहो राजविप्रांगना सतौ ॥११॥
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( ५३ )
ब्राह्मणादुप्रकन्यायामावृतो नाम जायते ।
भोरोऽम्बष्ठ कम्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः ||१५|| जातो निषादाच्छूद्रायां जात्या भवति पुक्कसः । शूद्राज्जातो निषाधातु स वै कुक्कुटकः स्मृतः ||१८|| क्षतुर्जातस्तथोप्रायां श्वपाकः इति कीर्त्यते । वैदेहकेन त्वम्बष्ठयामुत्पन्नो वेण उच्यते ॥ १६॥ द्विजातयः सवर्णासु जनयन्त्य व्रतांस्तु यान । तान्सावित्री परिभ्रष्टान् वात्यानिति विनिर्दिशत् ||२०|| व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टकः । आवन्यवाटधानौ च पुष्यधः शैरव एव च ॥ २ ॥ भल्लो मल्लश्च राजन्याद् वात्यानिच्छिविरेव च । नटश्च करणश्चैव ससो द्रविड़ ए च ||२२||
अर्थात्ः - ब्राह्मण से व्याही हुई वैश्य कन्या में जो कोई पुत्र उत्पन्न होवे वह 'श्रम्बलु' कहाता है । और शूद कन्या में जो उत्पन्न होवे वह 'निषाद' कहाता है उसी को पाराशव भी कहते हैं ||८||
क्षत्रिय से व्याही हुई शूद होता है उसका स्वभाव कुछ क्षत्रिय है । उसी को 'उग्र' भी कहते हैं ||६||
कन्या में उत्पन्न पुत्र क्रूरकर्म वाला तथा कुछ शूद्र से मिलता जुलता
क्षत्रिय द्वारा ब्राह्मण की कन्या में जो पुत्र उत्पन्न हो वह सूतं बाति का कहा जाता है ।
वैश्य से क्षत्रिय तथा ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न पुत्र 'आवृत', श्रम्ब नाम की कन्या में बायमान " श्राभीर" एवं आयोगवी में जायमान बालक "धिग्वण" कहा जाता है ॥ १५ ॥
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( ५४ )
शूदा में निषाद द्वारा उत्पन्न पुत्र "पुकस" तथा शूद्ध से निषाद कन्या में जायमान पुत्र कुक्कुट कहे जाते हैं ||१८||
क्षत्ता द्वारा उग्र कन्या में जन्मा हुत्रा पुत्र " श्वपाक " कहा जाता है । वैदेह से अम्बष्ठ नाम्नी कन्या में उत्पन्न पुत्र वेण कहलाता है ॥ १६ ॥
द्विजाति की सवर्णा कन्याओं में उत्पन्न पुत्रों का यदि यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो वे " व्रात्य" कहे जाते हैं ॥ २० ॥
ब्राच्य संतान से पापात्मा 'भूर्जकण्टक" पुत्र जन्मता है। देश भेद से इसी को 'श्रावन्त्य', 'वाटधान', पुष्पत्र " तथा "शैख" भी कहते हे ॥ २१ ॥
क्षत्रिय जाति की व्रात्य से उत्पन्न पुत्र, मल, मल, निच्छिवि, नट, करण, रवस. तथा द्रविड़ कहलाते हैं ।। २२ ।
प्राजकल उपलब्ध सूत, श्राभीर निषाद और शेख श्रादि अनेक जातियों की उत्पत्ति चारों वर्णों के अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्धों से किस प्रकार होती गई यह मनु जी की राजनैतिक व्यवस्था से पाठकों को भली भाँति स्पष्ट हो गया होगा !
इस के अतिरिक्त लोगों के भिन्न भिन्न पेशे या व्यवसाय भी अनेक नवीन जातियों की उत्पत्ति में नवीन कारण बने । जैसे सोने का काम करने वाले स्वर्णकार या सुनार, लोहे का काम करने वाले लोहकार या लुहार, चमड़े का काम करने वाले चर्मकार या चमार, वस्त्र धोने का काम करने वाले धोबी, क्षौरकर्म करने वाले नापित या नाई, तैल निकालने वाले तेली, वस्त्र बुनने का काम करने वाले तन्तुवाय या जुलाहे, इत्यादि अनेक जातियों के नाम उनके कर्म या
व्यवसाय के आधार पर पड़े ।
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( ५५ )
इस प्रकार वैदिक सिद्धान्त के अनुसार भारत में अनेक जातियों की उत्पत्ति होती गई। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि ऋग्वैदिक काल में तो वर्णव्यवस्था कर्म से ही मानी जाती थी जन्म से नहीं । इसी सत्य को पुष्ट करने वाला एक श्लोक शुक्रनीति में भी पाता है :विश्वामित्रो वसिष्ठश्च मतंगो नारदादयः । तपोविशेषसंप्राप्ताः उत्तमत्वं न जातितः ॥ अर्थात्:- विश्वामित्र, वसिष्ठ, मतंग, और नारदादि ऋषि तप के प्रभाव से उत्तम पद को प्राप्त हुए जातिसे नहीं। "बाल्मीकि रामायण" के कर्ता महर्षि वाल्मीकि के विषय में तो सब जानते हैं कि वह किस प्रकार नीच जाति में उत्पन्न हो कर भी राम की महिमा से कितने उच्च पद को प्राप्त हुए । चक्रवर्ती महाराज की महाराणी सीता को भी उन्होंने अपने आश्रम में श्राश्रय दिया था।
विस्तार भय से इस लेख को अधिक न बढ़ाते हुए अन्त में मैं यही बताना चाहता हूं कि वैदिककाल में वर्णव्यवस्था कर्म से ही मानी जाती थी । उपयुक्त विवर्ण से पाठकों को इस सत्य का भलीभाँति पता चल गया होगा । आज कल की जन्मगत वर्णव्यवस्था की भयानकता ऋग्वैदिक काल में न थी। इस का प्रचार बाद में हुअा और यहां तक बढ़ाकि नीच से नीच काम करने वाला पुरुष यदि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ होतो वह जाति की श्रेष्ठता की ढींग हांकने में कोई कसर बाकी नहीं रखता । शूद्र बाति में पैदा हुआ पुरुष उत्तमसे उत्तम आचरण करने पर भी नीच माना जाता है। बहुत से अज्ञानी पुरुष तो शूद्र की छाया पड़ने पर भी अपने आप को अपवित्र मानने लगते हैं । इस को मूर्खता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। यह बड़ी ही
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( ५६ )
प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान भारतीय गणराज्य के विधान में सदियों से चले आते हिन्दू समाज के इस स्पृश्यास्पृश्य के कलंक को घो डाला है।
॥ जैन वर्ण व्यवस्था ॥
ठीक वैदिक मन्तव्य की तरह ही जैन धर्म भी अपने सैनधर्म ग्रन्थों के सिद्धान्तों के अनुसार कर्मसिद्ध हो जाति या वर्णव्ययस्था मानता रहा है । निस्संदेह जैन धर्मशास्त्रों में यत्र तत्र जन्मगत वर्णव्यवस्था की भी झलक मिलती है । जैसे:
"समान कुल शोलादिभिः अगोत्रवाहय मन्यत्र बहुविरुद्धभ्यः।" धर्मविन्दु पृ० ४. आजकल जो जैन समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित है वह जैनागमों के सिद्धान्तों के अनुसार नहीं कही जासकती। वर्तमान जैन समाज में वर्णव्यवस्था जन्म से ही मानी जाती है। सैद्धान्तिक रूप में भले ही कुछ लोग कर्मगत भी मानते हों किन्तु कार्यरूप में जन्मगत की ही प्रधानता है । कोई भी जैन साधु जैनागमों का सुचारु रूप में ज्ञान होते हुए भी किसी नीच जाति के सुयोग्य और अधिकारी पुरुष को दीक्षा देने का साहस नहीं कर सकता। यदि करे तो, न तो भावकों की भद्धा का पात्र ही वह रह सकता है और न पाहार पानी की सुविधा ही उसको जैन परिवारों में मसीब हो सकती है। इस का मूल कारण कार्य रूपमें जन्म सिद्ध वर्णव्यवस्था का मानना है जो जैन धर्म का अपना सिद्धान्त नहीं है । मेरे विचार से यह वैदिकसभ्यता का ही जैन धर्म पर प्रभाव है। जब बैन राजसत्ता समाप्त हो गई और जैन राजनीति लुस प्रायः होगई थी शायद उस समय से सी जैन धर्म वैदिक धर्म से प्रषिक
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( ५७ )
प्रभावित होने लगा। केवल वर्णव्यवस्था में ही नहीं अन्य विवाह संस्कारादि कमों में भी जैन नगत वैदेक विवाह पद्धति से ही शासित होता आया है । इसके अतिरिक्त दोनों धनों में पारस्परिक वैवाहिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से बिना किसी बाधा के चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक दूसरे की प्रथाओ के प्रभाव से मुक्त रहना कठिन ही नहीं असभव भी हो जाता है। ईसा पूर्व ६००-७०० के समय की जैन सभ्यता और परिस्थिति का वर्णन करते हुए जैन विद्वान् श्री कामता प्रसाद जी अपने संक्षिप्त जैन इतिहास के के दूसरे भाग में लिखते हैं:
" उस समय का भारतीय समाज, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों में विभक्त था। चाण्डाल आदि भी थे । भगवान् महावीर के जन्म होने के पहले ही ब्राह्मण वर्ण की प्रधानता थी। उसने शेष वर्गों के सब अधिकार हथिया लिये थे। अपने को पुजवाना
और अपना अर्थ साधन करना उसका मुख्य ध्येय था यही कारण था कि उस समय ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी को भी धर्म कार्य और वेद पाठ करने की आज्ञा नहीं थी । ब्राह्मणेतर वर्णों के लोग नीचे. समझे जाते थे । शूद्र और स्त्रियों को मनुष्य ही नहीं समझा जाता था। किन्तु इस दशा से लोग ऊब चले । उन्हें मनुष्यों में पारस्परिक ऊंच नीच का भेद अखर उठा । उधर इतने में ही भगवान् पार्श्वनाथ का धर्मोपदेश हुश्रा और उससे जनता अच्छी तरह समझ गई
कि.मनुष्य २ में प्राकृत कोई भेद नही है। प्रत्येक मनुष्य को प्रात्म - स्वतन्त्रता प्राप्त है। कितने ही मत प्रवर्तक इन बातों का प्रचार करने के लिए अगुवा बने। बैनी लोग इस आन्दोलन में अग्रसर थे ।
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[ ५८ ]
साधुत्रों की बात जाने दीजिए श्रावक तक लोगों में से बाति मुदता अथवा नाति वा कुल मद को दूर करने के साधु प्रयत्न करते
थे। रास्ता चलते एक श्रावक का समागम कुछ ब्राह्मणों से हो गया ब्राह्मण अपने माति मद में मत्त थे किन्तु श्रावक के युक्ति पूर्ण वचनों से उनका यह नशा काफूर होगया। वे जान गए कि मनुष्य के शरीर में वर्ण प्राकृति के मेद देखने में नहीं आते है जिससे वर्ण मेद हो। क्योकि ब्राह्मण आदि का शूद्रादि के साथ भी गर्भाधान देखने में आता है। जैसे गौ घोड़े आदि की जाति का भेद पशुओं में है ऐसा जाति भेद मनुष्यों में नहीं है क्योंकि यदि श्राकार भेद होता तो ऐसा भेद होना संभव था अतः मनुष्य जाति एक है। उसमें जाति अथवा कुल का अभिमान करना वृथा है। एक उच्चवर्णी ब्रामण भी गोमांस खाने और वेश्यागमन करने से पतित हो सकता है और एक नीच गोत्र का मनुष्य अपने अच्छे आचरण द्वारा ब्रामण के गुणों को पा सकता है।
भगवान् महावीर के दिव्य देशों में मनुप्य मात्र के लिए व्यक्ति स्वातन्त्र्य का मूल मन्त्र गर्भित था। भगवान् ने प्रत्येक मनुष्य का प्राचरण उसके नीच अथवा ऊंवपने का मूल कारण माना था उन्होंने स्पष्ट कहा कि संतान कर्म से चले आए हुए जीव के आचरण की गोत्र संशा है। जिसका ऊंचा प्राचरण है उसका ऊँच गोत्र है और जिसका नीच श्राधरण है उसका नीच गोत्र है। शुद्ध हो या स्त्री हो अथवा चाहे जो हो गुण का पात्र है वही पूजनीय है। देह या कुल की वंदना नहीं होती और ना ही जातियुक्त को ही मान्यता प्राप्त है। गुणहीन को कौन पूजे और माने ! भ्रमण भी गुणों से होता है भावक भी गुणों से होता है । महावीर बी के इस संदेश से जनता की मनमानी मुराद पूरी हुई और वह अपने
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[ ५६ ]
जाति अथवा कुलमद को भून गई थी।
तब भारत में विश्व प्रेम की पुण्य धारा का अटूट प्रवाह बहा । जनता गुणों की उपासक बन गई । ब्राह्मण, क्षत्रिय शूद्र और वैश्यत्व का उसे अभिमान ही शेष न रहा। सब ही गुणों को पाकर श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते थे । धन्यकुमार सेठ को हो देखिए । उनके गुणों का आदर करके सम्राट श्रेणिक ने अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया था और उन्हें राज्य देकर अपने समान राज्याधिकारी बना दिया था। यही बात इनसे पहले हुए सेठ भविष्यदत्त के विषय में घटित हुई थी। वह वैश्य पुत्र होकर भी राज्याधिकारी हुए थे। हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर उन्होंने प्रजा का पालन समुचित रीति से किया था। सेठ प्रीतिकर को क्षत्री राजा जयसेन ने प्राधा राज्य देकर राजा बनाया था। सरांशतः स्वतन्त्र अन्वेषण के आधार से विद्वानों को यही कहना पड़ा है कि उस समय ऊपर के तीन वर्ष (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) तो वास्तव में मूल में एक ही थे। क्योंकि राजा, मरदार और विप्रादि तीसरे वैश्य वर्ण के ही सदस्य थे, जिन्होंने अपने को उच्च सामाजिक पदपर स्थापित कर लिया था वस्तुतः ऐसे परिवर्तन होने ज़रा कठिन थे, परन्तु ऐसे परिवर्तनों का होना सम्भव था । गरीब मनुष्य राजा, सरदार बन सकते थे। ऐसे परिवर्तनों के अनेक उदाहरण प्रन्यों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के क्रिया काण्ड युक्त एवं सर्व प्रकार की सामाजिक परिस्थिति के पुरुष स्त्रियों के परस्पर सम्बन्ध के भी उदाहरण मिलते हैं और यह केवल उच्चवर्ण के ही पुरुष और नीच कन्याओं के सम्बन्ध में नहीं है बल्कि नीच पुरुष और उच्च स्त्रियों के भी है।
नीचे दिया उदरण भी इस सत्य का पोषक है:
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( ६० )
कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवरगतावरम् । कुलीनमकुलीनं वा क्रमोनास्ति स्वयंवरे ॥
अर्थात्:- स्वयंवर में गई हुई कन्या अपनी रुचि के अनुसार पुरुष का वरण करती है। वहां कुलीन और अकुनीन का विचार नहीं किया जाता है। सच मुच उस ममय विवाह क्षेत्र अति वशाल था। चारो वर्गों के स्त्री पुरुष सानन्द परसार विवाह सम्बन्ध करते थे। इतना ही क्यों, म्लेच्छ और वेश्याओं आदि से भी विवाह होते थे। राजा श्रेणिक ने ब्राह्मणी से विवाह किया था । जिमके उदर से मोक्षगामी अभयकुमार नामक पुत्र जन्मा था । वैश्य पुत्र जीधर कुमार ने क्षत्रिय विद्याधर गरुड़ वेग की कन्या गन्धर्वदत्ता को स्वयवर में वीणा बजा कर परास्त किया और विवाहा था। स्वयंवर में कुनीन अकुलीन का भेद भाव नहीं था। विदेह देश के धरणो तिलका नगर के राजा गोविन्द की कन्या के स्वयंवर में ऊपर तीन वर्णो वाले पुरुष श्रावे थे । जीवनधर कुमार के ये मामा थे। बंबंधर ने चन्द्रक यन्त्र को बेध कर अपने मामा की कन्या के साथ पाणिग्रहण किया था। पल्लव देश के राजा की कन्या का सर्प विष दूर करके उसे भी जीव धर ने व्याहा था । वणिक पुत्र प्रीतंकर का विधाह राजा अयसेन की पुत्री के साथ हुअा था। विवाह सम्बन्ध करने में जिस प्रकार वर्ण-भेद. का ध्यान नहीं रखा जाता था वैसे को धर्म विरोध भी उसमें बाधक नहीं था। वसुमित्र श्री जैन थे किन्तु उन की पत्नी धन श्री अबैन थी। साकेत का मिगार सेठी जैन था किन्तु उसके पुत्र पुण्यवर्धन का विवाह बौद्धधर्मानुयायी सेठ धनंजय की पुत्री विशाखा से हुअा था । सम्राट् श्रेणिक के पिता उपश्रेमिक ने अपना विवाह एक भील कन्या से किया था।
भगवान् महावीर के निर्वाणोपरान्त नन्दरामा महानन्दिन्
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[ ६१ ]
जैन थे। इनकी राणियों में से एक शूदा भी थी जिससे महापद्म का जन्म हुआ था। चम्पा के श्रेष्ठी पालित थे। उन्होंने एक विदेशी कन्या से विवाह किया था। प्रीतंकर सेठ जब विदेश में धनोपार्जन के लिये गए थे तो वहां से एक राजकन्या को ले आए थे जिसके साथ उनका विवाह हुआ था। इस काल के पहले से ही प्रतिलित जैन पुरुष जैसे चारुदत्त अथवा नागकुमार के विवाह वेश्या पुत्रियों से हुए थे। सरांशतः, उम समय विवाह सम्बन्ध करने के लिए कोई बन्धन नहीं था । सुशील और गुणवाली कन्या के साथ उसके उपयुक्त वर विवाह कर सकता था । स्वयंवर की प्रथा के अनुमार विवाह को उत्तम समझा जाता था।"
इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन के २५ में अध्ययन की महामुनि की कथा किस जैन श्रावक से भूली है। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हा एक जयघोष नामका याज्ञिक ब्राह्मण था। उस समय एक ब्रह्मचारी महामुनि भ्रमण करते करते २ वाराणसी नगरी में पहुंचे
और बाहिर एक उद्यान में ठहर गए । उस समय उस पुरा में विजयघोष नामका वेदपारंगत ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। उस यज्ञ में वह मुनि भिक्षा के लिये गया। उस साधु को देखते ही याज्ञिक ने भिक्षा देने से इन्कार कर दिया और कहा कि जो वेदपारंगत, याज्ञिक और ज्योतिः शास्त्र को जानने वाले ब्राह्मण हैं उन्हीं को वहां से भिक्षा मिल सकती है । वह महामुनि इस प्रकार का उत्तर पाकर न क द्ध ही हुश्रा और न प्रसन्न ही। उस ने कहा कि तुम वेद, यश, धर्म और परमात्म तत्व को समझते ही नहीं हो। यदि जानते होतो बेतारो। वह याशिक ब्राह्मण मुनि के प्रश्नका उत्तरदेने में असमर्थ था। उसने हाथ जोड़ कर कहा:- महामुनि ! वेद, यज्ञ धर्म और परमात्म तत्व को मुझे बतायो । परमात्माद को किस
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( ६२ )
प्रकार पाया जा सकता है ? यह बताकर मेरा संशय दूर करो । परमात्मतत्व का वर्णन करते हुए महामुनि ने कहा:
-
नवि मुडिएण समणो, न श्रकारेण बम्भणो । न मुणो रत्रासेणं, कुसचीरेण न तावसो ||३१|| समयाए समणी होई, बम्भचेरेण बम्भणो । नाणेण य मुखी होई, तवेण होई तात्रसो ||३२|| कम्मुरणा बम्मणो होई, कम्मुरणा होई खत्तियो । वईसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवई कम्मुला ||३३|| अर्थात्ः -
कोई मनुष्य पुरुष सर मुंडाने से श्रमण नहीं बन सकता | कार के नापमात्र से ब्राह्मण नहीं बन सकता । जङ्गल में बास करने से मुनि नहीं बन सकता और न ही कुश चीर धारण से तपस्वी ही बन सकता है ।
समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या करने से ही मुनि बना जा सकता है । ब्राह्मण का कर्म करने से मनुष्य ब्राह्मण बन जाता है । क्षत्रिय का काम करने से क्षत्रिय, वैश्य का काम करने से वैश्य और शूद्र का काम करन से ही शूद बनता है ।
महामुनि ने कहा कि इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त जो वास्तव में द्विजोत्तम हैं वे ही परमात्म तत्व को समझते हैं ।
इसी प्रकार की कथा उत्तराध्ययन सूत्र के भी श्राती है । यह कथा हरिकेशी मुनि की है। जन्म एक चाण्डाल कुल में हुआ था । तपस्या के
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१२वें अध्ययन में हरिकेशी मुनि का प्रभाव से बे एक
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( ६३ )
प्रसिद्ध महर्षि बने। वे भी महामुनि की तरह जब भिक्षा के लिए यज्ञ मण्डप में गए तो याज्ञिकों ने उनका तिरस्कार किया और भिक्षा देने से इन्कार कर दिया। याशिकों की दृष्टि में वे भिक्षा के पात्र ही न थे। उनकी दृष्टि में यज्ञ मण्डप के भिक्षा पात्र बनने के लिये ब्राह्मण कुल में जन्म लेना परमावश्यक था । जब हरिकेशी मुनि ने भिक्षापात्र का वास्तविक स्वरूप बताया तो वह उन्हें कटु लगा और शक्ति में मत्त वे महामुनि को मारने लगे । तत्काल पक्षों ने मुनि की रक्षा की और मारने वालों को उचित्त दंड दिया। इस प्रकार मुनि के तपस्तेज का चमत्कार देखकर सब लोग हैरान रह गए और कहा:
सक्खंखु दीसई तवोविससो, न दीसई जाइविसेसेसुकोई । सोवागपुत्तं हरिएस साहुं, जस्सेरिसा इढि महाणभागा ॥३७॥ अर्थात्:
तप की विशेषता साक्षात् दिखाई देती है और बाति की विशेषता कहीं दिखाई नहीं देती । और चाण्डाल का पुत्र होकर भी हरिकेशी मुनि तपश्चर्या के प्रभाव से इतनी बड़ी ऋद्धि को प्राप्त
इस प्रकार जैन शास्त्रों में जहां भी वर्ण व्यवस्था का प्रकरण आता है । वहां वर्ण व्यवस्था कर्म से ही मानी गई है । जन्म को कोई महत्व नहीं दिया जाता। निस्सन्देह उत्तम कुल में उत्पन्न होना अाज की तरह अच्छी दृष्टि से देखा जाता था किन्तु समाज में श्रादर पाने के लिए उत्तम कुल में जन्म के साथ २ उत्तम गुणों का होना भी जैन समान में परमावश्यक था। कर्मगत वर्ण व्यवस्था की मर्यादा को बैन धर्म के श्रादि तीर्थकर भगवान् ऋषभ
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.( ६४ )
• स्वामी ने . बांधा था और उनके प्रवचन को अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी तक सारे तीर्थकर. श्रावक रूप से मानते और प्रचार करते रहे हैं। इसी सत्य की पुष्टि "जैन विद्या नामक पत्र में भगवान् महावीर स्वामी के जीवन पर लिखे लेख में जैन विद्वान् मुनि श्री कवि अमर चन्द बी "अमर" • ने भी की है।
श्राप लिखते हैं:.. "तत्कालीन शूद जातियों को भी भगवान् के द्वारा बड़ा सहारा प्राप्त हुश्रा । भगवान् वहां भी गए वहां सर्व प्रथम एक ही संदेश ले गए कि मनुष्य जाति एक है उसमें जातपात की दृष्टि से विभाग की कल्पना करना किसी प्रकार भी उचित नहीं । ऊंच नीच के सम्बन्ध में भगवान के विचार कर्म मूलक थे, जाति मूलक नहीं । भगवान् श्राज के उपदेशकों के समान मात्र उपदेश देकर ही रह गए हों यह बात नहीं । हरिकेशी जैसे चाण्डालो को अपने भिक्षु संघ में सम्मानपूर्ण अधिकार देकर उन्होंने जो कुछ कहा वह करके भी दिखा दिया । श्रागम साहित्य में एक उदाहरण ऐसा नहीं..मिलता . जहां भगवान् किसी राजा महाराजा अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय, के महलों में विराजे हों। हां पालासपुर में शब्दाल कुम्हार के यहां, विराजना उनकी पतित बन्धुता का वह उज्ज्वल श्रादशं है जो कोटि कोटि वर्षों तक अबरः अमर रह करे संसारको समभाव' का पाठ पढ़ाता रहेगा।" . . . .
इस प्रकार शास्त्रीय ऐतिहासिक तथा अन्य प्रमाणों से शठकों , को यह भलीभाँति पता चल गया होगा कि अनादिकाल से
जैन धर्म में वर्षयवस्था की मर्यादा कर्म मूलक ही..ही है। बन्म : मूलफ नहीं। श्रावकल कार्यरूप में बो बन्म मूलक बनी हुई है यह
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( ६५ )
इतर धर्मो का इस पर प्रभाव है । जैन समाज को चाहिए कि वह अपने उच्च सिद्धान्तों को कभी न भूले |
॥ बौद्धों में वर्णव्यवस्था ||
चौद्ध जातकों में (वा) अर्थात् वर्ण शब्द तो श्राता है किन्तु उसका प्रयोग जाति के अर्थ में नहीं किया गया । "वण्णा" इस शब्द से बौद्ध काल में वर्णव्यवस्था का अस्तित्व तो स्पष्ट प्रतीत होता है किन्तु बौद्धों की वर्णव्यवस्था भी जैनियों की तरह कर्ममूलक थी जन्म मूलक नहीं । कोई भी मनुष्य उत्तम कर्म से उत्तम वर्ण का बन सकता था । बौद्धधर्म में सब से उत्तम धर्म क्षत्रिय का और फिर क्रमेण ब्राह्मण वैश्य और शूद्र का माना जाता है । इस व्यवस्था में भी बौद्धधर्म जैन धर्म से बिल्कुल समानता रखता है । जैन धर्म में भी वास्तव में उत्तम वर्ण क्षत्रिय का माना है । लघ्वई नीति श्रादि राजनैतिक तथा अन्य अनेक जैन धर्म ग्रन्थों में यद्यपि वर्ण व्यवस्था का क्रम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही दिया है जिससे वैदिक वर्णव्यवस्था का ही पुष्टिकरण होता है किन्तु श्रादि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ स्वामी का मन्तव्य बिन्होंने सर्वप्रथम र्निग्रन्थ प्रवचन के अनुयाइयों को मर्यादा में बान्धा था उक्त सिद्धान्त को पोषण नह करता । श्रादिपुराण में लिखा है कि क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्णों की व्यवस्था ऋषभ देव ने और ब्राह्मण वर्ण की व्यवस्था ऋषभ देव के पुत्र भरत ने की थी। जिस प्रकार ऋग्वेद में ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्, इत्यादि मंत्र से यह स्पष्ट है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण भुजानों से क्षत्रिय, उरु से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा हुए उसी प्रकार की इन चार वर्णों की उत्पत्ति जैन ग्रन्थ श्रादि पुराण में भी बताई गई है । श्रादि पुराण में लिखा है कि ऋषभदेव ने हाथ
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( ६६ )
में तलवार लेकर क्षत्रिय वर्ण की, उरु से चलने का संकेत करते हुए गैश्यवर्ण की और चरणों से शूदों की उत्पत्ति की। ऋषभ देव के पुत्र सम्राट भरत ने शास्त्र पढ़ाते हुए मुख से ब्राह्मणों को पैदा किया।
. इस के अतिरिक्त कल्पसूत्र में जो महावीर स्वामी का जीवन चरित्र दिया गया है उससे भी जैन धर्म में क्षत्रिय की उत्कृष्टता सिद्ध होती है । भगवान् महावीर स्वामो पहिले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में पाए । तब देवताओं ने सोचा कि सारे तीर्थकर चत्रिय के उत्तम कुल में जन्म लेने आए हैं अतः यह अच्छा नहीं हुआ कि भगवान् महावीर स्वामी को ब्राह्मण के कुल में जन्म लेना पड़ेगा । देवताओं ने हरिनगमेशी देवता को गर्भ परिवर्तन का कार्य सौंपा। अन्त में हरिनैगमेशी देवता ने देवानन्दा ब्राह्मणी से उस गर्भ का अपहरण किया और त्रिशला त्रासी की कोख में उस गर्भ को स्थापना की। कुछ विद्वानों ने इस गर्भ परिवर्तन को असम्भव माना है और कुछ ने रज से वीर्य की प्रधानता मान कर भगवान् महावीर को ब्राह्मण बताया है किन्तु यहाँ हमें इन बातों से कोई मतलब नहीं । यहां केवल इस घटना का उल्लेख करने का यही अभिप्राय है. कि जैन धर्म में भी बोब धर्म की तरह क्षत्रिय जाति को ऊंचा माना गया है। जैनधर्म क्योंकि बौधर्म से प्राचीन है अतः संभव है कि वर्णव्यवस्था की इस मर्यादा को बौद्धों ने जैनधर्म से अपनाया हो!
अस्तु, बौद जातकों में यत्र तत्र ऐसे कई कथानक मिलते हैं बिन से बौद्धधर्म का कर्मगत वर्णव्यवस्था को मानना सिद्ध होता है । एक कथा में एक क्षत्रिय राजकुमार किसी सुन्दरी के प्रेम में फंस कर कुम्हार और रसोइये प्रादि के काम को भी करने लगता है। इसी
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( ६७ )
प्रकार एक राजकुमार अपनी बहिन के लिये राज त्याग कर वैश्य बन जाता है।
पाश्चात्य विद्वान् गइस डेविडस अपनी बौद्ध भारत' Buddh ist India नामक पुस्तक में लिखते हैं:
"प्रायः सभी समाजिक महत्व की श्रेणियों में स्त्री पुरुषों के पारस्परिक विवाहों के अनेक उदाहरण पुरोहितों के धर्मग्रन्थों में भी पाए जाते हैं । केवल यही नहीं किन्तु ऊंचे वर्णों के पुरुषों का नीच पर्ण की स्त्रियों से विवाह और नीचवर्ण के पुरुषों का ऊंचे वर्ण की कन्याओं के साथ विवाह इस के अनेक उदाहरण पाए जाते हैं ।"
बहुन से विद्वानों का तो कथन है कि जन्मगत वर्णव्यवस्था के विरुद्ध महात्मा बुद्ध ने जो प्रावाज उठाई थी उसी के परिणाम स्वरूप बौद्ध धर्म विश्र में व्यापक रूप से फैला। महात्मा बुद्ध के जन्म के पूर्व काल में जन्मगत वर्णव्यवस्था बहुत भय नक रूप धारण किये हुए थी। उस समय भारतीय समाज में ब्राह्मण ही सर्वसवा थे। उन्होंने जन्मगत बर्णव्यवस्था का प्रचार करके. समाज में अनुचित लाभ उठाया, और अपना स्वार्थ मिद्ध किया। उन्होंने जन्मगत वर्णव्यवस्था की स्थापना करके चारों वर्गों के लिये पृथक् पृथक कानूनों की रचना की जिनमें अपने लिये अनुचित दया की व्यवस्था की और छोटी जातियों के लिये अनुचित कठोरता की व्यवस्था दी। शूद्र जाति को अत्यावश्यक शिक्षा श्रादि अनेक बीवन की सुविधाओं से वंचित किया। ब्राह्मण वर्ण के लोग उस समय अपने उच्च आचरण से पतित होने लग गए थे और मानवता को भूल गए थे। ऐसे युग में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ। महात्मा बुद्ध ने अन्धविश्वास, अत्याचार और अन्याय का पूर्णशक्ति से विरोध किया और लोगों का कल्याण किया। इसी सत्य की पुष्टि करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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हुए सुयोग्य वैदिक विद्वान् पं० गंगाप्रसाद जी एम. ए. अपनी 'धर्म का श्रादि श्रोत' नामक पुस्तक के ३६ पृष्ठ पर लिखते है:
"बुद्ध के प्रादुर्भाव के कुछ पूर्व वैदिकधर्म के इतिहास में घोर अन्धकार का समय था। वेद और उपनिषदों का पवित्र और प्रशस्त धर्म अवनत होकर निरर्थक कृत्य और हिंसापूर्ण 'यज्ञादि' का स्वरूप प्रहण कर चुका था। वैदिक वर्णव्यवस्था जो प्रारम्भ में गुण कर्मानुसार थी बिगड़ कर वंश परम्परागत जातिभेद में परिवर्तित हो गई थी। इस का यह परिणाम हुअा कि ब्राह्मण लोगों ने केवल 'जन्म से' अपनेको बड़ा मान कर वेदाध्ययन तथा उन सद्ग्रन्थों को त्याग दिया जिनक कारण उनके पूर्वजों की समुचित प्रतिष्ठा की जाती थी। यह सदाचारिक
और धार्मिक अधः पतन केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित न रह सका। सन्यासी लोग भी धार्मिक-ज्ञान प्रान्तरिक पवित्रता, मधुरशीलता प्रादि बातें छोड़ कर तपस्या का केवल बाहरी श्राडम्बर दिखलाने को रखते थे। साधारण लोग भी वैसे सीधे, सच्चे, पवित्र और सद्गुण सम्पन्न न रहे जैसे कि वैदिक काल में थे। वे लकीर के फकीर और विलास प्रियता के चेले चन गए। प्राचीन आर्यों के सात्विक भोजन का स्थान प्रामिषाहार ने छीन लिया। उसे शास्त्रोक्त सिद्ध करने के अभिप्राय से यशों में पशुओं का वध किया जाता था और उनके मांस से पाहुति दी जाती थी।
बुद्ध के प्रादुर्भाव के समय वैदिकधर्म या यों कहिये कि श्राओं की ममाजिक स्थिति इस प्रकार को हो गई थी। बुद्धदेव के हृदय पर पशुबलि दान और जातिभेद इन दो बुराइयों का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन का कोमल और प्रेम-पूर्ण हृदय धर्म के नाम पर इतने निरपरात्र पशुओं के रक्त प्रवाह को न सह सका। उनका पवित्र श्रात्मा इस
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[
६]
निकृष्ट और अन्यायपूर्ण जातिभेद के विरुद्ध संग्राम करने को उद्यत हो गया । और इसमें उन्होंने मनुष्यमात्र के लिये सच्चा प्रेम और उनके अाधार के लिये विशेष उत्साह दिखाया। वस्तुतः यह बुराई इतनी अधिक हो गई थी कि बुद्ध भगवान् के पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने भी उसे बुरा कहा था। सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सब बातोंमें इस जातिभेद की व्यापकता हो गई थी। यहां तक कि देश के कानून पर भी उस का प्रभाव पड़ चुका था। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिये पृथक् पृथक कानून बन गए थे । ब्राह्मणों के ऊपर अनुचित दया और शूद्रों के साथ अनुचित कठोरता का व्यवहार किया जाता था। ये बातें बहुत दिनों तक नहीं ठहर सकती थीं । शूद्र कितने ही धार्मिक और गुणवान् क्यों न हों परन्तु न तो उन्हें धार्मिक शिक्षा देने का ही कहीं प्रबन्ध था और न उनकी समाज में ही कुछ प्रतिक्षा थी। वे लोग इन बेड़ियों को तोड़ फेंकने के अवसर की त.क में बैठे थे। वे इस निर्दय प्रथा के पंजे में फंसे हुए थे, जिस ने उन्हें उच्च सोसाइटी के संसर्ग से बुरी तरह बहिष्कृत कर रखा था। उनकी लालसा थी कि इस स्थिति में परिवर्तन हो । द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसे अनेक उच्चाशय उदार प्रकृति पुरुष थे जो उनकी इस लालसा से सहानुभूति रखते थे। अतएव 'कान्ति' का समय आगया था और इस विचार के लिये असाधारण दूरदर्शिता की आवश्यकता न थी कि समय आवेगा जब लोग इस हानिकर प्रथा के विरुद्ध युद्ध मचा कर अपनी बेड़ियों को तोड़ डालेंगे। वह अवसर प्रागया । राजकुलो. त्पन्न एक क्षत्रिय ने घोषणा की कि समाज में मनुष्य की स्थिति जन्मसे नहीं प्रत्युत गुणों से होती है । असंख्य मनुष्य उसके चारों ओर एकत्रित हो गए । ऐसी दशा में हम सहज ही में इस बात का अनुमान कर सकते है कि अत्याचार के भार से दबे हुए शुद्र लोग किस उत्साह से उनकी
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( ७० )
बातें सुनते होंगे । बहुत से द्विजन्मा आर्य लोग भी उनके पवित्र धार्मिक उद्देश्य से सहमत हो गए और बौद्ध धर्म देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैल गया।"
इस प्रकार महात्मा बुद्ध ने जाम मिद्ध जाति-व्यवस्था का विरोध और खण्डन करके उच्च कहलाने वाली जातियों के अन्याय
और अत्याचारों में पिसती हुई दलित जाति को अपने गले लगाया । और मनुष्य जाति को मानवता का सच्चा मार्ग प्रदर्शित
किया ।
अगस्त १९४० के 'अनेकान्त' पत्र में श्री हा. वी. एल जैन ने महात्मा बुद्ध के उच्च कुल और उच्च जाति के विषय में महावाक्य इस प्रकार दिये हैं।
"ऊंची जाति, पुराना कुल, बाप दादा से पाया हुश्रा धन, पुत्र पौत्र, रूप रंग श्रादि का जो अभिमान करता है। उसके बराबर कोई मूर्ख नहीं । क्योंकि इन के पाने के लिये उसने कौनसी बुद्धि खर्च की। किसी बुद्धिमान् ने कहा है कि जो लोग बड़े घराने के होने की ढोंग मारते हैं वे उस कुत्ते के सहश हैं जो सूखी हड्डी निचोड़ कर मगन होता है।"
महान् पुरुष के लक्षण है-(१) जिसे दूसरे की निन्दा बुरी लगती है और ऐसी बात को अनसुनी करके किसी से उसकी चर्चा नहीं करता । (२) जिसे अपनी प्रशंमा नहीं सुहाती पर दूसरे की प्रशंसा से हर्ष होता है। (३) जो दूसरों को सुख पहुंचाना अपने सुख से बढ़ कर समझता है। (३) जो छोटों से कोमलता और
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( ७१ )
दया भाव तथा बड़ों से श्रादर सत्कार के साथ व्यवहार करता है। ऐसे पुरुष को महापुरुष कहते हैं । केवल धन या ऊंचा कुल या जाति और अधिकार से महानता नहीं आती।"
अनेक योग्य विद्वान् और देश हितैषी पुरुष जिनकी कीर्ति की ध्वजा हजारों वर्ष से संसार में फहरा रही है, प्रायः नीचे कुल से उत्पन्न हुए थे । ऊंचे कुल और ऊची जाति का होने से बड़ाई नहीं आती। प्रकृति पर ध्यान करो तो यही दशा जड़खान तक चली गई है कि छोटी वस्तुओं में बड़े रत्न होते हैं-देखो कमल कीचड़ से ही निकलता है, सोना मिट्टी से, मोती सीप से, रेशम कीड़े से, जहरमोहरा मेंडक से, कस्तूरी मृग से, अाग लकड़ी से, मीठा शहद मक्खी से, ("महात्मा बुद्ध")
इस के अतिरिक्त बौद्धों में जो शुद्धि का प्रचार था वह कर्म मूलक वर्णव्यवस्था के कारण ही चल सका। यदि बौद्धों में शुद्धि का प्रचार न होता तं। बौद्ध धर्म इतना महान् धर्म कभी न बन पाता जितना कि आज है।
इस प्रकार वैदिक, जैन बौद्ध इन तीनों महान् धर्मों में वर्णव्यवस्था प्रारंभ से ही जन्म से नहीं मानी जाती थी किन्तु इसका अाधार योग्यता पर अवलम्बित था । जो मनुष्य विद्या, सत्य, सदाचार, अध्ययन और अध्यात्मिक विद्या में उत्कृष्ट योग्यता प्राप्त कर लेता था वह ब्राह्मण बन जाता था, जो वीरता के काम में नैपुण्य प्राप्त करता था वह क्षत्रिय कहलाता था, बो वाणिज्य और शिल्पकला में प्रख्याति प्राप्त करता था वह वैश्य कहलाता था और जो सेवाभाव में अपना जीवन लगाता था उसको लोग शूद्र समझते थे । तीनों धर्मों के सिद्धान्त किसी भी व्यक्ति को देवयोग से शूद्र कुल
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( ७२ )
में उत्पन्न होने के कारण प्राजन्म नीच कार्य करने को वाध्य नहीं करते थे । मानव समाज का संगठन योग्यता और उत्कृष्टता के सिद्धान्तों पर अवलम्बित था। देशकाल और परिस्थिति के परिवर्तन के कारण वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों धर्मों में भेदक विचार अवश्य उत्पन्न होते गए किन्तु तीनों के अन्तस्तल में एक ही संस्कृति की झलक पूर्ववत् ही विद्यमान है। शुद्ध भारतीय जीवन रेखा अति प्राचीनकाल से तीनों धर्मों का प्राधार रही है । अनेक युगों से भारत के जीवन के प्रवाह को प्रसारित करने वाली सरिता एक ही है। किन्तु प्रवाह भिन्न है। एक ही वृक्ष की अनेक शाखायें है और एक ही सूर्य की अनेक किरणे हैं।
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SKWEKERKEKEKEKEKKEL
ULL
जैन धर्म में स्त्री का स्थान
KAIKKEKAKKAKAKKER
अनेक सदियों से भारत की प्रायः सभी जातियों और धर्मों में स्त्रो का स्थान बहुत गिर चुका है । उसको मनुष्य से नीची श्रेणी का समझा बाने लगा है और अनेक सामाजिक सुविधाए जो पुरुष को प्राप्त है स्त्री उन से वंचित है । पुरानी रूढ़ियों के रङ्ग में रङ्ग हुए और अपने को एक मात्र प्राचीन भारतीय संस्कृति का खज़ाना मानने वाले बहुत से लोग अाज भी जब कि संसार के और भागों के लोग बहुत
आगे बढ़ चुके हैं स्त्री जाति को पुरुषों की काम वासना की तृप्ति का साधन या सन्तानोत्पत्ति की मशीन मात्र समझते हैं। उसको अबला कहा जाता है और अनेक दुर्गुण उसके सिर पर लादे जाते हैं। बहुत से दोष तो प्राकृतिक रूप में जन्म से ही उसमें माने जाते हैं । मनु महाराज जी लिखते हैं कि:
स्वभाव एव नारीणां नाराणामिह दूषणम् । अतोऽर्थान्न प्रमादयन्ति प्रमदासु विपश्चितः ।। अविद्वांसमलं लोके विद्वान्समपि वा पुनः ।
प्रमदा झुत्पथं नेतु कामक्रोधवशानुगम् ।। अर्थात्:- इस लोक में पुरुषों को विकार ग्रस्त कर देना यह तो नारियों का स्वभाव ही है इसी लिये बुद्धिमान् पुरुष नारियों को प्रोरसे कभी असावधान नहीं रहते । संसारमें कोई मूर्ख हो,चाहे विद्वान् कामक्रोध के वशीभूत हुए पुरुष को स्त्रियां अनायास कुमार्ग में लेजा सकती है।
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( ७४ )
इस कथन में यह स्पष्ट बताया गया है कि स्त्री का यह स्वभाव ही है कि पुरुष को दूषित करदे । उसको कुमार्ग की ओर ले बाय । पुरुष को यह चेतावनी दी गई है कि वह स्त्री से सदा सावधान रहे । पुरुष स्त्री से उत्तम नो ठहरा । वह न तो स्वभाव से स्त्री को दूषित कर सकता है और न उसे कुमार्ग की ओर ले जा सकता है । वास्तव में बात यह है कि सदियों से राज्यसत्ता और लेखनी दोनों पुरुषों के हाथ में रही है। उसने अपनी सुविधा के अनुसार जैसा ठीक समझा वैसा सामाजिक नियम बनाया और लिख डाला । स्त्री जाति को उसने ऐसे आर्थिक बंधन में बांधा है कि उसे स्वतन्त्रता में कार्य करने की बात तो दूर रही किन्तु स्वतन्त्ररूप से सोचने की सुविधा भी न रही। मानसिक वृत्तियों के उचित विकास के लिए सब से परमावश्यक शिक्षा होती है । समाज को अवनति के गर्त में गिराने वाले लोग स्त्री शिक्षा का भी विरोध करने लगे और बहुत काल तक व्यापकरूप से स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दु समाब दिनोंदिन अवनति की
ओर बढ़ती गई और अन्त में गुलामी तक की नौबत आई । बहुत सी बातियां आपत्ति प्राने पर अपनी भूलों को पहचान लेती है
और उन्हें पुनः दुहराती नहीं। हमारे दुर्भाग्य से या अज्ञानता से हम परवशता के लम्बे समय में भी अपनी भूलों को न सुधार सके और उनके दुष्परिणामों में पिसते रहे।
अस्तु, मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम स्त्री जाति के वास्तव गौरव को भूल गए तो हमें बड़ी हानि उठानी पड़ी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि समय २ पर भारतीय राजनीतिज्ञों तथा अन्य सुयोग्य विद्वानों ने स्त्री जाति को बहुत ऊंचा उठाया है किन्तु नीचा स्थान देने वाले विद्वानों ने तो इस बाति पर विशेष
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( ७५ )
ही कृपा की है । वे कहते हैं कि स्त्रो यदि कुरूप हो या अन्य कोई साधारण भी दोष हो तो पुरुष को अधिकार है कि तुरंत किसी दूसरी सुदरी से अपने घर की शोभा बढ़ा सकता है । और यदि एक से सन्तुष्ट नहीं तो दस, बीस पचास सौ जितनी भी चाहे अपनी वासना पूर्ति के लिए रख सकता है किन्तु स्त्री का पति तो:
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जड़ो रोग्यधनोऽपिवा । पतिः स्त्रोभिन हातभ्यः...........
..........॥
अर्थात्:-पति चाहे क्रूर स्वभाव का हो, अभागा हो, वृद्ध हो मूर्ख हो. रोगी अथवा निर्धन हो पत्नी को चाहिये कि वह कभी उसका स्याग न करे।
पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री को अवश्य उसके साथ सती हो जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से ही अागामी जीवन में उसी पति को पा सकती है । यह आदर्श पुरुष ने केवल स्त्री के लिए ही रिजर्व रखा है। यदि स्त्री की मृत्यु हो जाए तो पुरुष को उसके साथ बल मरने का कहीं विधान नहीं है । उसे दूसरे जन्म में वही इस बन्म पाली पत्नी मिले यह चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं । ऐसी चिन्ता स्त्री जाति के ही हिस्से में ही आती है।
___इतना ही नहीं गोदान, कनकदान, और रजतदान की तरह स्त्री दान का भी विधान मिलता है । बहुपत्नी वाले यजमानों से सुन्दर पलियों के हड़पने के लिये उच्च कुलोत्पन्न प्राचार्यों ने सुरन्त इस महामन्त्र की रचना कर दी।
सर्वेष्वेव दानेष भार्यादानं विशिष्यते।
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( ७६ )
अर्थात् सब दानों से उत्तम दान भार्यादान करने का है । इस प्रकार स्त्री को रुपये पैसे की तरह दान की सामग्री भी बनाया गया ।
न के लोभी घरानों में तो कन्या की विक्री श्राजकल भी प्रचलित है ।
पुत्र के जन्म पर लोग बधाई देने श्राते हैं और कन्या के जन्म पर सब की नानी मर जाती है । जिन स्त्रियों के सब कन्यायें उत्पन्न होती हैं लोग उनके दर्शन करना पाप समझते हैं और पति
।
उनको छोड़कर दूसरे विवाह कर लेते हैं जिस स्त्री के कोई सन्तान न होती हो तो दोष चाहे पुरुष का ही हो किन्तु वह भी स्त्री के गले मढ़ दिया जाता है। नव विवाहिता वधू के आने के बाद घर में यदि कोई दुर्घटना हो जाए तो वह भी उसी बेचारी के कर्मों का परिणाम समझा जाता है। अधिक कहां तक लिखा बाय दुनिया भरके दोष स्त्री पर थोपे जाते हैं । महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है:
अन्तकः पत्रनो मृत्युः पातालं वडवामुखम् । तुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः ||३८|२६
अर्थात्ः - बम, वायु, मृत्यु पाताल, वडवानल, छुरे की धार, विष, सर्प और श्रम के साथ नारी की तुलना की जा सकती है ।
चिरकाल से चले श्राते स्त्री जाति के इस अपमान के प्रवाह
में परम भक्त महात्मा कबीर दास भी बह गए । ज़रा उन की विचार धारा पर ध्यान डालिये:
नारी की झांई परत अंधा होत भुजंग,
कबीर तिन की कौन गति, नित नारि के संग ॥
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( ७७ )
कामिनी सुन्दर सर्पिणी, जो छेड़े तिहि खाय ।
जे गुरु चरनन रचिया, तिनके निकट न जाय ॥ पर नारी नी छरी मति कोई लावे अङ्ग ।
रावण के दस सिर गए, पर नारी के मङ्ग। नारि निरखि न देखिये, निरखि न कीजे दौर ।
देखे होते विष चढ़े, मन आवै कछु और ।। नारि नाहिं जम अहै, तू मन राचे जाय ।
मंजारो ज्यों बोलिकै, काढ़ि कलेजा खाय । नैनों काजर पाइके गाढ़े बांधे केस,
हाथों महंदी लाईक, वाघिनि खाया देस ॥ इस प्रकार समाज को अवनति की ओर ले जाने वाले अन्ध विश्वासी और संकुचितवृत्ति के कूपमंडूकों की कृपा से भारत में स्त्री को अनेक कुत्सित अपमानों का भाजन वनना पड़ा है । ऐसी स्थिति में यदि भारतीय नारी अपनी जाति को पाप कर्मों का फल या ऐश्वरीय अभिशाप समझे तो स्वाभाविक ही है। परन्तु अब विचारणीय बात यह है कि क्या अनादिकाल से वास्तव में स्त्री जाति को इसी दृष्टि से देखा जाता रहा है ? इसका उत्तर यहीं मिलता है-कदापि नहीं । इस में सन्देह नहीं कि चिरकाल से स्त्री जाति को अनेक यन्त्रणाश्रो का सामना करना पड़ा है और उसने बड़े २ राक्षसी अपमान सहे हैं किन्तु वास्तव में जब हम भारतीय संस्कृति की गहराई तक पहुंचते है तो स्त्री जाति का स्थान बहुत ऊंची पाते हैं । पुरुष की सब क्रियाएं स्त्री के बिना अपूर्ण होती हैं। क्रियायें ही क्यों वह स्वयं उसके बिना अपूर्ण है। पत्नी को 'अर्धाङ्गिनी' अर्थात् पुरुष का अाधा अङ्ग माना जाता है । अतः पुरुष स्त्री के बिना पूर्णाङ्ग नहीं कहा जा सकता विष्णु पुराण के चौथे अध्याय में लिखा है :
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( ५
)
अर्धनारी नरवपुः प्रचण्डोऽति शरीरवान् ।
विभजात्मानमित्युक्त्वा तं ब्रह्मान्तर्दधे ततः ॥ अर्थात्
सृष्टि के प्रारम्भ में रुद्र प्राधे शरीर से पुरुष और श्राधे से स्त्री हुए। यह देवकर ब्रह्मा को सन्तोष हुआ और उन्हों ने कहा कि अब इम का विभाग करो और सृष्टि चलाओ। किसी भी वस्तु का यदि विभाग कर दिया जाय तो उसके मूलाधार में फरक नहीं पड़ सकता । एक विशाल सरिता के अनेक प्रवाह होने पर भी मूलश्रोत एक ही रहता है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष दोनों का मूल आधार एक ही है अतएव दोनों समान हैं । दोनों में ऊँच नीच कोई नहीं। इसी प्रकार भविष्य पुराण के सातवें अध्याय में लिखा है:
पुमानद्धपुमांस्तावद्यावद्भार्या न विन्दति ।।
अर्थात्: - पुरुष का शरीर तब तक पूर्णता को प्रास नहीं कर सकता जब तक कि उसके श्राधे अङ्ग को पत्नी आकर नहीं भर देती।
उसी पुराण में एक और ऐसा ही श्लोक श्राता है:___एकचक्रो रथो यद्वदेकपक्षो यथाखगः ।
श्रमार्योंऽपि नरस्तद्वदयोग्यः सर्व कर्मसु ।।
अर्थात्:-जैसे एक पहिये का रथ नहीं चल सकता और एक पंख से कोई पदी उड़ नहीं सकता इसी प्रकार भार्या से रहित पुरुष भी किसी भी काम को करने में समर्थ नहीं हो सकता।
गृहस्थाश्रम भी एक रथ के समान है जिस के स्त्री और पुरुष दो पहिये हैं। दोनों पहिये समान और दृढ़ होंगे तभी जीवनयात्रा सुचारुरूप से चल सकती है। दोनों में से यदि एक भी बोरा या
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( संह )
कमजोर होगा तो कहीं भी जीवन यात्रा भंग हो सकती है । श्रतएव गृहस्थाश्रम के रथ की सुन्दर गति के लिये स्त्री और पुरुष दोनों का समान रूप से ढ़ और सबल होना परमावश्यक है ।
स्त्री 'शक्ति' है तो पुरुष उस शक्ति का संचालक है । शक्ति 'अबला' नहीं हो सकती । वह 'सबला' है । हमारे देश में सिंह को
वाहन बनाने वाली दुर्गा की पूजा होती है जो शक्ति का देवता मानी जाती है | भारत में यदि स्त्री अबला वन गई है तो यह हमारी सामाजिक व्यवस्था या पद्धति का परिणाम है । हमारे समाज का निर्माण ही इस प्रकार का है कि पुरुष पौरुप प्रधान है और स्त्री आर्थिक बन्धनों में जकड़ी हुई दासी के समान है जिसे अनेक सदियों से व्यापकरूप में अपनी शक्तियों का विकास करने का मौका नहीं दिया गया। जब कभी मौका दिया गया तो पुरुष के बराबर रहने की तो बात ही क्या है कई बार वह उन से भी आगे बढ़ जाती है । वास्तव में प्रारंभ में स्त्री या पुरुष किसी को भी जिस ढांचे में डाल दिया जाय वह वैसा ही बन जाता है । जहां पुरुषों को आजीविका के लिये कठिन परिश्रम करना पड़ता है वहां पुरुष बलवान् और स्त्रिय निर्बल रह जाती हैं और जहां पुरुष की अपेक्षा स्त्रियें कठिन शारीरिक परिश्रम करती है वहां पुरुष निर्बल रह जाते हैं और स्त्रियां बलवती होती हैं । आज ऐसी अनेक पहाड़ी जातियें हैं जिन में पुरुष घर का काम संभालते हैं और स्त्रियें बाहर के कृषि श्रादि कठिन कार्य को करती है । वहां स्त्रियँ बलवती होती हैं और पुरुष निर्बल । श्रतएव स्त्रियों का बलापन कोई स्वाभाविक दोष नहीं है किन्तु सामाजिक जीवन के संगठन का परिणाम है ।
प्राचीन इतिहास और धर्म ग्रन्थों के पढ़ने से पता चलता है
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( ८० )
कि जब २ स्त्री जाति को उसकी शक्तियों के विकास के लिये उचित मौका दिया गया तो वह किसी क्षेत्र में पुरुष से कम नहीं रहो। जिन कार्यों को पुरुषों ने किया उनको स्त्रियां भी कर लेती थीं। विद्या के क्षेत्र में ही देखिये । जिस प्रकार वेदों में प्राचीनतम ऋग्वेद के मंत्रों के बनाने वाले या द्रष्टा (पुरुष) ऋषि थे इसी प्रकार लोमशा, घोषा, विश्वावारा इन्द्राणी और आपाली आदि स्त्रियां भी वेदमंत्रों की ऋषि थीं। गार्गी और सरस्वती की विद्वत्ता से सब परिचित हैं ही। आज कल भी अमेरिका में भारत की राजदूत श्री विजय लक्ष्मी पण्डित और स्वर्गीय उत्तर प्रदेश की गवर्नर श्रीमती सरोजनी नायडू की विद्वत्ता से कौनसा भारतीय परिचित नहीं है । भारत ही क्यों भारत की इन भर्तय माताओं की विद्वत्ता विश्वभर में प्रख्यात है। इसी प्रकार विदेशों में भी मैडल क्यूरी श्रादि अनेक महिलाओं ने विज्ञान क्षेत्र में बड़े २ अविष्कार करके कमाल कर दिया है । इसी प्रकार वीरता के क्षेत्र में भी स्त्री पुरुष से पीछे नहीं रही। पुरुषों की भान्ति स्त्रियां भी बड़े २ संग्रामों में वीरता दिखाती श्राई हैं । मुद्गल पत्नी इन्द्रसेना ने बड़ी चतुराई से संग्राम में रथ हांका था और बड़ी वीरता से उस ने इन्द्र के शत्रुओं का नाश किया था। अस्त्र संचालन कला में वह बड़ी प्रवीण मानी जाती थी। जब शत्रु गऊएं चुराकर जाने लगे इस वीर नारी ने उन से ऐसा युद्ध किया कि वे गौएं वह छोड़कर अपनी जान लेकर भागे।
पुराने समय को छोड़कर भारत पर मुग़ल और अंगरेज़ी शासन के कुछ उदाहरण लीजिये । रानी दुर्गावती ने आसफ़खो को कैसे संग्राम भूमि में पछाड़ा था। अमरसिंह राठौर की वीरपत्नी किस प्रकार लड़ते लड़ते अपने पति की लाश मुग़ल कोर्ट से उठा लाई थी। कोहापुर की रानों ताराबाई, रक्तकारन बी की अनुवाई,
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( ८१ )
इन्दौर को ग्रहल्याबाई तथा झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई ने बड़ी ही चतुराई से राज्य शासन भी चलाया और युद्ध भी किये । ताराबाई की कूटनीति के कारण श्ररङ्गज़ेब को बुरी तरह मार खानी पड़ी । अनुबाई ने अनेक बार शत्रुत्रों को हराया । लक्ष्मीबाई ने अंगरेजों के नाक में दम कर दिया था ।
पुरुष की तरह राज्यसत्ता भी स्त्रियों के हाथ में रह चुकी है और उसे बड़ी प्रवीणता से वे चलाती रही हैं । दक्षिण भारत में कुछ शिलालेख ऐसे मिले हैं जिन से स्त्रियों का राज्यशासन में भाग लेना सिद्ध होता है । सातवीं शताब्दी के मध्य भाग में चालुक्य वंश के राजा श्रादित्य की महिषी विजयमदारिका बम्बई के दक्षिण में राज्य करती थी । १०५३ ईस्वी में चालुक्य राजा सोमेश्वर की महारानी मैलादेवी बनवासी प्रान्त पर राज्य करती थी । जयसिंह तृतीय की बहिन अक्कादेवी १०२२ ईस्वी में किसुकद जिले पर राज्य करती थी । १०७६ ई० में विजयादित्य की बहिन कुंकुमदेवी कर्नाटक के धारवाड़ जिले पर शासन करती थी । इस से यह स्पष्ट है कि शासन कार्य में भी स्त्री पुरुष की भांति ही बड़ी पटु रही है और बड़ी गंभीरता से राज्य के सब कार्यों का संपादन करती रही है ।
इस प्रकार शिक्षा, विज्ञान, बीरता और राज्यशासन आदि सभी सामाजिक क्षेत्रों में स्त्री पुरुष के समान ही प्रख्याति प्राप्त करती आई है । फिर कोई ऐसा कारण दृष्टिगोचर नहीं होता कि स्त्रियों का पुरुषों के समान सम्मान न किया जाय ।
श्राचरण, सहनशीलता, त्याग, तपस्या, प्रेम, कृतज्ञता, साहस, सेवा और श्रद्धा इन गुणों में तो समानता नहीं कर सकता । सीता, सावित्री, पार्वती,
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करुणा, उपकार,
पुरुष भी स्त्री की द्रौपदी और दम
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( ८२ )
यन्ती आदि अनेक हिन्दू महिलाओं के चरित्र इस सत्य के अलन्त उदाहरण हैं । रावण जब सीता को बलात् उठा कर ले गया तो लंका में जाकर उसने सीता को बहुत लालच दिये, प्रार्थना की और बहुत डराया भी किन्तु उस के कहने की बिल्कुल अवहेलना करते हुए सीता ने जो कुछ कहा वह भारतीय नारी के गौरव को सदा बढ़ाता रहेगा । सीता ने कहा:
-
चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम् । रावणं किं पुनरहं कामयेयं विगर्हितम् ॥
--
अर्थात्ः - इस निशाचर रावण से प्रेम करने की बात तो दूर रही मैं तो इसे अपने बांए पैर से भी नहीं
छू
सकती ।
इसी प्रकार प्रजा के अनुरंजन के लिये राम ने अपनी प्राणवल्लभा सीता को बन में त्यागने का निश्चय कर लिया । सीता उस समय गर्भवती थी । जंगल में छोड़ने का भार लक्ष्मण पर छोड़ा गया और सीता को यह रहस्य घर पर नहीं बताया गया । जंगल में छोड़ते हुए लक्ष्मण ने जब सीता को यह बताया कि राम ने उसका त्याग कर दिया है तो सीता को यह वज्रपात के समान लगा जनता के समक्ष सीता की अग्नि परीक्षा हो चुकी थी और यह सिद्ध हो चुका था कि उस का चरित्र निर्मल था फिर उसपर संदेह क्यों किया जाय ? फिर गर्भावस्था का समय । कितना कठिन है ऐसी घोर विपत्ति में धीरज रखना ? परन्तु सीता मानती थी कि उस के पति मर्यादा पुरुषोत्तम है । वे उसका बुरा कभी नहीं चाह सेकते । उसने लक्ष्मण से कहा :
―
कल्याण वुद्धेरथवा तवायं न कामचारो मयि शंकनीयः । ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूर्जथुर प्रमेयः ॥
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( ८३ )
श्रयात्:- राम कल्याण बुद्धि ठहरे वे अपने प्रिय पात्रों के कल्याण की कामना करने वाले हैं। वह मेरे लिये किसी प्रकल्याण की वस्तु की क्या कभी कल्पना भी कर सकते हैं । यह सब मेरे ही जन्मान्तर के पापों का फल है।
ये हैं उच्चावरण और सहनशीलता को पराकाष्ठा के आदर्श उदाहरण जो भारत की नारियों ने संसार के सामने रखे हैं।
कला कौशन और भौतिक विद्या में तो पाश्चात्य देशों को महिलाएं भी बड़ी उन्नति कर गई हैं किन्तु भारतीय नारी में जो खास विशेषता है वह है ब्रह्म विद्या के क्षेत्र में उतरने की ! यह तपस्यापूर्ण
आध्यात्मिक विशेषता अन्य देश की स्त्रियों में कम ही मिलती है । याज्ञवल्क्य ऋषि संसार के जीवन से विरक्त हैं। गए । जब वह अरण्य में जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी मैत्रेयी से जाने की आज्ञा मांगी। मैत्रेयी को ऐश्वर्य धन दौलत देते हुए याज्ञवल्क्य ने कहा कि तुम संसार में रह कर स पन और शान्तिमय जीवन व्यतीत करना । इसके उत्तरमें मैत्रेयी ने कहा:येनाहं नामृता स्यां तेनाहं किं कुर्याम् ॥
(वृहदारण्यक) अर्थात्:- क्या मैं इस धन दौलत से अमर हो जाऊँगी जिससे मुझे अमरता प्राप्त न हो उस वस्तु को लेकर मैं क्या करूँगी १ भोगों में कभी शान्ति नहीं मिला करती। भारत की स्त्री के इस प्रकारके प्राध्यास्मिक और सत्यपूर्ण उदाहरण स्त्री जाति के महान् गौरव को सदा बढ़ाते रहेंगे।
___इस प्रकार जब हम प्राचीन भारतीय साहित्य का विश्लेषण करते हैं और उस की गहराई तक पहुंचते हैं तो इस निर्णय पर पहुँचते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ८४ )
हैं कि भारत की संस्कृति में स्त्री का स्थान बहुत ऊँचा है। पुरुष और स्त्री दोनों का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है । दोनों एक दूसरे के बिना नही रह सकते। पुरुष जनक है तो स्त्रो जननी है। भारतीय संस्कृति में जननी का स्थान बहुत ऊँचा है:
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अर्थात्:- जनन और जन्मभूमि ये दोनों स्वर्ग से भी बढ़ कर हैं । जहां और बहुत से देश अपने देश को पितृभूमि कहते हैं हम अपने देश को मातृभूमि के नाम से पुकारते हैं। यह मातृत्व के प्रति असीम श्रद्धा का ही परिणाम है कि भारतीय द्वन्द नामों में भो प्रथम स्थान स्त्री को दिया जाता है। जैसे- सीता राम, राधाकृष्ण, गौरीशंकर, स्त्री पुरुष और माता पिता आदि। इन सब नामों में स्त्री का स्थान पहिले है। इस का कारण यही है कि स्त्री में मातृत्व का माधुर्य और महत्व है । पुरुष उस के बिना कुछ नहीं कर सकता और वह पुरुष को सन्मार्ग दिखाने वाली है और उस के भविष्य का निर्माण करने वाली है । जिस राष्ट्र की माताएं सुयोग्य हों वहां महापुरुष जन्म लेते हैं । भगवान् राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध और गांधी आदि अनेक महात्माओं
और महापुरुषों को माताश्रों ने ही जन्म दिया अतएव मनु महाराज के इस महावाक्य को कभी नहीं भूलना चाहिये:यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः । यत्रतास्तु न. पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः ॥
मनु श्र. ३ श्लोक ५६. अर्थात्:- जिस किसी भी कुल में स्त्रियों का पूजन या प्रादर सत्कार भली प्रकार होता है उस कुल पर देवता तक प्रसन्न रहते है।
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( ८५ )
और जहां स्त्रियों का अपमान होता है वहां सभी कर्म निष्फल होते हैं ।
आगे फिर मनु जी लिखते हैं:शोवन्ति जामयो यत्र विनश्यात्याशु तत्कुलम् । न शो वन्ति तु यत्रताः वर्धते तद्धि सर्वदा ।
मनु. अ. ३, श्लोक ५७.
अर्थात्:- जिस किसी कुल की बहुबेटियां किसी प्रकार का क्लेश पाती है वह कुल शोघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु जहां पर इन्हें किसी तरह का क्लेश नहीं होता वह कुल सब प्रकार सुख सम्पन्न रहा करता है।
॥ जैन धर्म में ॥
___ स्त्री के लिये अाहत स्थान देने वाले वैदिक धर्म की तरह जैन धर्म में भी स्त्री को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है । किसी भी संस्कृति की उच्चता की कसौटी स्त्री के प्रति तत्कालीन समाज का व्यवहार है। जैन संस्कृति में अनादिकाल से स्त्री जाति को बड़े आदर सत्कार और श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है । जैनधर्म के अवतारों को तीर्थकर नाम से पुकारा जाता है। तीर्थंकर का अर्थ है तीर्थों की स्थापना करने वाले। तीर्थ चार हैं, श्रावक, श्राविका, साधु और साध्वी । श्रावक के साथ श्राविका को और साधु के साथ साध्वी को समान रूप से धर्माचरण की आज्ञा दी है । सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, और सम्यग् चारित्र ये तीन जैन धर्म के रत्न माने जाते हैं। इन तीनों को उचित रीति से जीवन में उतारने के लिये शिक्षा नितान्त श्रावश्यक है जिस का विधान जैनधर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये समान है। जैनधर्म ग्रन्थों में लिखा है आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ८६. )
लिये लेखन कला का आविष्कार किया। उन्हीं की पुत्री के नाम पर लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा। आज कल जो नागरी लिपि प्रचलित है इस का प्राचीन नाम ब्राह्मी है । इस से यह स्पष्ट है कि जैनियों के तो
आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव भी पुरुष की भांति स्त्री को सुशिक्षित बनाना परमावश्यक समझते थे। अतः जेन समाज में स्त्री शिक्षा का प्रचार और अधिकार अनादिकाल से चला पाता है । नन्दोत्तरा नाम का जैन श्राविका की विद्वत्ता से कौन जैन परिचित नहीं। वह शास्त्रार्थ के निये बहुत प्रख्यात था। उसने हो बौद्धाचार्य महामौद्गल्यायन से शास्त्रार्थ किया था। सुरमंजरी और गुणमाला ये दोनों वैश्य कन्या। वैद्यक शास्त्र की बड़ी पण्डिताएं थीं। इस से यह भी सिद्ध होता है कि स्त्री चिकित्सा के लिये वैद्यकशास्त्र में कुशल स्त्र चिकित्सक मिल सकती थीं और उत्तम कुल की कन्याएं वैद्यक व्यवसाय को प्रसन्नतापूर्वक अपनाती थीं । क्षत्रचूड़ामणि काव्य में लिखा है कि जीवंधर की माता मयूर यन्त्र नामक वायुयान में उड़ना सीखा करती थी। इस से स्पष्ट है कि कठिन से कठिन शारीरिक काम करने में भी स्त्रियां संकोच नहीं करती थीं। और पुरुष के समान ही मशीनरी का सचालन और उस का ज्ञान प्राप्त करना अपने लिये प्रावश्यक समझती थीं। इस से जैन सभ्यता के योवन काल में वायुयान जैसे किसी यंत्र के अस्तित्व का पता चलता है।
* विवाह .
कन्याएं जब पढ़ लिख कर पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो जाती थी तभी उन का विवाह संस्कार किया जाता था। बाल विवाह को बहुत बुरा माना जाता था। यदि पिता किसी कारण से बीटी उमर में कन्या की सगाई कर भी देता था तो कन्या को युवावस्था तक पहुंचने
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( ८७ )
तक उसका विवाह रोक रखा जाता था । कनकलता को इसी कारण अपने निर्दिष्ट पति से पृथक् रहने की श्राशा दी गई थी । वैसे तो कन्या का पिता भी सुयोग्य वर ढूँढ देता था किन्तु स्वयंवर की प्रथा उत्तम मानी जाती थी । कन्या अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुकूल योग्य वर चुन सकती थी । वह वर किसी भी जाति का हो इस की चिन्ता नहीं की जाती थी:
कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवर गता वरम् । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥
( हरि० जिनदासकृत )
अर्थात्ः - स्वयंवर में गई हुई कन्या अपनी रुचि के अनुकूल सुयोग्य वर को चुन लेती है । वह वर उच्चकुल का हो या नीचकुल का इस का विचार नहीं किया जाता
इस प्रकार जैनधर्म में विवाह का क्षेत्र इतना विशाल था कि कुलीनता, अकुलीनता उच्च या नीच वर्ण या भिन्न धर्म का कोई प्रतिबन्ध न था । यही कारण है कि राजा श्रेणिक ने ब्राह्मणी से विवाह कर लिया था और वैश्य पुत्र बीवंधर कुमार ने क्षत्रिय की कन्या गन्धर्वदत्ता को स्वयंवर में विवाहा था । वणिक पुत्र प्रीतंकर ने अपना विवाह राजा जयसेन की पुत्री के साथ किया था । नन्द राजा महानन्दी की रानियों में एक शूद्रा रानी भी थी। इसी तरह धर्म की भिन्नता भी विवाह में बाधक नहीं बन सकती थी । वसुमित्र श्रेष्ठी जैन थे किन्तु उन की पत्नी धनश्री जैन थो। पुण्यवर्धन जैन था किन्तु उसकी पत्नी विशाखा बौद्ध थी । श्रेणिक के पिता ने अपना विवाह एक भील कन्या से किया था । इसी तरह चारुदत्त का विवाह एक वेश्यापुत्री के साथ हुआ था । इस प्रकार प्राचीन जैन समाज में विवाह के लिये
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( ८८ )
विशेष बन्धन न थे। स्त्री जाति को बड़ स्वतन्त्रता थी और विवाह का क्षेत्र बहुत विशाल था।
॥ परदा प्रथा ॥
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परदा हानिकारक हा सिद्ध होता है। जिस वस्तु को जितना अधिक छिपने की कोशिश की नाय उतनी ही देखने वालों की उत्कण्ठा उसे देखने के लिये बढ़ती है । पर्दे के अन्दर छिपा हुश्रा स्त्री का मुखमण्डल दर्शनेच्छुकके चित्त को बेचैन कर देता है । मनुष्य उम के दर्शन के लिये पता नहीं क्या २ विकृत विचार अपने मन में लाता है और तरह २ का अभिनय करता है। यदि वही मुख मण्डल खुला हो तो व्यर्थ की उत्कंठा से सभी मुक्त रहते हैं । अब देखना यह है कि पर्दे का कारण वास्तव में है क्या ? कुछ लोगो का कहना है कि पर्दे से स्त्री के शीलकी रक्षा होती है । वे लोग स्त्री की आटे के दीपक के साथ तुलना करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार आटे के दीपक को अन्दर रक्खो तो चूहों का डर बाहर रक्खो तो कौत्रों का। ठीक इसी प्रकार का डर स्त्री को भी है, इस लिये उसे लुकाकर ही रखना चाहिये और इस में उसके नाम 'लुगाई' की भी सार्यकता है। परन्तु वास्तव में इस प्रकार के विचार भ्रमपूर्ण ही सिद्ध होते हैं । पर्दा शील की रक्षा में कोई सहायता नहीं कर सकता । शील की रक्षा के लिये तो ज्ञानबल और प्रात्मबल की श्रावश्यकता है। जो स्त्री पातिव्रत्य धर्म के महत्व को अच्छी तरह समझतो है और उसका पालन करती है वह नंगे बदन भले ही कहीं भी फिरे किसी पुरुष की क्या शक्ति है कि उमपर कुदृष्टि डाल सके। यदि स्त्री के विचार ही दूषित हों भले ही श्राप उसको कितने पर्दो में रखें श्राप उसके शील की रक्षा करने में कभी भी सफल नहीं हो
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( ८६ )
सकेंगे। शील की रक्षा बाह्य बन्धनों से नहीं हो सकेगी किन्तु मानसिक बन्धनों से हो सकती है। अतएव शील की रक्षा के लिये पर्दे का अपनाना सर्वथा वृथा है । इस के अतिरिक्त पर्दे की प्रथा स्त्री के स्वास्थ्य के लिये भी बहुत हानिकारक है । हम देखते हैं कि अाज जिन प्रान्तों और जातियों में पर्देकी प्रथा भयानक रूप धारे हुए है उनकी स्त्रियां कमजोर, अशिक्षित और अनेक भयानक रोगों से ग्रस्त पाई जाती हैं । वे श्रादर्श गृहिणी बनने के प्रायः सभी गुणों से वञ्चित होती हैं । मेरे विचार से पर्दा प्रथा हमारी अपनी चीज नहीं है. किन्तु दीर्घ काल के यवन शासन से हमारे में आई है । अस्तु-प्राचीन जैनधर्म इस पर्दे की कुप्रथा के रोग से मुक्त था । जैन महिलाएं घर की चारदीवारी की जेल में बन्द नहीं की जाती थीं । वे घर से बाहिर काम काज के लिये प्राती जाती थीं और समय समय पर विद्वानों से शास्त्रार्थ तक करती थीं। जब वे घर से बाहिर जाती थीं तो लोग उन्हें बड़ी प्रतिष्ठा और सन्मान के साथ देखते थे। साधारण स्त्रियों की तो बात ही क्या रानियां तक राजदरबारों में खुल्लमखुले चली जाती थीं। उत्तर पुराण में लिखा है कि एक बार राजा सिद्धार्थ राजदरबार में मैंटे थे । रानी त्रिशला उन से मिलने के लिये वहां पहुंची। सिद्धार्थ ने बड़े सम्मान से उस को अपने पास राजसिंहासन पर बैठाया। अन्य सब राजकीय कार्यों की अपेक्षा करके सर्वप्रथम उन्होंने त्रिशलादेवी के आने का कारण पूछना चाहा । इस से यह स्पष्ट है कि प्राचीन जैन समाज में पर्दे जैसी भयानक कुप्रथा न थी। वर्तमान जैन समाज के भी काफी लोग इस पर्दे की प्रथा के रोग से बुरी तरह से ग्रस्त हैं । उनको अपने प्राचीन धर्म से शिक्षा लेनी चाहिये और पर्दे के वन्धन को तोड़ कर स्त्री जाति में शिक्षा का प्रचार करना चाहिये । शिक्षाके बिना स्त्री जाति में जागृति नहीं पा सकती और उस जागति के बिना चन्दन वाला, मृगावती, और सुभद्रा जैसी देवियां जैन समाज में पैदा न हो सकेंगी । अतः जैन गृहस्थों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(६०)
को अब जागना चाहिये । सारा संसार आगे बढ़ता जा रहा है और आप भी अपनी संस्कृति को पहिचानिये ।
॥धार्मिक जीवन॥
पुरुषों में बहु विवाह की प्रथा अवश्य प्रचलित थी किन्तु स्त्रियां एक पतिव्रत धारिणी होती थीं। गृहस्थ आश्रम में गृहस्थ के भार के संभालने के साथ २ स्त्रियां धार्मिक कार्यों की उपेक्षा नहीं करती थीं। प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना और संतों की सेवा में बैठकर धर्मग्रन्थ श्रवण करना ये उनके नित्यकृत्यों के प्रधान अंग थे। वे अपने पति में बड़ी श्रद्धा और प्रेम रखती थीं । जब वे उन की इच्छा के विपरीत कार्य करते थे तो वे अपने अधिकार को भूलती न थीं और उन्हें युक्तियों द्वारा समझा कर ठीक कर लेती थीं। जम्बू कुमार जब दीक्षा लेने के लिये तैयार हुए तो उन की पलियों ने उन को खूब समझाया और घर पर रहने के लिये बाध्य किया । जम्बूकुमार ने उन की सम्मति को प्रेमपूर्वक सुना और उस का पालन किया। इस से भी पता चलता है कि पति भी अपनी पत्नियों के उचित श्राग्रह की अवहेलना नहीं करते थे। श्रापत्तिकाल में स्त्रियां अपने शील की रक्षा भी बड़े साहस से करती थों। चन्दन वाला की माता धारिणी, और महासती, राजीमती इस सत्य के ज्वलन्त उदाहरण है।
चम्पा नगरी में दधिवाहन नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी राणी का नाम बारिणी था जो बड़ी ही रूपवती थी। उस पर कौशाम्बी के राजा शतानीक ने चढ़ाई कर दी। दधिवाइन जंगल में भाग गया। शतानीक के एक योद्धा ने राजमहल को लर लिया और धारिणी को अपने काबू में कर लिया। वह उस पर प्रासक्त हो गया। धारिणी ने
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( ६१ )
बहुत समझाया बुझाया परन्तु वह कामान्ध हो रहा था अतः बलात्कार से अपनी वासना पूर्ण करने के लिये तैयार हो गया । धारिणी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिये तुरन्त अपनी जीभ खींच कर बाहिर निकाल दी और प्राण दे दिये । इस प्रकार अपने शील की रक्षा के लिये धारिणी ने अपने प्राणों की बलि दे दी और योद्धा के जीवन को भी इस आत्मोत्सर्ग के द्वारा धार्मिक जीवन में बदल डाला ।
जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ जी बाल्य काल से ही विरक्त थे । विवाह की इच्छा न होने पर भी उन की सगाई मथुरा के राजा उग्रसेन की गुणवती पुत्री राजीमती से कर दी गई । वे बड़ों के अनुरोध को टाल न सके । जव वरात उग्रसेन के यहां पहुंची तो नेमिनाथ ने बरातियों के भोजन के लिये लाए गए पशुओं का वाड़ा भरा देखा । वे अपने विवाह के निमित्त निरपराध पशुओं का वध न देख सकते थे ! वे वहां से भाग गए और गिरनार पर्वत पर जाकर दीक्षा लेली | जब राजीमती को इस बात का पता चला तो उसने भी पति का अनुसरण किया और दीक्षा लेली । दूसरे किसी करने के माता पिता के प्रस्ताव को उस ने ठुकरा दिया । दीक्षित अवस्था में एकबार जब वह गिरनार पर्वत पर जा रही थी तो वर्षा के कारण उस के बस्त्र भीग गए और उन्हें सुखाने के लिये वह एक समीप की गुफा में चली गई उसी गुफा में एक रथनेमि नामका साधु बैठा था । वह राजीमती के रूप लावण्य को देख कर कामासक्त हो गया और रति की प्रार्थना करने लगा । राजीमती आदर्श जैन महासतियों में से थी । वह अपने शीलधर्म को कब भूलने वाली थी । उसने कहा:
कुमार के साथ विवाह
जइ सि रुत्रेण वेसमणो, ललिएण नलकुब्बरो । तहा वितेन इच्छामि जइ सि सक्खं पुरंदरे !!
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(१२)
धिरत्यु ते ऽजसो कामी जो तं जीविय कारणा । वन्तं इच्छासि श्रावेॐ से, यंते मरणं भवे ॥
अतरा० अ० २२ श्लोक. ४१. ४२ अर्थात्:- हे रथनेमि यः तुम रूप में साक्षात् कामदेव लीला में नल कुबेर या इन्द्र भी होतो भी मैं तुम्हारी कामना नहीं कर सकती। तुम्हें धिक्कार है कि तुम वासनामय वमन किये हुए भागों को त्याग कर उन्हें फिर भोगने की इच्छा कर रहे हो। इस प्रकार के पतित जीवन से तो तुम्हारा मरना ही अच्छा है।
यह है जैन नारियों के सतीत्व या शील की महानता और धार्मिक जीवन की उच्चता । इस प्रकार के नारी के सतीत्व रक्षण के उदाहरण अन्यत्र कम ही देखने में मिलते हैं । धारिणी और राजीमती इन दोनों महिलाओं के उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि दोनों ने केवल अपने शील की ही रक्षा नहीं की किन्तु चरित्र से भ्रष्ट होते हुए योद्धा और माधु को भी अपने सतीत्व की शनि से सन्मार्ग की ओर लगाया।
जैन शास्त्रों में विधवा विवाह की प्रथा के उदाहरण मेरे देखने में नहीं आए। इस से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि आज कल की तरह प्राचीन जैन समाज में विधवात्रों की संख्या कम रही है।
और इस लिये विधवा विवाह की जटिल समस्या उन के सामने नं पाई हो । जो थोड़ी बहुत विधवाएं होती होंगी वे धार्मिक जीवन व्यतीत करती होंगी। विधवाओं की संख्या कम होने के कुछ प्रमाण तो स्पष्ट ही हैं । जिस जाति में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित हो वा कुजोड़ विवाह होते हों वहां विधवात्रों की संख्या अधिक बढ़ने का डर रहता है। जैन समाज सौभाग्य वश इन दोनों कुप्रथाश्रों से मुक्त रहा है। बाल विवाह तो जैन धर्म में निन्द्य समझा जाता था । और कुजोड़ विवाह का प्रभ
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( ६३ )
ही पैदा नहीं होता जब कि विवाह के लिये स्वयंवर की प्रथा सबसे उत्तम मानी जाती है । कन्या और वर दोनों को अधिकार था कि वे अपने २ गुण, कर्म, और स्वभाव के अनुकूल स्वयंवर में अपना जीवनसंगी या जीवनसंगिनी चुनें।
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ज़ैन सभ्यता काल में सामाजिक जीवन इतना ऊँचा और आदर्श था कि जिस की प्रशंसा किये बनती है । लोग विपरीत कारणों के सद्भाव में भी मर्यादा का उलंघन नहीं करते थे जहां गुण होंगे वहां दोष भी हो सकते हैं, भूल पुरुष भी करता है और स्त्री भी । हो जाती हैं कोई सभी सर्वंश तो होते नहीं । ऐसी स्थिति में अपने में होने वाली अनेक भूलों की उपेक्षा करके दूसरे की भूल देखकर उस से घृणा करना यह छोटेपन की निशानी है । जैन धर्म ने इन बातों में बड़ी विशालता दिखाई है । यदि कोई स्त्री भूल से या अज्ञानता से सन्मार्ग से फिसल जाती थी तो “समाज उस से घृणा का व्यवहार नहीं करता था । उस को भी अन्य स्त्रियों की भाँति धर्म कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता थी । जैन पुराण में एक कथा आती है कि चंपा नगरी में एक कनकलता नाम की स्त्री थी । उस का एक युवक से अनुचित प्रेम हो गया था । वे पति पत्नी की तरह प्रत्यक्ष रूप से रहने भी लग गए थे तो भी समाज के लोग उन से घृणा नहीं करते थे । दोनों अपने अनुचित सम्बन्ध में लजित प्रवेश्य थे किन्तु मुनियों के व्याख्यान सुनने जाते थे । उन्हें दान देते थे और देवपूजनादि सत्र धार्मिक कृत्य निरंतर किया करते थे। इसी प्रकार अराधना कथाकोष में भी एक ऐसा ही रान्त मिलता है । ज्येष्ठा नाम की एक आर्यिका अपने आचरण से हो गई थी उसे प्रायश्चित्त कराकर पुनः दीक्षा
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दे दी गई थी। लोग पूर्ववत् ही उस में श्रद्धा रखते थे । इस से यह स्पष्ट है कि जैन समाज में अज्ञानवश आचरण तक से
पतित होने वाली
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स्त्रियों के साथ भी शिष्टाचार का वर्ताव किया जाता था। जैन सभ्यता इतनी उत्कृष्टता पर पहुंची हुई थी कि उस के सब कार्य मर्यादित थे ।
॥ नारी सम्मान की पराकाष्ठा ॥
श्रमण संस्कृति के विकास युग में जैनसमाज में स्त्रियों के साथ इतने उच्च शिष्टाचार का व्यवहार किया जाता था कि पत्नी तक पर श्राचरण भ्रष्टता का संदेह होने पर भी पति उन से दुर्व्यवहार नहीं करते थे । प्राचीन जैनसमाज में मर्यादा का उलंघन करना अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था । मर्यादा को गृहस्थ जीवन के माधुयं की नींव समझा जाता था । जैन शास्त्रों के प्रखर विद्वान् श्री शीलाङ्काचार्य कृत महापुरिसचरिय ' नामक ग्रन्थ में प्रियदर्शना की एक कथा आती है जो उपर्युक्त सत्य को प्रमाणित करती है :
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"
पर विदेह में अपराजिता नाम की एक नगरी थी। वहां अनेक गुणों से अलंकृत ईशानचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था । उसो नगरी में चन्दन दास नाम का एक सम्पत्तिशाली सेठ भी रहता था जिम के पुत्र का नाम सागरचन्द्र था । एक बार सागरचन्द्र, राजा ईशानचन्द्र के दर्शनार्थ राजकुल में गया । राजा ने श्रासन ताम्बूल दि से उस का स्वागत किया और कुशलता पूछी । तत्र सागरचन्द्र ने कहा कि महाराज ऋतुराज वसंत अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रारम्भ हो गया है । आप कीडोद्यान में चलने की कृपा करें । राजा ने इस प्रस्ताव का स्वागत किया और सारी नगरी में यह मुनादी करवादी कि महाराजाधिराज मोदिन प्रातः रतिकुल गृह उद्यान में पधारेंगे । अतः नगर के सब स्त्री पुरुष अपने २ वैभव के अनुमार खूब धूमधाम से उद्यान की शोभा बढ़ाएं। प्रातःकाल महाराज धिराज अपने अनेक रमणीजन
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के साथ बड़ी शान से उद्यान में पहुंच गए। उधर सागरचन्द्र भी अपने घनिष्ठ मित्र अशोकदत्त के साथ बड़ी ठाठ से वहां गया । जब वहां सब लोग खूब रंग रलियां मना रहे थे और अानन्दसागर में मम थे तो एक अोर से स्त्रियों की भीड़ से कुछ कोलाहल सुनाई पड़ा जिस से बचायो २ का शब्द स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था। सागरचन्द्र साहस करके तुरन्त उस ओर दौड़ा । वहां उसने बन्दियों द्वारा पकड़ी हुई पुर्णभद्र की अतिसुन्दरी कन्या प्रियदर्शना को देखा ! उस ने तुरन्त वीरता पूर्वक एक बन्दी से छुरी छीन ली और प्रियदर्शना को उन से मुक्त कराया । प्रियदर्शना इस सुन्दर नवयुवक की वीरता पर मुग्ध हो गई और उस पर प्रेम भाव प्रकट किया ! सागरचन्द्र के हृदय में भी कामदेव के तीर चुभ चुके थे। इतने में प्रियदर्शना का पिता अाया और अपनी कन्या को घर ले गया । सागरचन्द्र के पिता तक भी यह समाचार पहुंच चुका था। सागरचंद्र ने अपनी इच्छा पिता के सामने प्रकट की और पिता ने उस का विवाह प्रियदर्शना के साथ कर दिया और साथ २ सागरचन्द्र को उस के दुष्ट मित्र अशोकदत्त से भो सावधान रहने का उपदेश दिया। सागर ने उस उपदेश को उपेक्षा की दृष्टि से सुना। अस्तु, सागरचन्द्र और प्रियदर्शना बड़े अानन्द से अपना गृहस्थ जीवन बिताने लगे ।
एक दिन सागरचन्द्र के अनुपस्थिति में अशोकदत्त प्रियदर्शना के पास आया। और कहने लगाः-'क्या कारण है कि तुम्हारा पति धनदत्त की पुत्रवधु के साथ प्रतिदिन छिपकर बातें करता है। प्रियदर्शना का चित्त निर्मल था उसने कहा:-'तुम उस के घनिष्ठ मित्र हो तुम ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हो कि इस में क्या रहस्य हो सकता है।' अशोकदत्त ने कहा कि तुम मेरा एक प्रयोजन पूरा कर दो तो मैं
तुम्हें यह रहस्य बता सकता हूं।' शुद्ध हृदय प्रियदर्शना ने कहा:- मेरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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प्रति तुम्हारा क्या प्रयोजन हो सकता है ?' इस के उत्तर में मलिन हृदय अशोकदत्त ने कहा कि इस संसार में जिस मनुष्य ने तुम्हारे दिव्यसौंदर्य को एक बार भी देख लिया है वह तुरन्त अपने लिये तुम्हें पाने का प्रयोजन रखता है। केवल एक तुम्हारा पति ही ऐसा पुरुष है जिस को तुम्हारे प्रति प्रयोजन नहीं है ।'
प्रियदर्शना अशोकदत्त के मलिन भावों को समझ गई और उसे ऐसे नीच विचारों के लिये खूब लताड़ा। अशोकदत्त बड़ा लजित हुआ
और वह यह कह कर कि यह तो केवल परिहास के लिये कहा गया था निराश होकर भवन से बाहिर आगया । उस की आशा. पर पानी फिर चुका. था अतः वह बड़ा ही खिन और उदास था । एकाएक सागर चन्द्र भी उसे मिल गया और पूछने लगा कि मित्र इस खिन्नता और उदासी का कारण क्या है ? धूर्तता का जाल रचाते हुए अशोकदत्त ने पहले बताने से संकोच दिखाया, अखेिं भर ली और कुछ निश्वास भी छोड़े। यह सब बाल सागर चन्द्र से श्राग्रह कराने के लिये था। बन सागरने श्राग्रह किया तो कहने लगा:- 'मित्र श्राप जानते ही है महिला सब अनर्थों का मूल कारण है। वह बिना बादल को बिजली है, ऐसी व्याधि है जिस के लिये कोई औषधि नहीं होती और ऐसी मोह-निद्रा है जिस का कभी अन्त नहीं होता। स्नेह से परिपूर्ण होते हुए भी जिस प्रकार दीप शिखा जलती रहती है। ठीक यही दशा स्त्री की भी है। श्राज मैं श्राप को ढूंदने के लिये श्राप के भवन पर गया था और वहां एकान्त जानकर प्रियदर्शना ने मुझ १२ अपना कलुषित प्रेम प्रकट किया। बड़ी कठिनाई से अपने श्राप को उस के पंजे से बचाकर पाया हूं। भला मैं आप जैसे घनिष्ठ मित्र को क्या खम में भी धोखा दे सकता हूं। अब सोच रहा था कि क्या मैं प्रारमपात करवंदा न करूँ क्योंकि वह दुराचारिणी अवश्य मेरे प्रिय मित्र के पास भूठा कलंक मुझ
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पर ही लगाने की शिकायत करेगी। यदि जो घटना हुई है सत्य २ मित्र से बता दू तो यह भी ठीक न होगा क्योंकि मैंने उस दुष्टा का मनोरथ पूर्ण नहीं किया । अतः यह और भी ब्रण पर नमक छिड़कने के समान होगा। यह सब सोच ह' रहा था कि आप मज़ गए। सागरचन्द्र के लिये ये वचन वज्र के समान थे । उसने अपने आपको संभाला और अशोकदत्त को सान्त्वना दी और उसे कहा कि हमारा मित्रता में यह घटना कोई विषमता पैदा नहीं कर सकेगी । परन्तु प्रियः दर्शना के लिये सागरचन्द्र का हृदय टूट चुका था। अब उस हृदय में वह पहले का मान और प्रणय न रह गए थे। उस को अपनी पत्ना प्रियदर्शना के प्राचरण पर पूर्ण संदेह हो चुका था। किन्तु यह सब होते हुए भी सागरचन्द्र ने आवश्यक शिष्टाचार और मर्यादा का उलंघने नहीं किया। अन्दर से सागर का हृदय अवश्य खिन्न रहता था किन्तु उस खिन्नता को उस ने कभी भी अपनी पत्नी के सामने प्रकट नहीं किया। बाहर से वह पूर्ववत् ही प्रियदर्शना के साथ ऐसे शिष्टाचार से व्यवहार करता रहा कि उसे अपने पति पर संदेह तक नहीं होने पाया। प्रियदर्शना ने भी इस भय से कि दोनों मित्रों में उस के कारण वैमनस्य उत्पन्न न हो अशोकदत्त के दुष्टाचार की बात अपने पति से न कही। इस प्रकार उच्चकोटि को मर्यादा पालन करते हुए दोनों ने अपना सारा जीवन बिना किसी कालुष्य के बिता डाला।
प्रियदर्शना की इस कथा से पाठकों को भलीभाँति. पता चल गया होगा कि जैनधर्म में स्त्री का कितना उत्कृष्ट स्थान है। पति के लिये पत्नी के चरित्र पतन से बढ़ कर क्रोध का और क्या कारण हो. सकता है किन्तु, सागरचन्द्र ने यह सब होते हुए भी अपनी पत्नी पर न तो क्रोध ही किया और न कभी उस का निरादर ही। उल्टा उस के साथ ऐसे शिष्टाचार का व्यवहार किया कि उसे. वास्तविक रहस्य तक का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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पता न चलने पाया। कितना उच्च था जैन समाज में गृहस्थ जीवन
और कैसे उच्चाचरण के मनुष्य तथा देवियां इस में पैदा होती थीं। इस सत्य को प्रियदर्शना की जीवन कथा सदा संसार को बताती रहेगी।
__वर्तमान जैन समाज को अपनी प्राचीन संस्कृति कभी नहीं भूलनी चाहिये । प्राचीन जैन संस्कृति में जो स्त्री का स्थान था वह अाजकल के हमारे जैन समाज में कम ही मिलता है। गुजरात प्रान्त को छोड़ कर चाकी राजपूताना और पंजाब आदि पदेशों में स्त्री शिक्षा का बहुत ही कम प्रचार है । साथ २ पर्दा प्रथा की इतनी भयानकता है कि काफी बड़ी संख्या में गृहस्थों के घरों में स्त्री की स्थिति दासी से अच्छी नहीं कही जा सकती। इस पर्दे के कारण से स्त्रीजाति में शिक्षा के प्रचार में भी बड़ी अड़चन पड़ती है। शिक्षा ही विकास का कारण है। वहां प्राचीन जैन समाज में स्वयंवर विवाह की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित थी वहां आज ऐसी स्थिति है कि विवाह के समय कन्या को सम्मति तक को भी कोई भद्रपुरुष लेता होगा। बहुत से घरों में तो बाल विवाह, कुमोड़ विवाह, वृद्ध विवाह, और दहेजश्रादि की कुप्रथाएं इतना भयानक रूप धारण किये हुए है कि वे भयानक रोग की भाँति उत्तरोत्तर नसमाज के कलेवर को खा रही है। संसार बहुत आगे बढ़ चुका है। हम को भी चेतना चाहिये। जो जाति या धर्म समय की प्रगति की उपेक्षा करता है वह उन्नतिकी ओर बढ़ नहीं सकता । अतएव हमें अपने श्राप को समयानुकूल बनाना होगा । समयानुकूल बनानेके लिये भी हमें कोई विशेष नई चीज़ों को अपनाना नहीं होगा बल्कि अपनी प्राचीन संस्कृति को ही भलीभांति समझना होगा। यदि देश काल परिस्थिति के कारण किसी नई प्रथा को अपनाना पड़े भी और उसके कारण प्राचीन सिद्धान्त की उपेक्षा होती हो तो भी कोई दोष नहीं। एक युग में देश काल और परिस्थिति के कारण जो बातें ठीक
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मानी जाती हैं यह जरूरी नहीं कि वे दूसरे युग में भी ठीक मानी जाए। । अतः यदि हम किसी नई प्रथा को भी अपना लें तो वह भी कुछ पालन
के पश्चात् हमारी ही संस्कृति का अंग बन जाएगी। विचारने की बात यही है कि उस से हमारे सामाजिक जीवन को शक्ति मिलती हो । मेरा कहने का अभिप्राय है कि हमें रूढीवादी नहीं बनना चाहिये । फिर हम तो अनेकान्तवाद के अनुयायी हैं रूढ़ीवाद तो हमारे पास फटकना भी न चाहिये । अब वैज्ञानिक युग है जिसमें संकुचित विचारों वाले व्यक्तियों के लिये कोई गौरव का स्थान नहीं । अब हम अपने पूर्वजों के गौरव की कहानियां सुनाकर बड़े नहीं बन सकते किन्तु उन के श्रादर्शों को अपने जीवन में उतार कर ही बड़े बन सकते हैं ।
जैन समाज में जो कुप्रथाएं प्रचलित हैं उनको मिटाने के लिये और नारी जीवन को सुधारने के लिये हमारे नवयुकों को आगे श्राना चाहिये । इस के लिये त्याग और निःस्वार्थ जीवन की आवश्यकता है। नव युवकों को चाहिये कि सर्व प्रथम वे जैन समाज को संगठित कर एक सूत्र में बांधे । इस के लिये एक जैन वीर मण्डल बनाएं जिस की शाखाएं देश में यत्र तत्र स्थापित हों । और उसका एक मात्र काम जैन समाज में फूट के कारणों को दूर करना और समाज के सभी क्षेत्रों में सुधार करना होना चाहिये । स्त्रियों की शिक्षा के लिये स्कूल और विद्यालय खुलवाने चाहिये और जो लोग बालविवाह, कुमोडविवाह.
और वृद्धविवाह करने पर तुले हो उन का घोर विरोध होना चाहिये । दुःखी और निराश्रित विधवाओं की और बाल विधवात्रों की सहायता का भी प्रबन्ध होना चाहिये । जो विधवाएं गृहस्थ में रह कर या साध्वी बन कर धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहती हैं वे सहर्ष वैसा करें समाज को उन पर बड़ा गौरव है किन्तु जो ऐसी बालविधवाएं हैं जो
सांसारिक जीवन के आकर्षणों पर विजय नहीं पा सकतीं उन से ब्रह्मचर्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१७.)
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का पालन करवाने के लिये यह अ यावश्यक है कि समाज उन को धार्मिक वातावरण में रक्खे । किन्तु ब्रह्मवर्य का पालन कोई बच्चों का खेल नहीं है । जबानी बमा खर्च सरल काम होता है किन्तु इन्द्रियोंका दमन बड़ा कठिन काम है । संसार का इतिहास ऐसे उदाहरणो से भरा पड़ा है कि बड़े २ ज्ञानी. ऋषि और मुनियों को भी काम के बाणों के श्रागे हार खानी पड़ी। बड़ो २ ज्ञान चर्चा करने वाले, ब्रम्नवर्य और सयम का उपदेश देनेवाले उपदेशक और उसका भवण करने वाले श्रावक क्या सच्चे हृदय से वह कह सकते हैं कि इन्द्रिय निरोध मरल काम है ? फिर भला हर एक विधवा से यह आशा करनी कि वह अवश्य हो इन्द्रिय निरोध कर लेगी कितना भ्रमपूर्ण है ! हमारी समाज में ऐसे अनेकों घर हैं जहां माता पिता बड़ी. उमर में भी कामवासना का त्याग नहीं करते और उनकी युवावस्था से परिपूर्ण बाल. विधवा कन्याएं वैधव्य को ज्वाला में जला करती हैं । ऐसे माता पिता को चाहिये कि वे स्वयं संयम का पालन करें और अपनी कन्या को मास्तिक और धार्मिक वातावरण में रखें जिस से उस के विचार विकृत न होने पावें । किन्तु इसके विपरीत अाज कल के अधिकतर माता पिता स्वयं तो विनासपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं और अपनी अवधि कन्याश्रोसे असभवको सभावना करते हैं। प्रोत्साहन स्वयं देते हैं और जब अपरिपक्व अनुभव वाली कन्या सन्मार्ग से पतित होतो है तो शास्त्र की प्राशा के विरुद्ध बाने क सम्पूर्ण ज्ञान को उस पर थापने में कोई कमर पाकी नहीं रखते। कोई दूसरा अपराध करे तो शास्त्र विमुख होनेकी दुहाई दी जाती है और स्वयं अपराध हो तो शास्त्र की बात भी नहीं पूछी बातो। प्रस्तु, मेरा कहने अभिप्राय यही है कि विधवानों के लिये सास्विक और धार्मिक वातावरण पैदा करना और उसी में उनको रम्बना यह समाज का परम
कर्तव्य है । यदि कोई सन्मार्ग से पतित हो भी जाये तो उस पर शास्त्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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विमुखता के भार को थोप कर उससे दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिये किन्तु शील के महत्व को समझाकर उसको सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त कराना चाहिये। मेरा तो मन्तव्य है कि यदि जैन शास्त्रों में बताए धर्म पर और नियमों पर हमारे लोग चलते तो न इतनी विधवाएं ही होती और न यह जटिल सप्तस्या ही समाज के सामने उपस्थित होती ।
इस में कोई संदेह नहीं कि प्राचीन काल से जैनधर्म में स्त्रों का उच्च आदर्श सतीत्व रहा है और ब्रह्मचर्य को एक अलौकिक शक्ति और असाधारण तेज माना गया है। वास्तव में यह बात सत्य भी है किन्तु उस समय कुछ वातावरण और था। अब उससे सर्वथा भिन्न है । उस समय लोग अपनी संस्कृति के महत्व को पूर्ण रूप से समझते थे और अपने जीवन में कार्यरूप में उस पर चलते थे। इस के लिये उनके चारों और उच्च धार्मिक विचारों का वातावरण भी अनुकूल था। अाज वातावरण बदल चुका है। अनेक बातियों और धर्मों के साथ निरन्तर सदियों के सम्पर्क से हमारे संस्कार, विचार और रीति रिवाज परिवर्तित हो चुके हैं। अब हम प्रत्येक बात में जैन शास्त्र के विधानके अनुसार चलने का दावा नहीं कर सकते । शुद्ध श्रमण संस्कृति के पालक हम तभी बा - सकते हैं जब कि दूसरे धर्मों के संस्कारों और विचारों का निकाल दें। और रीति रिवाजों को त्याग दें। तब अपने सिद्धान्तों को समझे और उन्हें अपने जीवन में उतारें। फिर सामाजिक बटिल समस्याएं अपने आप हल हो जाएँगी। किन्तु. सदियों का चढ़ा रंग एक ही दिन में नहीं उतर जाता। इस के लिये बड़े कठिन परिश्रम
और त्यागमय जीवन की आवश्यकता है। इस. महान कार्य की पूर्तिके लिये जैन नवयुवक और सुधारक विद्वान् कार्यक्षेत्र में उतरे तो श्रमण
संस्कृति के पुनः अरुणोदय में कोई संदेह नहीं रह सकता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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यह बड़ी.प्रसन्नता की बात है कि अब कुछ सुधारक श्रद्धेय जैन सन्तों के सदुपदेश से जैन समाज में कन्याओं के लिये स्कूल और विद्यालय खुलने लगे हैं । स्त्री जाति की उन्नति के लिये या दूसरे शब्दों में जैन समाज के उत्थान केलिये यह एक सुन्दर कदम है और सौभाग्य से हमारी भावो उन्नति का प्रतीक है। किन्तु हमारी समाज जो कुछ किया जा चुका है उसे ही पर्याप्त समझ कर सन्तोष न कर ले। यह तो केवल भूमिका मात्र है । काम तो अभी सारा ही अवशेष पड़ा है। स्त्री शिक्षा के लिये अभीतक जो कन्या विद्यालय खुले हैं। वे बड़े बड़े कुछ नगरों तथा कसबों तक ही सीमित हैं। उनकी संख्या भी बहुत कम है। स्त्रो शिक्षा के लिये विद्यालय सर्वत्र व्यापक रूप से खुनने चाहिये
और लक्ष्य यह हो कि जैनसमाज में कोई भी स्त्री अशिक्षित न रहने पाए । जब स्त्री शिक्षा व्यापक रूप में फैल जाएगी तो स्त्रियां स्वयं अपने कर्तव्य गौरव और विस्मृत श्रमण संस्कृति को समझने लगेगी और अपने बच्चों में ऐसे पुनीत संस्कार भरेंगी कि भावी जैन सन्तान पूर्ववत् एक उच्च श्रादर्श जीवन संसार के सामने रख सकेगी। स्त्रियां मातृत्व की महिमा को समझेगी और राष्ट्र के सुन्दर और सुसंगठित निर्माण के लिये वीर, विद्वान् और चरित्रवान् पुत्रों को उत्पन्न करेंगी।
वास्तव में देखा जाय तो प्रत्येक राष्ट्र या धर्म के उत्थान या पतन की नीष माता होती है। माताओं के जो भाव और संस्कार होते हैं वे ही बच्चों में प्रतिबिम्बित होकर समाज या राष्ट्र का निर्माण करते हैं । अतएव यदि माताएं सुसंस्कृत हों तो राष्ट्र का उत्थान निश्चित है। और यदि वे पिछड़ी हुई हो तो राष्ट्र का पतन अवश्यंभावी है। यही कारण है कि अनादिकाल से लेकर स्त्री मानवता के इतिहास की प्रधान नायिका रहती पाई है। यही कारण है कि स्त्री की उत्तमता के कारण ही अनेक राष्ट्रों का अभ्युदय हो चुका है और उसी के पतन के
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कारण मनुष्यको अपने २ बड़े पतन भी देखने पड़े हैं। सीता के कारण राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए और चिरस्मरणीय रामराज्य का आदर्श संसार के सामने रक्खा । और उधर शूखा की पतित भावना के कारण रावण की इतनी बड़ी सल्तनत का अन्त हुआ । इस प्रकार द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार करने के कारण कौरव प्रजा की दृष्टि से गिरे और अन्त में उन की हार हुई और दुर्गति को प्राप्त हुए ।
अतएव प्रत्येक व्यक्ति का जो अपने आप को जैनधर्मावलम्बी कहने का दावा रखता है कर्तव्य है, कि वह अपनी कन्याको शिक्षा दे । स्त्री शिक्षा के प्रचार के लिये पूर्ण प्रयत्न करे । और कन्या का विवाह पूर्ण युवावस्था को प्राप्त होने पर ही कन्या की रुचि के अनुकूल ही किसी सुयोग्य वर से करे । वाज़ विवाह, वृद्ध विवाह, कुजोड़ विव ह और पर्दा प्रथा ये जैनधर्म की संस्कृति के अंग नही हैं। इन का प्रत्येक बैनी को विशेष करना चाहिये और बो इनका अनुमोदन करते हों उन का विरोध होना चाहिये । जैनधर्म के अनुसार विवाहादि कार्यों में जाति पाति का बन्धन कोई महत्व नहीं रखता, अतः इस जटिल बन्धन को भी तोड़ना जैन समाज की उन्नति के लिये श्रेयस्कर होगा । स्त्रियों के पाठ्यक्रम में धार्मिक पुस्तकें अधिक पढ़ानी चाहिये जिस से वे अपनी प्राचीन संस्कृति को भलीभाँति समझ सकें । इस प्रकार स्त्रोको सामाजिक जीवन में पूर्ण विकास की स्वतन्त्रता देने से ही स्त्री जाति का उत्थान होगा और उस के उत्थान से ही पुरुष और राष्ट्र का भी अभ्युदय होगा । स्त्री जाति के उत्थान से पुन: जैन धर्म में चन्दनवाला और राजीमती जैसी सतियों का जन्म होगा जिन का लोग प्रतिदिन स्मरण करते हैं ।
ब्राह्मी चन्दन वालिका भगवती, राजीमती द्रौपदी । कौशल्या च मृगावती च सुलसा सीता शुभद्रा शिवा ॥ कुन्ती शीलवती नलस्य दयिता चूला प्रभावत्यपि । पद्मावत्यपि सुन्दरी प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥
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kira-e-K..
॥ अहिंसा परमो धर्मः ॥
अहिंसा एक महान् धर्म है। हिंसा से निवृत्त होने का नाम ही अहिंसा है। श्रात्मा के आवागमन या पुनर्जन्म पर विश्वास रखने से प्राणीमात्र के प्राणों के प्रति प्रतिष्ठा स्वयं पैदा हो जाती है । आवागमन का सिद्धान्त प्राणीमात्र के प्रति समता रखने का आदेश देता है । वह कहता है कि जिस प्रकार तुम अपने दुःख का अनुभव करते हो इसी प्रकार तुम्हें पराए का भी करना चाहिये। संसार में मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि छोटे से बड़े तक जितने भी जीव हैं सब समान है । भिन्न २ कर्मों के कारण से वे भिन्न २ योनियों में पैंदा हुए हैं । सुख दुःख सब को मनुष्य की तरह ही होता है श्रतएव उन सब के दुःव को अपने दुःख के सन समझना चाहिये । जो पुरुष ऐसा करता है वह महापुरुष कहलाता है। यही कारण है कि विश्व के प्रायः सभी धर्म किसी न किसी रूप में अहिंसा परमोधर्मः, को श्रोर मनुष्य को प्रेरित करते हैं।
___ भारत के अतिप्राचीन और प्रधान धर्म वैदिक, जैन और बौद्ध धर्मों के अवतारों और प्राचार्यों ने भी अहिंसा धर्म को जीवनकल्याण के लिये महान् धर्म बताया है। तीनों धर्मों के प्राचार्य और महर्षि अहिंसा पालन का उपदेश देते श्राए हैं। किन्तु समय की गति बड़ी विचित्र है । प्रत्येक सदीमें नगीन परिस्थिति और वातावरण के कारण भिन्न २ विचार धारा के व्यक्ति पैदा होते रहते हैं। कुछ लोग स्वार्थ पश अपने जीवन को धर्म के अनुकून न बना कर धर्म को अपने
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अनुकूल बना लेते हैं। इस से पूर्वाचार्यों के वास्तविक सिद्धान्तों की अशा कर दी जाती है और साहित्य में प्रक्षेत्र भरनेसे वा विपरीत अर्थ करने के कारण से धर्म में विकार उत्पन्न हो जाते हैं । इस से सामाजिक जीवन का पतन होता है और धर्म की निन्दा होती है। ऐसा प्रायः संसार की सब बातियों और धर्मों में होता आया है। अस्तु, अब हमने यह दर्शाना है कि वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों भारतीय धर्मों ने अहिंसा धर्म को किस प्रकार माना है और किस तरह इसका प्रचार किया है।
वैदिकधर्म में हिंसा अहिंसा पर दृष्टिपात।
सामान्य दृष्टि से 'अहिंसा परमो धर्मः' एक वैदिक सिद्धान्त हैं किन्तु वैदिक धर्मग्रन्थों में वेदों से स्मृतियों तक मांसभक्षण का विधान पाया जाता है। शतपथे और तैत्तिरीय आदि प्रामाणिक ब्राह्मणग्रन्थी में सोमयाग के वर्णन के साथ अश्व, गौ और अंज श्रादि पशुत्रों के मांस से यज्ञ करने का शास्त्रीय विधान मिलता है । इसी सत्य की आगे चलकर मनुमहाराज भी यंत्र संत्रं पुष्टि करते हैं। याज्ञिकी हिंसा का अनुमोदन करते हुए मर्नु जी कहते हैं:
यझार्थ पर्शवों वध्याः॥ अर्थतः- यज्ञ के लिये पशुओं को मारने में कोई दोष नहीं। और इसी प्रकार-याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति'। अर्थात्-यज्ञ में होने वाली हिंसा हिंम नहीं कहल.तो मनुजी ने तो यहां तक कह डाला कि:
यज्ञार्थ पराको संष्टा स्वयमेव स्वयंभुका। __ : यज्ञस्य मृत्यै सर्वस्व तस्माचई वघोऽवयः॥
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( १०६ )
. . मनु० अ० ५, श्लोक ३६. .... अर्थात्:- स्वयंभू ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये और यज्ञों की समृद्धि के लिये
पशुश्रो-को बनाया है। अतएव यज्ञ में पशु का वध अवध अर्थात् वधजन्य दोष रहित है । इसी प्रकार आगे लिखते हैं:
ओषध्यः पशवो वृक्षास्तियंचः पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ।।
मसु ० ५/४० औषधि, पशु, वृक्ष प्रादि और पक्षी ये सब यज्ञ के निमित्त मारे जाने पर फिर उत्तम योनि में जन्म ग्रहण किया करते हैं।
. याशिकी हिंसा के विधान की तरह बाद में होने वाली हिंसा का भी मनु जी ने विधान किया है। बाद में खिलाई जाने वाली किस २ वस्तु से कितने २ दिन तक पितर प्रसन्न रहते है इस का वर्णन करते हुए भाप लिखते हैं:
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान हरिणेन तु । औरभ्रणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै ॥ पएमासांश्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै । पष्टावणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति बराहमहिषामिषैः। शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव च ।।
अ. ३. लोक २६८, २६६, २७० अर्थात्:-पदिनी श्रादि मगलियों के मांस से दो महीने पर्यन्त, हरिण के मांस से तीन मास तक, भेड के मांस से चार महीने और खाने
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लायक पक्षी के मांस से पांच महीने पर्यन्त पितरोंकी तृप्ति होती है २६८।।
बकरी के मांस से छः मास, पृषतमृग के मांस से सात महीने एणजातीय हरिण के मांस से आठ महीने तक और रुरुनामक मृग के मांस से नौ महीने तक पितरों को तृप्ति हुआ करती है ।। २६६ ।।
बनैले सूबर तथा जंगली भैंसे के मांस से दस महीने और खरहे तथा कछुए के मांस से ग्यारह मास पर्यन्त पितर तृप्त रहते हैं ॥ २०॥.
___ यज्ञ और भाद्धादि कर्मों में हिंसा विधान का फल यह हुआ कि वैदिक धर्मावलम्बी किसों काल में व्यापक रूप से आमिषाहार करने लग गए थे। शूद्रादि छोटी जातियों के लोग तो बिना किसी बाधा के मांसाहार करते ही थे किन्तु ब्राह्मणों नेभी यज्ञकी श्राई लेकर या मांसाहार पर धर्म की मोहर लगाकर मांसहार करना प्रारभ किया। इस प्रकार पशुत्रों का व्यापक रूप में संहार होने लगा और अन्त में हिंसा का जो भयानक और मानवजाति को पतन की ओर ले जाने वाला. परिणाम होता है वही हुआ। हिंसा से सामाजिक जीवन में निर्दयता, करता, दुष्टता और अत्याचार बढ़ने लगे और मानवता के आदर्श गुण समता, सहनशीलता, अनुकम्पा और सहृदयता मानव समाजसे लुप्त होने लगे। सारी समाजिक व्यवस्था बिगड़ गई और लोग बुरे कर्मों में प्रवृत्त होने लगे । पतनोन्मुख मानवसमाज को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करानेके लिये अब हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन की आवश्यकता थी। सौभाग्य से वैदिक धर्म से ही कुछ ऐसी सम्प्रदायों का जन्म हुआ बिन्होंने वैदिकी हिंसा का; विशेष किया। वैष्णव, स्वामीनारायण और आर्यममाज जैसी अनेक वैदिक धर्म की शाखाओं के धर्मगुरुओं ने वैदिक हिंसा का खुले मैदान में विरोध किया और हिन्दूसमाज की बहुत बड़ी संख्या की ग्राभिषाहारसे निवृत्ति कराने में वे साल भी हुए। हिंसा का विरोध करने के लिये
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उन्होंने वैदिक धर्मस्यों का त्याग नहीं किया किन्तु ग्रन्थों में आनेवाले हिंसामूलक पाठों का अहिंसामूक अर्थ किया । उदाहरण के लिये गोमेध यज्ञ का विश्लेषण करते हुए आर्य समाज के सुयोग्य विद्वान् पं. गंगा प्रसाद जी लिखते है*:.. "बहुत से विद्वानों का कथन है कि वेद में पशुवध की श्राज्ञा है, यहां तक कि यज्ञ के लिये गोवध त का विधान है । वह प्रश्न इतना विवादास्पद है कि उस की यहां विवेचना नहीं की जा सकती। तथापि हम वैदिक यज्ञ गोमेध के सम्बन्ध में जिस के अर्थ गोवध के लगाए जाते हैं कुछ कहना उचित समझते हैं। हम इस यज्ञ को जिन्दावस्थामें भी पाते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती-प्राने सत्यार्थ प्रकाश में बतलाते है कि संस्कृत भाषा के 'गो' शब्द के अर्थ केवल गाय के ही नहीं प्रत्युत पृथ्वी और इन्द्रियों के भी है। गोमेघ का प्राधिभौतिक अर्थ खेती के लिये धरती बोतना और आध्यात्मिक अर्थ इन्द्रिय-दमन है। कुछ लोग इस व्याख्या का उपहास करते हुए उसे अर्थ की खींचातानी बताते हैं । वे यहां तक कह डालते हैं कि वेद के इस प्रकार अर्थ लगाना-अन्याय है। हमें देखना चाहिये कि डाक्टर हाग जैसे प्रामाणिक और विश्वस्त पुरुष पारसियों के विषय में क्या सम्मति देते हैं। “गोश उर्व का अर्थ पृथ्वी की सार्वभौमिक प्रात्मा है जो सब प्रकार के जीवन और वृदियों का कारण है। शब्द का अक्षरार्थ गौ की आत्मा है। यहाँ उपमालकार है क्योंकि पृथ्वी की गाय से तुलना की गई है। उस को काटने और बांटने से पृथ्वी में हल लगाने का अर्थ लिया जाता है। अर्मज़दा और स्वर्गीय सभा ने जो प्रादेश दिया है उसका मतलब यह
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*धर्म का प्रादि स्त्रोत पृ० १५४ । +देखो सत्यार्थप्रकाश ११ समु.१० ३.५।।
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(१.६)
है कि धरती को जोतना चाहिये : अतएव वह खेती के काम को धार्मिक बतलाता है।"
____ "हिन्दुओं का गाय के लिये प्रतिष्ठा प्रसिद्ध है । यह भी निश्चित है कि प्राचीन काल के पारसी लोग भी उसका बहुत आदर करते थे। तो फिर क्या यह कहना अयुक्त नहीं कि गोमेध का अर्थ गोवध है जबकि भाषा और भाव दोनों का समुचित विचार रखते हुए उसका अर्थ हम 'धरती का जोतना कर सकते हैं।"
इस उद्धरण से पाठकों को भलीभाँति पता चल गया होगा कि किस प्रकार हिंसा के विरोधी वैदिक विद्वानों ने हिंसापरक शब्दों का अर्थ अहिंसापरक किया और वैदिक यज्ञों का प्रनिगदन करते हुए भी उन यज्ञों को अहिंसामय सिद्ध किया । निस्सन्देह यह प्रयन सराहनीय था । श्रामिषाहार करने वाले लोगों पर है। प्रचार का अच्छा प्रभाव पड़ा और बहुत से लोगों ने आमिषाहार का त्याग भी किया। इसके विपरीत कुछ अन्य पौराणिक विद्वानोंने वेदोंके अथको बदलना ठीक नहीं समझा और उन्होंने मांसपरक शब्दों का अर्थ मांसपरक ही किया किन्तु उन मांसपरक हिंसात्मक यज्ञों का विधान कलियुग में वयं बनाया । वेदों. के नाम पर या धर्म की आड़ लेकर होने वाली हिंसाको समाज से रोकने के लिये और 'अहिंसा धर्म का प्रचार करने के लिये यह दूसरा कदम था। ब्रह्मपुराण और अादित्यपुराण आदि बहुत से वैदिक ग्रंथों में हिंसात्मक यज्ञों का कलियुग में निषेध किया है। अस्तु, उपयुक्त विश्लेषण से पाठकों को यह स्पष्ट हो गया होगा कि वैदिक सम्प्रदायमें हिम का समर्थन करने वाले और निषेध करने वाले दो दलों का संघर्ष बड़े जोर से चलता रहा है और दोनों अपने मन्तव्य के प्रचार में सफल : रहे है । उसी प्रचार की परम्परा का रूप हम अाज भी वैदिक समाज
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में पाते है । वैदिकधर्मावलम्बियों में आमिषाहार करने वालों की संख्या भी बढ़ी है और आमिषाहार का घोर विरोध करने वाले शाकाहारियों की भी कम नहीं | कुछ भी हो यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि वैदिकधर्म में भी अहिंसा परमो धर्मः इस सिद्धान्त का सम्मान हुआ है और वैदिक धर्मवलम्बी बहुत बड़ी संख्या में इसका पालन करते रहे हैं ।
॥ जैनधर्म में अहिंसातत्व की साधना ॥
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! वैदिक धर्म में जब हिंसा प्रवृत्ति व्यापक रूप में फैल गई थी तो हिंसा का विरोध करने वाले श्रामिषाहारियों के लिये क्षोभ का कारण बने किन्तु इस के विपरीत जैन धर्म के परम्परागत शास्त्रीय ज्ञान में जब कुछ पाश्चात्य विद्वानों मे मांसाहार का विधान बताया तो श्रहिंसा धर्म के पुजारी जैनसमाज में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ। । याकोत्री श्रादि जर्मन विद्वानों ने आचारांग के कुछ सूत्रों का मांसपरक अर्थ किया है जिससे यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जैवी लोग भी प्राचीन समय में मांसाहार कर सकते थे । इस से जैन समाज में बड़ा क्षोभ हुना और इसका विरोध वैदिक धर्म में श्रार्यसमाज के समान जैनधर्म के स्थानक वासी सम्प्रदाय ने किया । स्थानकवासी सम्प्रदाय के श्राचायों और विद्वानों ने सूत्रों में आए मांसपरक शब्दों का अर्थ वनस्थतिपरक किया और हिंसात्मक अर्थका खण्डन किया। जैनधर्म की दिगम्बर सम्प्रदाय के पूज्यपादादि श्राचार्यों ने तो सूत्रों का मांसमत्स्यपरक ही अर्थ मानकर उन सूत्रों को मानने वालों की निन्दा की और उपदेश दिया कि ऐसे सूत्रों को नहीं मानना चाहिये। सूत्रों के न मानने के लिये यह केवल बहाना मात्र है । वास्तव में दिगम्बर लोग सूत्रों को इस कारण नहीं मानते कि उन में यत्र तत्र वस्त्र का विधान है जिस से श्वेत. ग्वर मतकी
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पुष्टि होती है । अस्तु, मेरे अपने विचार से जैनधर्म या श्रमण संस्कृति जिसकी नींव ही 'अहिंसा परमो धर्मः' पर रक्खी गई है उस में मांसमत्स्यादि का विधान अपवाद रूप में भी कर दिया हो यह संभव प्रतीत नहीं होता। अतः प्रारम्भसे ही सूत्रोंका वनस्यतिपरक अर्थ होना चाहिये ।
जैन दर्शन के धुरंधर विद्वान् श्ची ५० सुखलाल जी संघवी तो सूत्रों के मांसमस्या दपरक अर्थों को श्रापवादिक मानते हैं । उनके निष्पक्ष विचार+ भी पाठकों की शान वृद्धि के लिये यहां दिये जाते है:
___ "कोई भी बुद्धिमान् यह तो सोच ही नहीं सकता कि सूत्रों की रचना के समय रचनाकार को वनस्पति और मांस आदि दोनों अर्थ अभिप्रेत होने चाहिए । निश्चित अर्थ के बोधक सूत्र परस्पर विरोधी ऐसे दो अर्थों का बोध करावें और जिज्ञासुत्रों को संशय या भ्रम में डालें यह संभव ही नहीं है । तब यही मानना पड़ता है कि रचना के समय उन सूत्रों का कोई एक ही अर्थ सूत्रकार को अभिप्रेत था । कौनसा अर्थ अभिप्रेत था इतनां विचारनाभर बाकी रहता है । अगर हम मान लें कि रचना के समय सूत्रोंका वनस्पतिपरक अर्थ था तो हमें यह अगत्या मानना पड़ता है कि मांसमत्स्यादि रूप अर्थ पीछे से किया जाने लगा । ऐसी स्थिति में निम्रन्थ संघ के विषय में यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या कोई ऐसी अवस्था प्राई थी जबकि अापत्तिवश निर्ग्रन्थ-सघ-मांस-मत्स्यादि का भी ग्रहण करने लगा हो और उस का समर्थन उन्हीं सूत्रों से करता हो! इतिहास कहता है कि निर्ग्रन्थ-संघ में कोई भी ऐसा छोटा बड़ा दल नहीं हुआ जिस ने आपत्तिकाल में किये गए मांसमत्स्यादि के 'ग्रहण का समर्थन वनस्पति बोधक सूत्रों का मांस-मत्स्यादि अर्थ करके किया हो। अलबत्ता निर्ग्रन्थ-संघ के लम्बे इतिहास में आपत्ति और
.. देखों निम्रन्थ सम्प्रदायपृ० १८, २० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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अपवाद के हजारों प्रसंग आए हैं पर किसी निर्ग्रन्थ-दल ने आश्वादिक स्थिति का समर्थन करने के लिये अपने मूल सिद्धान्त अाहिंसा से दूर मकर सूत्रों का बिल्कुल विरुद्ध अर्थ नहीं किया है। सभी निन्य अपव द का अपवाद रूप से जुदा ही वर्णन करते रहे है । जिसकी साक्षी छेद सूत्रों में पद पद है । निर्ग्रन्थसंघ का बधारण भी ऐसा रहा है कि कोई ऐसे विकृत अर्थ को सूत्रों की व्याख्या में पीछे स्थान दे तो वह निर्गन्यतंत्र का अंग रह ही नहीं सकता। तब वही मानना पड़ता है कि रचनाकाल में सूत्रों का असली अर्थ तो मांसमत्स्य ही था और पीछेसे वनस्पति अर्थ भी किया जाने लगा।"
"इस के सिवाये कोई २ साहसिक निर्ग्रन्थ प्रचारक नए २ प्रदेश में अपना निरामिष-भोजन का तथा अहिंसा-प्रचार का ध्येय ले कर जाते ये जहां कि उन को पक्के अनुयायी मिलने के पहले मौजूदा खान पान की व्यवस्था में से भिक्षा ले कर गुबर- बसर करना पड़ता था। कभी कभी ऐसे भी रोगादि संकर उपस्थित होते ये जब कि सुवैद्यों की सलाह के अनुसार निर्घन्यों को खान पान में अपवाद मार्ग का भी अवलम्बन करना पड़ता था। वे और इन के बैसी अनेक परिस्थितियां पुराने निम्न्यसंघ के इतिहास में वर्णित है । इन परिनियालियों में निरामिष भोजन और अहिंसा प्रचार के ध्येय का श्रात्यन्तिक ध्यान रखते हुए भी कभी २ निर्घन्य अपनी एषणीय और कल्प्य आहार की मर्यादा को सख्त रूप से पालते हुए मांस-मत्स्यादि का ग्रहण करते हों तो कोई अचरज की बात नहीं। हम जब प्राचार और दशवैकालि. कादि प्रागमों के सामिष श्राहार सूचक सूत्र देखते हैं और उन सूत्रों में वर्णित मर्यादात्रों पर विचार करते हैं तब स्पष्ट प्रतीत होता है कि सामिष पाहारका विधान बिल्कुल प्रापचाविक और अपरिहार्य स्थिति का है।"
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अस्तु, कुछ भी हो यह बात तो स्पष्ट है कि वैदिकधर्म के समान जैनधर्म में हिंमारक शास्त्रीय पाठों के आधार पर कोई सम्प्रदाय या नए दल पैदा नहीं हुए । हां जैनधर्म क्योंकि अनादिकाल से अहिंसात्मक है या दूसरे शब्दों में अहिंमा ही इस के प्राण हैं इस कारण जब भी कभी किसी ने जैनधर्म पर हिंसा का साधारण भी दोष लगाया तो सारी जैनसमान ने एक अाधाज़ से उस का विरोध किया। जो धर्म अनादि काल से अन्य धर्मों में हिंसा प्रवृत्ति का घोर विरोध करता आया है और मानव समाज को हिंसामार्ग से हराने के लिये संदा प्रयत्नशील रहा है वह भला अपने धर्म के लिये हिंसा की कल्पना भी कैसे कर सकता है। महात्माबुद्ध ने तो वेद विहित याज्ञिकी हिंसा का विरोध बाद में किया किन्तु जैनधर्म पहले से ही उसका विरोध करता आ रहा था। गौतम युद्ध के शिष्य तो उनके जीवनकाल में ही आमिषाहार में प्रवृत्त होगए थे किन्तु महावीर के अनुयायी कठिन से कठिन समय में भी अहिंसापथ से विमुख नहीं हुए । यही कारण है कि बुद्ध की अहिमा की अपेक्षा महावीर की अहिंसा का प्रभाव भारतीय समाज पर अधिक पड़ा।
... भगवान् महावीर ने अहिंसा धर्म का प्रतिपादन और प्रचारबड़े ही अलौकिक ढंग से किया। उन्हों ने मानव जाति को समता का उपदेश देते हुए कहा कि जीवों में दिखाई देने वाला शारीरिक या मानसिक वैषभ्य सब कर्म मूलक है वास्तविक नहीं | इस लिये क्षुद्र से क्षुद्र योनि में पड़ा हुआ जीच भी कभी मानव योनि में पैदा हो सकता है और मानव का जीव भी क्षुद्र कर्मों के परिणाम स्वरूप क्षुद्रयोनि में पैदा हो सकता है। अतएव अहिंसा मार्ग का अनुसरण करते हुए सब के साथ समता का व्यवहार करो | इस के अतिरिक्त भगवान् ने अहिंसा का अविच्छिन्न महत्व एक ही घोषित करते हुए भी साधु के लिये पृथक और श्रावक के लिए पृथक अहिंसामार्ग का उपदेश दिया । साधु केलिये
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तो उन्हों ने अहिंसाधर्म का पालन करने के लिये सब प्रकार की कठिन से कठिन अापत्तियों को सहन करने की भी आशा दी। उन्होंने कहा कि साधु के सामने सब से बड़ा जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, और अहिंसा धर्म का मनसा, वाचा और कर्मणा पालन किये बिना वह प्राप्त होने वाली नहीं है । उन्हों ने यह भी बताया कि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
और परिग्रह त्याग ये चार महाव्रत भो अहिंमा धर्म की पूर्णता केलिये ही परमावश्यक हैं।
गृहस्थों के लिये भगवान् ने कहा है कि गृहस्थों को यद्यपि अहिंसाधर्म का पालन करना पूर्णरूप से कठिन है किन्तु तो भी उन्हें जहां तक बन सके अपने जीवन के सभी कार्यों में अहिंसा का पालन करना चाहिये । गृहस्थ जीवन की सफलता के लिये सदाचार और सद्विचार परमावश्यक हैं जिन का आधार भी अहिंसा धर्म है । परन्तु गृहस्थ को साधुमार्ग को अतिकठिन सोपान पर उतरने की आवश्यकता नहीं है। वह अपने लिये प्रतिपादित धर्म का ही आचरण करता रहे तो उस के कल्याण के लिये पर्याप्त है। वैदिक धर्म में मनुष्य के भाग्य का निर्णय ईश्वर के हाथ में है किन्तु जैनधर्म में मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का कां धर्ता है है । भगवान् अपने उपदेशों में कहते थे कि यदि सुख चाहते हो तो शत्रुता बढ़ाने वाली हिंसा की भावना का त्याग करो
और बीवमात्र के प्रति मैत्री की भावना रखो और फिर देखना तुम उत्तरोत्तर सुख की ओर ही बढ़ोगे। यह भगवान् के उन दिव्य और प्रादर्श उपदेशों का ही प्रताप है कि प्राचीन परम्परा से चले आते भमण संस्कृति के प्राणभूत अहिंसामार्ग पर श्राज भी बैनसमाव सुचारू रूप से चल रही है।
प्रादि तीर्थकर भगगान् ऋषभदेव के समय जिस प्रकार अहिंसा
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धर्म के महत्व को समझा जाता था और उस का पालन किया जाता था ठीक उसी प्रकार की मान्यता वर्तमान समय में भी जैन समाज में पाई जाती है । प्रायः सब धर्मों के अनुपायी बड़ी संख्या में श्रामिषाहार में प्रवृत्त हो चुके हैं किन्तु सौभाग्यवश जैनधर्मावलम्बी अब भी पूर्ववत् शाकाहारी हैं और भगवान् के संदेश को नहीं भूले हैं। याज भी जैन समाज के व्यवहारिक, सामाजिक और अध्यात्मिक श्रादि सभी क्षेत्रों में अहिंसा के महत्व की उपेक्षा नहीं की जाती। यत्र तत्र शिथिलता का होना तो अवश्यंभावी है किन्तु व्यापकरूप से जैनमात्र अहिंसाधर्म का पालन करता है।
श्रमण संस्कृति की प्राचार नीति में साधु के लिये पांच महाव्रतों का विधान है । वे व्रत इस प्रकार हैं:
अहिंमा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्या परिग्रहाः । अर्थात्-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये पान महाव्रत है । इन पाञ्च महाव्रतों में भी पाठक देखेंगे किं सर्वप्रथम स्थान अहिंसा महाव्रत को दिया गया है। वास्तव में देखा जाए तो जैनधर्म की नीव ही अहिंसा धर्म पर टिकी हुई है। यही कारण है कि जैनमुनियों या श्रावकों के जीवन में अनेक चिन्ह, उपकरण या क्रियाएं अहिंसा के पालन का बोध कराते हैं । मुखवस्त्रिका, रजोहरण और मयूर पिच्छादि सब उपकरण अहिंसा पालन करने के उपकरण हैं। प्रतिलेखन क्रिया भी इसी सिद्धान्त की प्रतीक है। संक्षेप में जैनधर्म की प्रत्येक क्रिया अहिंसा के सिदान्त से ओतप्रोत है। ऐसा लगता है कि अंहिसा ही जैनधर्म है और जैनधर्म ही अहिंसा सिद्धान्त का जागृतरूप है। अहिंसा वास्तव में जैन धर्म की प्रात्मा है। यदि उपयुक्त पाञ्च महाव्रत्तों में से अहिंसा महाव्रत को पृथक् निकाल दिया जाये और जैनधर्म के केवल
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बाकी के चार महावत ही मान लिये जाए तो जैनधर्म, जैनधर्म नहीं रह जाता। अतएव अहिंमा महाव्रत को यदि शेष चार महाव्रतों का राजा मान लिया जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । भगवान् महावीर के उपदेश से भी यही पता चलता है कि शेष चारों महाव्रता का पालन भी अहिंमा महाव्रत की पूर्णता की ओर ले जाने वाला है ! इस प्रकार जैनधर्म अहिंमा प्रधान धर्म है और इसी अहिंसा के प्रचार
और पालन के कारण जैनधर्म विश्व के धर्मों में एक ऊँचा स्थान प्राप्त करता है।
अहिंमा शब्द की परिभाषा मब धर्मों के प्राचार्यों ने अपने २ दृष्टिकोण से भिन्न २ प्रकार से की है । जैनाचार्यों की परिभाषा के अनुमार हिंसा से बचने का नाम अहिमा है। वे कहते हैं कि कषाय या प्रमाद के वशीभूत होकर मनसे, वाणी से या कम से दूमरे प्राणो को दुःख पहुंचाना या प्राणों से विमुक्त करना हिंसा होती है। जो प्राणी ऐमा नहीं करता वह अहिंमाधर्मका पालन करता है। हिंसा दो प्रकारकी होती है। पहली भावहिमा और इमरी द्रध्यहिमा। आत्मा में गग, द्रुप, काम. क्रोध, मान, माया आदि विकृत भावों का 'उत्पन्न होना भाव हिमा है। इन कपायों से अात्मिक ज्ञान को महान् हानि पहुँचती है। इन्हीं कपायों के वशीभूत होकर जब कोई प्राणी दूसरे प्राणी का वध्र कर देता है तो वह द्रव्य हिंमा बन जाती है। जैन सिद्धान्त के अनुमार यह दोनों प्रकार की हिंसा त्याज्य है। वास्तव में देखा जाय तो हिंमा ही समस्त दोषों या पापों की जनन' है । हिंसा से बढ़कर : मंमार में कोई पाप नहीं। असत्य भाषण, चौर्यकर्म और दुराचरण श्रादि सब हिंसा की ही भिन्न २ शाखाएं हैं। अतएव हिंसा के त्याग से ही मानव जीवन सुखी बन सकता है । भगवान् महावीर स्वामी ने विश्न को अहिंसा का सन्देश देते हुए कहा था:-.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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"जीवन का प्रधान लक्ष्य शान्ति है और शान्ति का एकमात्र उपाय अहिंसा है। अतः यदि तुम जीवन के लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हो तो उसके एकमात्र साधन अहिंसा धर्म को कभी मत भूलो।"
जब हम सब शान्तिपूर्ण जीवन बिताना चाहते हैं तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम दसरों को भी शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने दें। दूसरों के जीवन पर आक्रमण करके अपने लिये शान्ति की इच्छा करना वृथा है क्योंकि हिंसा की प्रतिक्रिया अवश्य होती है
और उसके होने से जीवन में अशान्ति का पाना स्वाभाविक है । अतः शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिये अहिंसा मार्ग ही श्रेष्ठतम है । इस पर चलने से जीवन में शान्ति का ही साम्राज्य मिलता है ।
जैन धर्म की अहिंमा में एक और बड़ी विशेषता हमें मिलती है । किसी का मन्तव्य है कि पशु को न मारना अहिंसा है। कोई कहता है मनुष्य को न मरना अहिमा है किन्तु जैन धर्म तो प्राणीमात्र को मन, वचन और कर्म से न मारने को अहिंसा मानता है । इस प्रकार जैन धर्म की अहिंसा प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव रखने का उपदेश देती है।
_ जैन धर्म में प्राणी पाच प्रकार के माने जाते हैं । एक इन्द्रिय वाले, दो इन्द्रियों वाले, तीन इन्द्रियों वाले, चार इन्द्रियों वाले और पाञ्च इन्द्रियों वाले । एक इन्द्रिय वाले जैसे फल । फल के केवल स्पर्शेन्द्रिय होती है। दो इन्द्रियों वाले शंख, सीप और लट आदि । इनके केवल काया और मुख दो इन्द्रियें होती हैं। तीन इन्द्रियों वाले लीख, कीड़ी, खटमल आदि । इनके काया, मुख और नासिका तीन इन्द्रियें होती हैं । चार इन्द्रियों वाले मक्खी, मच्छर और वृश्चिक आदि। इनके काया, मुख, नाक और अांख ये चार इन्द्रियें होती हैं ।
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पाञ्च इन्द्रियों वाले मनुष्य श्रादि जीव । इनमें से किसी जीव को भी मारना या मारने की इच्छा करना हिंसा प्राजाता है किन्तु सबके मारने में एक सी हिंसा नहीं होती। सबसे अधिक हिंसा पञ्च न्द्रिय जीव को मारने में, उससे कम चार इन्द्रिय वाले को इस प्रकार उत्तरोत्तर हिंसा की सामा कम होती जाती है। पञ्चेन्द्रिय जीव को मारने में जो हिंसा होता है उसकी तुलना फल तोड़ने या खाने को हिना से नहीं कर सकते। फलादि वनस्पति को तोड़ने में कम से कम हिंसा होती है जो सामाजिक या गृहस्थ जीवन में निन्द्य नहीं कही जा सकता।
__ अाजकल बहुत से लोग तो अहिंसा धर्म के अतिवाद पर उतर पाए हैं और फलादि वनस्पति के आहार क! भो अभिषाहार के समान ही हिंसापणं समझकर उसका सेवन करने में पाप मानते हैं । उनको पता होना चाहिये कि वनस्पति और पशु पक्षी आदि जीवों के जीवन के प्रकार में आकाश पाताल का अन्तर है। वृक्षों के फलों को यदि हम न भी तोड़े तो वे पकने पर सयं उनको गिरा देते हैं । और फिर अपनी २ ऋतु में पौधे पुनः पूर्ववत् फनों से लद जाते हैं। कुछ पेड़ जैसे सहतूत और गुलाबाद तो ऐसे हैं जो काटने छांटने से ही अधिक फलते फूलते हैं। यदि उनको समय समय पर कारा बांटा न जाए तो शीघ्र ही सूख कर नष्ट हो जाते हैं। वनस्पति संसार के लिये जो प्राकृतिक नियम है वे जंगम संसार पर लागू नहीं किए जा सकते । उदाहरण के लिये यदि बकरे के सिर, टांग, या कान श्रादि अंग कार लिये जाएं तो वे किसी भी काल में पुनः नहीं उग सकते। इससे यह स्पष्ट है कि स्थावर और जंगम दोनों तरह के संसारों के लिये प्राकृतिक नियम मिन्न २ प्रकार के हैं। अतः दोनों के जीवन को समान समझना या दोनों की हिंसा को समान समझना निरी अज्ञानता होगी। इसका अभिप्राय यह नहीं कि हमें वनस्पति-संसार के प्रति दयाभाव नहीं रखना चाहिये किन्तु अहिंसा के अतिवाद पर उतरना और मिथ्याष्टि रखना
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यह सर्वदा हानिकारक सिद्ध होगा। ऐसा करने से अहिंसा धर्म का पालन व्यावहारिक जीवन में असंभव हो जाएगा। इससे अहिंसा के प्रचार के स्थान पर हिंसा की वृद्धि होगी और लोगों की दृष्टि में अहिंसा धर्म का महत्त्व लुप्त हो जाएगा।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि अहिंसा धर्म का पालन मानव जोवन को उच्च बनाने के लिये एक महान् आदर्श है और हमें भरसक इसके पालन में प्रयत्नशील रहना चाहिये किन्तु सभी प्राणियों के लिये सांसारिक जीवन का निर्माण ही ऐमा है जिसमें कदम कदम पर हिंसा का अस्तित्त्व भरा पड़ा है। जीवन के प्रायः सभी कार्य किसी न किसी प्रकार की हिंसा से लिम हैं और वह हिंसा अनिवार्य है । खाना, पीना, चलना, खेती करना, व्यापार करना आदि सभी जीवन के कार्य हिंसा से भरे पड़े हैं । गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त संसार का सारा जीवन हिंसा से परिपूर्ण है। तो क्या छोटी से छोटी हिंसा से बचने के लिये मनुष्य सब कामों को छोड़कर निष्कर्मण्य होकर बैठ जाए ? निष्कर्मण्यता जीवन की मृत्यु है और संसार का अन्त है। अहिंसा के अतिवाद पर उतरने वाले सजन संसार को निष्कर्मण्यता की ओर ही ले जाएंगे। उनको चाहिये कि वे अहिंसा के वास्तविक महत्त्व को समझे। अहिंसा की अति. पर उतरने से तो अहिंसा धर्म व्यवहार्य नहीं रह जाएगा। अहिंसा में जितना श्राकर्षण है वह लुप्त हो जाय गा। और लोग इस के पालन को असम्भव समझ कर इसका त्याग कर देंगे जिसका परिणाम यह होगा कि संसार में हिंसा के प्रचार को प्रोत्साहन मिलेगा। अतएव जो जैन धर्मावलम्बी अहिंसा की ऐसी अति पर उतरेंगे वे जैन धर्म को लाभ के स्थान पर हानि ही पहुंचाएँगे । उनको पता होना चाहिये कि जैन धर्म में जीवों के चैतन्य की तरतमता के अनुसार ही हिंसा अहिंसा का विवेचन किया है। फलाहार या शाकाहार और मांसाहार दोनों की विभाजक रेखा को बड़े विस्तार पूर्वक
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स्पष्ट करके लिखा गया है। अतः कट्टरपन्थी सजनों को उसे ध्यान पूर्वक विवेक से समझना और जीवन में उतारना चाहिये ।
हिंसा यदि जीवन की एक वास्तविकता है, तो अहिंसा, जीवन का एक महान् धर्म है। हिंमा से जीवन का निर्वाह होता है और अहिंसा जीवन को परिपूर्णता का ओर लेजाती है। अतः हमारा यह कर्तव्य होजाता है कि हम जीवन की परिपूर्णता की ओर बढ़े किन्तु परिपूणता की ओर बढ़ने के लिये जीवन निर्वाह की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जोवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आदि सभा क्षेत्रों में जीवन की शान्तिमय प्रगति के लिये अनेक हिंसामय उपायों को काम में लाना पड़ता है जिनके बिना सांसारिक व्यवहार चल नहीं सकता। यदि डाकू, चोर, लुटेरे और घातकों को भी दण्ड देने में हिंसा मान कर उसका पालन करने लगें तब तो संसार में अराजकता छा जाए और भयानक से भयानक उत्पात होने लग जाएँ फिर भला संसार में शान्ति की स्थापना कैसे हो सकती है ? अतएव संसार की व्यवस्था को ठीक बनाए रखने के लिये और शान्तिपूर्ण जीवन की स्थापना के लिये जो हिंसा की जाती है वह तो पुण्य का रूप धारण कर लेती है या दूसरे शब्दों में वह किसी हद तक अहिंसा धर्म का पोषण करती है । अतः धूर्ती और आतताइयों को दण्ड देने में कोई दोष नहीं। इससे सा धर्म के पालन में कोई बाधा नहों पड़ती। यही कारण है कि जन राजनीति के अनुसार जो पांच यज्ञ बतलाए हैं उनमें सबसे पहला यज्ञ 'दुष्टस्य दण्डः' अर्थात् दुष्ट को दण्ड देना है। इसी प्रकार यदि कोई शत्रु हमारे राष्ट्र पर आक्रमण करे, हमें परतंत्र बनाना चाहे या लूट मार करे तो उसका मुकाबला करके उसे पीछे हटाने या मारने में भी कोई हिंसा नहीं माननी चाहिये । जैन राजनीति में 'रिपु राष्ट्र रक्षा' अर्थात् शत्रु से राष्ट्र की
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( १२१)
रक्षा करने को पाञ्चवाँ यज्ञ बताया है। दुष्ट आततायी और शत्रु के 'मारने में यदि कुछ सामान भी ली जाए तो भी वह 'अहिंसा धर्म
की ओर ही मनुष्य को बढ़ाती है। विशेषजन्य अल्प हिंसा से भविष्य में होने वाली महती हिंसा से मुक्ति मिलती है। विरोध न करके अपने विचारों को कुचलना, कायरता दिखाना और शत्रु का शिकार बन जाना यह क्या हिंसा नहीं है ? इस सत्य का पोषण करते हुए और आत्म-संरक्षण पर जोर देते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी लिखते हैं:
"आततायी के सामने कायर बन जाना, भाग जाना या मन से हिंसा करते रहना ज्यादा बुरा है। उसकी अपेक्षा तो निर्भय
और बहादुर बन कर हिंसा करना ही अच्छा है। क्योंकि इस रास्ते किसी न किसी दिन मनुष्य अहिंसा तक पहुंच जायगा।"
एक बार एक बहन ने महात्मा जी को पत्र लिखा कि यदि कोई दैत्य जैसा पुरुष राह चलती स्त्री पर बलात्कार करे तो ऐसे संकट में फसी हुई वह क्या करे ? दर्शक क्या करें ? इसके उत्तर में, महात्मा बी ने लिखा:
..
.
.
.
'असल चीज़ तो यह है कि स्त्रियाँ निर्भय बनना सीख जाएँ । मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जो स्त्री निडर है और दृढ़तापूर्वक यह मानती है कि उसकी पवित्रता ही उसके सतत्त्व की सर्वोत्तम दोल है, उसका शील सर्वथा सुरक्षित है । .............. निडरता या प्रास्था यह शिक्षा एक दिन मैं नहीं मिल सकती । अत एवं यह भी समझ लेना चाहिये कि इस दरम्यान क्या किया जा सकता है। जिस स्त्री पर इस तरह का हमला हो, वह हमले के समय हिंसा अहिंसा का विचार न करे। उस ममय अपनी रक्षा ही उसका परम धर्म है। उस
संमक यो साधन उसे सूझे उसका उपयोग करके वह अपनी पवित्रता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १२२)
की और अपने शरीर की रक्षा करे | ईश्वर ने उसे नाखून दिये हैं, दांत दिये हैं और ताकत दी है । वह इनका उपयोग करे और करत २ मर जाय । मौत के भय से युक्तं हर एक पुरुष या स्त्री स्वयं मर के अपनी और अपनों की रक्षा करे । सच तो यह है कि मरना हमें पसन्द नहीं होता। हम जिये आखिर हम घुटने टेक देते हैं। कोई मरने के बदले सलाम करना पसन्द करता है, कोई धन देकर जान छुड़ाता है, कोई मुंह में तिनका लेता है और कोई चींटी की तरह रेंगना पसन्द करता है। इसी तरह कोई स्त्री लाचार होकर जूझना छोड़ पुरुष का पशुता के वश होजाती है।
ये बातें मैंने तिरस्कारवश नहीं लिखीं; केवल वस्तु स्थिति का ही जिक्र किया है। सनामी से लेकर सतीत्वभंग तक की सभी क्रियाएँ एक ही चीज़ की सूचक है । जीवन का लोभ मनुष्य से क्या क्या नहीं कराता ! अतएव जो जीवन का लोभ छोड़कर जीता है वही जीवित रहता है । 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः' इस मन्त्र के अर्थ को हर एक पाठक समझ ले और कण्ठाग्र कर ले।"
दर्शक पुरुष क्या करें ? _ 'यह तो स्त्री का धर्म हुआ लेकिन दर्शक पुरुष क्या करें ? सच पूछो इस का जवाब मैं ऊपर दे चुका हूं, यह दर्शक न रह कर । रक्षक बनेगा । वह खड़ा २ देखेगा नहीं। वह पुलिस को नहीं टूटने जायेगा वह रेल को जञ्जोर खींचकर अपने आपको कृतार्थ नहीं मानेग । प्रगर वह अहिंसा को बानता होगा तो उस का उपयोग करते २ मर मिटेगा और संकट में फंसी बहन को उबारेगा । अहिंसा से नहीं हिंसा दाग बहन की रक्षा करेगा।'
महात्मा जी के इस उत्तर से यह स्पष्ट है कि दुष्ट को दण्ड देते
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समय हिंसा अहिंसा का विचार बिल्कुल छोड़ देना चाहिये। स्त्री को निर्भय होकर अपने सतीत्व की रक्षा के लिये हिंसा-अहिंसा का विचार छोड़ कर जिस प्रकार भी हो सके दुष्ट का सामना करना चाहिये और मर मिटने तक का संकोच न करना चाहिये । दर्शक को भी स्त्री की रक्षा के लिये अपनी जान की बाजी लगा देना चहिये । जो सच्चे अहिंग-धर्म को समझता है और उसका पालन करता है वह दुष्ट के सामने कभी भी कायरता नहीं दिखाता । वह वीरों की तरह या तो दुष्ट को खतम कर डालता है या स्वयं लड़कर मिट जाता है । इस लिये अहिंसा धर्म वीरों का धर्म है। कायर और डरपोक इस धर्म का पालन नहीं कर सकते।
राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी को यदि बीम: सदी के अहिंसा के अवतार मान लिया जाये तो इस में अतिशयोक्ति न होगी। बहुत से विद्वानों ने महात्मा गांधी की तुलना भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध से की है और बहुत से इन को उन से भी बढ़ा चढ़ा कर मानते 'हैं । निस्सन्देह कुछ लोगों को इस से इतराज़ भी है किन्तु कुछ भी हो मैं अपने दृष्टिकोण से यह दावे से कह सकता हूं कि पूर्वावतारों या पूर्वाचार्यों की भाँति ही महात्मा जी ने अहिंसा के वास्तविक स्वरूप को समझा था। उन्हों ने अपने जीवन में सुचारु रूप से अहिंसाधर्म का पालन किया और विश्व में उस का प्रचार किया। मैं तो कहूंगा कि महात्मा गांधी की अहिंसा में कुछ और भी विशेषता है जिस के कारण संसार में आज उस का इतना महत्व है। बीसवीं सदी जैसे विकास वाद के युग में राजनैतिक क्षेत्र में अहिंसाधर्म को जो ऊंचा स्थान मिला है इस का श्रेय राष्ट्र पिता महात्मा गांधी को ही जाता है ।
महात्मा जी ने अपना सारा जीवन अहिंसाधर्म की उपासना में
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( १२१)
लगाया। उन की उपासना भी ससार के साधारण महात्माओं की भाँति निष्क्रिय नहीं थी। वह सक्रिय थी। उन्हों ने केबन अहिमाधर्म के महत्व को समझने में ही अपनी शक्ति नष्ट नहीं की किन्तु · जीवन के व्यवहारिक सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक अादि मभा क्षेत्रों में अहिंसा धर्म को कार्य रूप में परिणित.. करके देखा और उन्हें सर्वत्र इसका चमत्कार दृष्टिगोचर हुआ।। जो भी आन्दोलन वे चलाते थे उस का मूलाधार अहिंसा होता था और ये उस में सफल होते थे । भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन की नीव भी महात्मा जी ने अहिमा के सिद्धान्त पर रखी.। बरतानियां जैसी बड़ी सल्तनत के साथ टक्कर भी उन्होंने अहिंसा के शस्त्र के साथ ली। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये भारतीयों को अहिंसा के शस्त्र का अभ्यास और उपयोग भी महात्मा जी ने सिखाया। भारत के लोग उन के बताए हुए मार्ग पर चले और उम का परिणाम यह हुआ कि अन्त में भारत को विजय हुई। विदेशियों को भारत भूमि छोड़ कर जाना पड़ा और अनेक सदियों से खोई हुई स्वतन्त्रता को हम ने फिर से पाया । जर्मन और जापान जैसे हे २ शस्त्रधारी जो युद्ध को प्राधान्य देने थे अपनी स्वतन्त्रता से वंचित हो चैटे और भारत अहिंसाधम के वन पर स्वतन्त्र हुअा। यह सब राष्ट्र पिता महात्मा गांधी के नेतृत्व के कारण हुश्रा। भारत भूमि का यह सभाग्य था कि इस में महात्मा जी जैसे महापुरुष का जन्म हुश्रा । मैं तो इन्हें वास्तव में अहिंसाधर्म का अवतार मानता हूं।
पर्धा में गांधी सेवा मंघ की सभा में एक बार महात्मा जी ने भाषण दिया था जिस में अहिंसा धर्म के महत्व पर प्रकाश डाला था। उम भाषण के कुछ अंश मैं यहां प ठकों के ज्ञान के लिये देता हूं।
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( १२५ )
'अहिंसा' शब्द निषेध ।
"जो अहिंसक है उस के हाथ में चाहे कोई भी उद्यम क्यों न रहे उस में वह अधिक से अधिक अहिंसा लाने की कोशिश करेगा ही। यह तो. वस्तुस्थिति है कि बगैर हिंसा के कोई उद्योग चल नहीं सकता। एक दृष्टि से जीवन के लिये हिंसा अनिवार्य मालूम होती है। हम हिंसा को घटाना चाहते हैं और हो सके तो उस का लोप करना चाहते हैं । मतलब यह कि हम हिंसा करते हैं परन्तु अहिंसा की ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं । हिंसा को त्याग करने की हमारी कल्पना में से अहिंसा निकली है इस लिये हमें शब्द भी निषेधात्मक मिला है। अहिंसा शब्द निषेधात्मक है।".
॥ अहिंसा को मर्यादित व्याख्या ॥
अर्थातु जो अहिंसा को. मानता है वह उद्योग करेगा उस में कम से कम हिंसा करने का. प्रयत्न करेगा। लेकिन कुछ उद्योग ही.. ऐसे हैं जो हिंसा बढ़ाते हैं। जो मनुष्य स्वभाव से ही अहिंसक है वह ऐसे चन्द एक उद्योगों को छोड़ ही देता है। उदाहरणार्थ यह करना ही नहीं की जा सकतो कि वह कसाई का धंधा करेगा । मेरा मतलब यह नहीं कि मांसाहारी अहिंसक हो ही नहीं सकता। मांसाहार दूसरी चीज़ है। हिन्दुस्थान में थोड़े से ब्राह्मण और वैश्यों को छोड़ कर बाकी के सब तो मांसाहारी हैं हो। किन्तु फिर भी वे अहिंसा को 'परमधर्म' मानते हैं । यहां हम मांसाहारी का हिंसा का विचार नहीं कर रहे हैं। बो मनुष्य. मांसाहारी हैं वे सारे हिंसाबादी नहीं हैं। मैं यह कैसे कह सकता हूं कि मांसाहारी मनुष्य अहिंसा नहीं होता। ऐण्ड ब से बढ़कर
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अहिंसक मनुष्य कहां मिलेगा लेकिन वह भी तो पहिले मांसहारी था। बाद में उस ने मांसाहार छोड़ दिया । लेकिन जब मांसाहारी था तब भी अहिंसक तो था ही। छोड़ने पर भी, मैं जानता हूं कि कभी २ जब वह अपनी बहन के पास चला जाता था तब मांस खा लेता था या डाक्टर लोग अाग्रह करते थे तो खा लेता था। लेकिन उस से उस की अहिंसा थे ड़े ही कम हो जाती थी! इस लिये यहां पर हमारी अहिंसा की व्याख्या परिमित है। हमारी अहिसा मनुष्यों तक ही मर्यादित है।
॥ हिंसक और अहिंसक उद्योग ॥
लेकिन मांसाहारी अहिंसक तो बाज़ चीज़ छोड़ ही देता है । जैसे वह शिकार कभी नहीं करेगा। यानी जिस से हिंसा का विस्तार बढ़ता ही जाता है । इन प्रवृत्तियों में वह कभी न पड़ेगा । वह युद्ध में नहीं पड़ेगा । युद्ध में शस्त्रास्त्र बनाने के कारखानों में काम न करेगा । उन के लिये नए २ शस्त्रों की खोज नहीं करेगा। मतलब वह ऐसा कोई उद्योग नहीं करेगा जो हिंसा पर ही श्राश्रित है और हिंसा को बढ़ाता है।
अब काफी उद्योग ऐसे भी है जो जीवन के लिये आवश्यक है लेकिन वे बिना हिंसा के चल ही नहीं सकते । जैसे खेती का उद्योग है ऐसे उद्योग अहिंसा में श्रा जाते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि उनमें हिंगा की गुजायश नहीं है अथवा वे बिना हिंसा के चल सकते है। लेकिन उनकी बुनियाद हिंसा नहीं है। और वे हिंसा को बढ़ाते भी
नहीं हैं । ऐसे उद्योगों में होने वाली हिंसा हम घटा सकते हैं और उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २२७ )
परिहार्य हिंसा की हद तक ले जासकते हैं। क्योंकि आखिरी अहिंसा हमारे हृदय का धर्म है । हम यह नहीं कह सकते कि किसी उद्योग का हिंसा से अनिवार्य सम्बन्ध है । वह तो हमारी भावना पर निर्भर है । हमारा हृदय अहिसक होगा तो हम अपने उद्योग में हिंसा लाएंगे ।
अहिसा केवल वाह्य वस्तु नहीं है । मान लीजिये एक मनुष्य है। काफी कमा लेता है । और सुख से रहता है । किसी का कर्ज़ वगैरह नहीं करता। लेकिन हमेशा दूसरों को इमारत और मिलकियत पर दृ?ि रखता है | एक करोड़ के दस करोड़ करना चाहता है तो मैं उसे हिंसक नहीं कहूंगा । ऐसा कोई धन्धा नहीं जिसमें हिंसा हो ही नहीं । लेकिन चन्द धन्धे ऐसे हैं जो हिंसा को ही बढ़ाते हैं। हिंसक मनुष्य को उन्हें वर्ज्य समझना चाहिये। दूसरे अनेक धन्धों में अगर हिंसा के लिये स्थान है तो हिंसा के लिये भी है । हमारे दिल में अगर हिंसा भरी हुई है तो हम हिंसक वृत्ति से उन धन्धों को करें । हम उन उद्योगों का दुरुपयोग न करें ।
प्राचीन भारत की अर्थ व्यवस्था ।
मेरा कुछ ऐसा ख़याल है कि जिन्होंने हिन्दुस्तान के गावों का निर्माण किया उन्होंने समाज का सङ्गठन ही ऐसा किया जिससे शोषण और हिंसा के लिये कम से कम स्थान रहे। उन्होंने मनुष्य के अधिकार का विचार नहीं किया । उसके धर्म का विचार किया । वह अपनी परम्परा और योग्यता के अनुसार समाज के करता था । उसमें से उसे रोटी भी मिल जाती थी थी । लेकिन उसमें करोड़ों को चूसने की भावना न थी भावना के बदले धर्म की भावना थी । वे अपने धर्म का आचरण
हित का उद्योग
यह
दूसरी बात
।
लाभ की
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( १२८ )
करते थे रोटी ती यों ही चल जाती थी। समाज की सेवा ही मुख्य चीज थी। उद्योग करने का उद्देश्य व्यक्तिगत नफा न था। समाज का सङ्गठन ही ऐसा था। उदाहरण :- गांव में दई की जरूरत होती थी वह खेती के लिये औज़ार तैयार करता था लेकिन गांव उसे पैसे नहीं देता था । देहाती समाज पः यह बन्धन लगा दिया था कि उसे अनाज दिया जाय । उसमें भी हिंसा काफ़ी हो सकती थी। लेकिन सुव्यवस्थित समाज में उसे न्याय मिलता था। और किसी समय में समाज सुव्यवस्थित था ऐसा मैं मानता हूं।
शरीर-श्रम । इसी में शरीर श्रम श्राबाता है। मनुष्य अपने श्रम से थोड़ी सी ही खेती कर सकता है। लेकिन अगर लाखों बीघे जमीन के दो चार ही मालिक हो जाते हैं तो बाकी के सब मज़दूर हो जाते हैं । यह वगैर हिंसा के नहीं हो सकता । अगर आप कहेंगे कि वे मजदूर नहीं रखेंगे यन्त्रों से काम लेंगे तो भी हिंसा आ ही जाती है। जिसके पास एक लाख बीघा जमीन पड़ी है उसे यह घुमण्ड तो था ही जाता है कि मैं इतनी ज़मीन का मालिक हु । धारे २ उसमें दूसरों पर सत्ता कायम करने का लालच श्रा जाता है। यन्त्रों की मदद से वह दूर २ के लोगों को भी गुलाम बना लेता है और उन्हें इसका पता भी नहीं होता कि वे गुलाम हो रहे हैं। गुलाम बनाने का एक खूबसूरत तरीका इन्होंने दूढ लिया है। जैसे कोर्ड है एक कारखाना बना कर बैठ गया है। चन्द श्रादमी उसके यहां काम करते हैं। लोगों को प्रलोभन देता है विज्ञापन निकालता है : हिंसक प्रवृत्ति का ऐसा मोहक रास्ता निकाल लिया है कि हम उसमें जाकर फंस जाते हैं। हमें इन बातों पर विचार करना है कि क्या हम उसमें फंसना चाहते हैं ? या उस से बचा रहना चाहते हैं।"
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( १२६ )
मेरा विशेष दावा |
अगर हम अपनी हिंसा को अविछिन्न रखना चाहते हैं और सारे समाज को अहिंसक बनाना चाहते हैं तो हमें उसका रास्ता खोजना होगा । मेरा तो यह दावा रहा है कि सत्य, अहिंसा आदि बो यम हैं वे ऋषि मुनियों के लिये नहीं हैं। पुराने लोग मानते हैं कि मनु ने जो यम बतलाए हैं वे ऋषि मुनियों के लिये हैं व्यवहारी मनुष्यों के लिये नहीं हैं । मैंने यह विशेष दावा किया है कि अहिंसा सामाजिक 1 चीज़ है । मष्नुय केवल व्यक्ति नहीं है वह पिण्ड भी है और ब्रह्माण्ड भी। वह अपने ब्रह्माण्ड का बोझ अपने कन्धों पर लिये किरता है । जो धर्म व्यक्ति के साथ खत्म हो जाता है वह मेरे काम का नहीं है मेरा यह दावा है कि अहिंसा सामाजिक चीज़ है नहीं है । मेरा यह दावा है कि सारा समाज सकता है । मैंने इसी विश्वास पर चलने की कोशिश की और मैं मानता हूं कि मुझे उसमें निष्फलता नहीं मिली ।
केवल व्यक्तिगत चीज़
हिंसा का पालन कर
अहिंसा समाज का प्राण है ।
......... मेरे लिये अहिंसा समाज के प्राण के समान चीज़ है
है
:
लिये भी सुलभ
वह सामाजिक धर्म है, व्यक्ति के साथ खतम होने वाला नहीं है । पशु और मनुष्य में यही तो भेद है । पशु को ज्ञान नहीं मनुष्य को है । इसलिये हिंसा उसकी विशेषता है । वह समाज के होनी चाहिये । समाज उसी के बल पर टिका है। किसी समाज में उसका विकास कम हुआ है किसी में अधिक विकास हुआ है । लेकिन उसके बिना समान नहीं टिक सकता ।" महात्मा जी ने अहिंसा धर्म को किस रूप में संसार के सामने रक्खा, किस प्रकार वे उसका पालन स्वयं करते थे और किस प्रकार वे हिंसा का पालन हमारे से करवाना
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( १३० )
चाहते थे यह उपर्युक्त अहिमा पर प्रकट किए गए उनके विचारों से पाठक भली भांति समझ गए होंगे। वे अहिंसा धर्म को समाज का श्रङ्ग समझते थे। और कहते थे कि समाज इसके बिना टिक नहीं सकता। महात्मा बी कहा करते थे कि शस्त्रधारी पुरुष बोरता में अहिंसक व्यक्ति की बराबरी नहीं कर सकता। शस्त्रधारी के लिये तो शस्त्र का सहारा चाहिये और उसके बिना वह अपने प्रारको निर्बल अनुभव करता है। यही कारण है कि निःशस्त्र होकर वह शत्रु के सामने कायरता दिखाता है। शस्त्र के बिना वह अशक्त हो जाता है। अहिंसा धर्म अशक्तों का शस्त्र नहीं है, यह तो शक्तों का शस्त्र है। इसका पालन निर्बल लोग नहीं कर सकते । अहिंसा के विषय में ठीक यही मन्तव्य जैन धर्म का भी है। जैन धर्म भी अहिंसा को वीरधर्म मानता है।
हिंसा-अहिंसा विषयक बौद्ध दृष्टिकोण ।
जैनधर्म के समान बुद्ध धर्म को भी नींव तो 'अहिंसा परमो धर्मः' पर ही रक्खी गई थी और महात्मा बुद्ध ने भी भगवान महावीर स्वामी की तरह वैदिकी हिसा का विरोध किया । वास्तव में देखा जाए तो बुद्ध का वैदिकी हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन ही बुद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाने में कारण बना । अहिंसा के विरोध से महात्मा बुद्ध को बड़ी सफलता मिली। वह समय ऐसा था कि हिंसा बहुत बढ़ी हुई थी। यज्ञ के नाम पर पशु बलि श्राम होगई थी। अत्यचारों से तंग भाई भारतीय समाज किसी सुधारक की ताक में थी। ऐसे समय में महात्मा बुद्ध की आवाज़ लोगों को प्रीष्म के पश्चात् वर्षा के समान लगी। सब लोग उनके उपदेशों से आकर्षित हुए और अहिंसा धर्म का प्रचार हुश्रा। किन्तु यह देखकर आश्चर्य होता है कि बुद्ध के बाद उनके अनुयायी व्यापक रूप में हिंसा में प्रवृत्त हुए और मांसाहारी बने ।
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( १३१ )
योग के अन्य देशों के समान बौद्ध देशों में भी आज श्रामिषाहार व्यापक रूप में किया जाता है। सबसे बड़ा आश्चर्य हमें इस बात से होता है कि बौद्ध पिटकों तथा अन्य सूत्रों में भी यत्र तत्र प्रामिषाहार के विधान के प्रकरण मिलते हैं। एक सूत्र* में लिखा है कि महात्मा बुद्ध ने एक गृहस्थ से भिक्षा में सूकर का मांस ग्रहण किया उसके खाने से उनके पेट में शून पैदा हुआ और उसी शूल के कारण उनकी मृत्यु हुई। उसी प्रकार अन्य बौद्ध ग्रन्थों में भी बौद्ध भिक्षुत्रों के लिये ऐसे ग्रामिषाहार ग्रहण करने की प्राज्ञा दी गई है जो उनके निमिच से न बनाया गया हो। हिंसा विरोधी बौद्ध धर्म के अन्यों में इस प्रकार के मांसाहार का विधान मिलना एक बड़ी विचित्र बात है । महात्मा बुद्ध के जीवन काल के उदाहरण होने के कारण इनको प्रक्षिप्त भी नहीं माना जा सकता। अाजकल भी जो बौद्धधर्मावलम्बी व्यापक रूप से आमिषाहार करते हैं उनको अपने धर्म के प्रतिकूल जाने के दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि बौद्ध धर्म ग्रन्थों में - श्रामिषाहार का विधान है। अतः हम इस निर्णय पर पहुंच सकते है कि बौद्ध धर्म सबसे पहले अपनी जन्मभूमि भारतवर्ष में ही फला फूना
और फलने फूलने के लिये भी इसको वदिक-क्षेत्र मिला बो व्यापक रूप से आमिषाहार में प्रवृत्त था। वैदिक लोग यद्यपि बौद्ध धर्मावलम्बी होगए थे किन्तु एक दम वे आमिषाहार का त्याग नहीं कर सके और बौद्ध होने के बाद भी वे उसका सेवन करते रहे और उन्हों ने ही श्रामिषाहार परक पाठों को बौद्ध ग्रन्थों में स्थान दिया। किन्तु यह निर्णय भी कोई विशेष सन्तोषजनक प्रतीत नहीं होता । यदि उपयुक्त निर्णय मान लिया जाए तो एक बड़ा प्रश्न हमारे सामने यह श्राता है कि महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन काल में आमिषाररक सूत्रों के पाठों की और उसके प्रचारकों की उपेक्षा क्यों की? क्या गौतम
* महापरि निब्याण सुत्त ।
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( १३२ )
बुद्ध स्वयं उनसे सहमत थे ? इसका उत्तर हमें बौद्धधर्म ग्रन्थों में ही मिलता है किन्तु वह कितना निष्पक्ष है यह पाठक स्वयं समझ जाएंगे। जिस प्रकार वैदिक और जैनवम में मांसवरक शास्त्रीय पाठों का वनस्पतिपरक अर्थ किया गया और हिंसा के कलङ्क को घोया गया इसी प्रकार बौद्ध धर्म में भी महायान सङ्घ की उत्पत्ति हुई । महायान सङ्घ के विद्वानों ने * महात्मा बुद्ध द्वारा लिये गए मांसवरक सूकर-मदव आदि शब्दों का 'सूकर के द्वारा मर्दित बाँस का अंकुर' 'शर्करा का बना हुआ सूकर के आकार का खिलौना' आदि अनेक श्रर्थं करके यह सिद्ध किया है कि सूकरमद्दव से सूअर का मांस श्रभिप्रेत नहीं है और बुद्ध ने अपनी भिक्षा में मांसाहार का ग्रहण कभी नहीं किया ।
बौद्धधर्म की हीनयान और महायान ये दो बड़ी शाखाएँ हैं । प्रारम्भ से ही इन दोनों में पारस्परिक विरोध भी बड़ा रहा है । महायान पक्ष के लोग श्रामिषाहार की कड़ी चालोचना और निन्दा करते हैं । वे यह मानने के लिये कम भी तैयार नहीं कि महात्मा बुद्ध श्रामिषाहार के पक्षपाती थे | महायान परम्परा का लंकावतार एक मान्य धर्मग्रन्थ है । उसके एक प्रकरण में महामति बोधिसत्त्व ने एक बार महात्मा बुद्ध को प्रश्न किया कि श्राप श्रमिपाहार के गुण दोषों का वर्णन करें । बहुत से लोगों का कथन है कि आपने स्वयं आमिषाहार किया है और अपने शिष्यों को भी ऐमी आज्ञा दी है । भविष्य में हम श्रामिषाहार के सम्बन्ध में किस प्रकार का उपदेश लोगों को दें ! इसके उत्तर में महात्मा बुद्ध ने कहा : - 'प्राणीमात्र के प्रति मित्रता का उपदेश देने वाला भला किस प्रकार मैं स्वयं मांसाहार कर सकता हूं । भविष्य में मांसलोलुगे लोग मुझ पर * देवी निर्मन्थ सम्प्रदाय, पृष्ठ ३२ ।
आप यह स्पष्ट बताएँ कि
❤
झूठा दोष
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( ३३ )
लगा कर अपनी मांस नोलुपता के स्वार्थ को सिद्ध करेंगे । इससे शास्त्र की निन्दा होगी । मैं तो सब तरह के मांसाहार का निषेध करता हूं ।'
उपर्युक्त लंकावतार के उद्धरण से तो यह स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध ने न तो कभी स्वयं ही मांसाहार का सेवन किया और न उसकी अनुज्ञा ही अपने अनुयायियों को दी। किन्तु मांसलोलुपी मनुष्यों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये वनस्पतिपरक शास्त्रीय पाठों का मांस अर्थ किया और वौद्ध धर्म पर हिंसा का कलङ्क लगाया । अस्तु, यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि वैदिक धर्म के समान बौद्ध धर्म में भी ऐसे शास्त्रीय पाठों के आधार पर जिनका मांसपरक और वनस्पतिपरक अर्थ हो सकता था दो बड़े पक्ष या सम्प्रदाय खड़े हुए जिनका पारस्परिक बड़ा विरोध और संघर्ष चलता रहा । जैन धर्म में इसके विपरीत वनस्पतिपरक शब्दों का मांसवरक अर्थ कुछ विद्वानों ने किया अवश्य किन्तु उसके कारण से या उसी के आधार पर जैन समाज में किसी नए सम्प्रदाय का जन्म नहीं हुआ। सम्भव न था क्योंकि जैन परम्परा में अनादिकाल से कभी भी ऐसे मांसलोलुपी या हिंसा में प्रवृत लोग पैदा ही नहीं हुए जो ऐसा करते और यदि हो भी जाते तो जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म होने के कारण वे ऐसा साहस न कर सकते थे । अतः वैदिक बौद्ध और जैन इन तीनों भारतीय महान् धर्मों के हिंसा हिंसा विषयक विश्लेषण से पाठकों को भजीभांति स्पष्ट होगया होगा कि तीनों में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयायियों ने 'अहिंसा परमो धर्मः' के तात्त्विक महत्त्व को समझा है । जैन धर्म का सारा इतिहास अहिंसा धर्म को प्रधानता से भरा पड़ा है। उसके सारे सिद्धान्त अहिंसा की मोहर से अलंकृत हैं और उसका सारा कर्मकाण्ड अहिंसा की उत्कृष्टता का द्योतक है ।
ऐसा होना भी
अस्तु, अन्त मैं पाठकों को यही बताना चाहता हूं कि विश्व का
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कल्याण अहिंसा धर्म की शरण में जाकर ही हो सकेगा। अहिंसा धर्म का सबसे बड़ा महामन्त्र या उपदेश है 'यात्मवत् सर्वभूतेषु' अर्थात् संसार में सबको अपने समान समझो। जैसा व्यवहार तुम दूसरों से अपने प्रति चाहते हो वैसा ही दूसरों से भी करो। यदि इस महान् उपदेश के तत्व को संसार के लोग समझे होते और उन्होंने इस पर अमल किया होता तो संसार में बड़े २ युद्धों का सूत्रगत न हुआ होता। गत दो महायुद्धों में मानव जाति का बहुत बड़ी संख्या में संहार हुआ। उस संहार का मुख्य कारण था हिंसा प्रवृत्ति जिसके द्वारा बलवान् राष्ट्र निर्बल राष्ट्र को इड़ा कर जाना चाहता था। उसी प्रकार की प्रवृत्ति वर्तमान समय में भी अनेक राष्ट्रों में दृष्टिगोचर होती है। बलवान् राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों को खा जाना चाहते हैं और तरह २ की धमकियों से उन्हें डराते हैं । सारे विश्व में बड़े २ नेताओं और वैज्ञानिकों का झकाव तृतीय महायुद्ध की ओर जा रहा है। बड़े २ वैज्ञानिकों के मस्तिष्क भी दिवानिश इसी प्रकार की खोज में लगे हुए हैं कि किस प्रकार बल्दी से जल्दी कोई ऐग आविष्कार हो सके जिसके द्वारा शीघ्रातिशीघ्र मानव जाति का संहार हो जाये । परमाणु बम और हाइडो इलेक्ट्रिक बम जैसे भयानक और घातक आविष्कारों से भी उनको सन्तोष नहीं हो रहा । वैज्ञानिकों के मस्तिष्क की वह अलौकिक शक्ति जो मानव जाति के उत्थान और निर्माण में लगनी चाहिये थी दुर्भाग्यवश उसके संहार में लगी हुई है। कितनी गिरावर है इस युग की जिसको लोग बिकासवाद का युग कहते हैं। अपने पी संहार के लिये प्रत्त होना ही क्या विकामवाद के युग का लक्षण है ! या हिंसा के गर्त की ओर बढ़ना ही विकासवाद की. निशानी है। यदि इसी प्रकार की मानवसमाज की मनोवृत्ति उत्तरोत्तर पतन की ओर ही बदती गई तो मानव जाति को एक बहुत बड़े संहार में से गुजरना होगा
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( १३५ )
जिसकी कल्पना से भी दिल दहल उठता है। उस संहार से बचने के लिये मानवजाति को चाहिये कि वह अहिंसा धर्म की शरण ले और भौतिकवाद के बाह्याकर्षणों को ही सब कुछ न समझे। श्राज का युग अत्यधिक रूप से भौतिकवाद की ओर जा रहा है और आध्यात्मिक तत्त्व की उपेक्षा की जा रही है । यही कारण है कि विश्व के किसी कोने में भी मानसिक या अात्मिक शान्ति नहीं है। मनुष्य ने बड़े २ महत्वप्रद अाविष्कार करके प्रकृति पर विजय पाई है। उसने बड़े आश्चर्यजनक चमत्कार किये हैं किन्तु भौतिकवाद की इस उन्नति से वह आत्मिक शान्ति नहीं प्राप्त कर सका है । उल्टा वह उससे बहुत दूर चला गया है । अात्मिक और मानसिक शान्ति के लिये आध्यात्मिकवाद के रहस्य को समझने की आवश्यकता है जिसकी भौतिकवाद उपेक्षा करता है । श्राध्यात्मिकवाद का सबसे बड़ा श्रादर्श है आत्मिक और मानसिक शान्ति और यदि जीवन उससे वंचित है तो भले ही कितनी ही सम्पत्ति और ऐश्वर्य के साधन मनुष्य के पास हों वे सब निरर्थक हैं । एक अकिंचन पुरुष भी जिसका जीवन शान्तिपूर्ण है उस अनेक वैज्ञानिक साधनों से युक्त समृद्ध-पुरुष से लाख दर्जे अच्छा है जो विक्षुब्ध रहता है और जिसको चिन्ता के मारे निद्रा तक दुर्लभ होती है। आज का युग जो शान्ति से बंचित है उसका मुख्य कारण भौतिकवाद का अधिक विकास और उसकी ओर प्रवृत्ति है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज महर्षियों ने भौतिकवाद की उपेक्षा करके अहिंसात्मक आध्यात्मिकवाद का सन्देश मानवजाति को दिया और कहा कि यदि कल्याण चाहते हो तो समता रक्खो और सब प्राणियों को शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने दो। उन्होंने कहा कि विश्व की व्यवस्था को समीचीन प्रकार से चलाने के लिये अहिंसा धर्म का पालन परमावश्यक है।
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( १३६ )
श्रहिसा धर्म की शरण लेकर ही विश्व युद्धों की पुनरावृत्ति रुक सकती दूर हट सकते हैं । अहिंसा धर्म और शान्ति की नींद सो सकती
शान्ति के बाद
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है और संसार से की शरण लेकर ही मानव जाति सुख है । श्रतएव विश्व के सब राष्ट्रों का कर्तव्य है कि वे स्वार्थ बुद्धि छोड़कर मानवता के वास्तविक तत्त्व अहिंसा धर्म को समझें और उसका पालन करें। 'अहिंसा धर्म के पातन से ही विश्व का कल्याण होगा ।
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अनेकान्तवाद
अनेकान्तवाद जैन दर्शन की अपनी विभूति है और जैनदर्शन की एक विशेषता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने तो अनेक.न्तवाद को जैनागम का जीव या बीज बतलाया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार जीव के बिना मृतक शरीर किमी काम का नहीं होता इसी प्रकार अनेकान्तवांद के बिना जैनागम भी सर्वथा निरर्थक और निस्सार है । यही कारण है कि जैनधर्म या जैन दर्शन का जो महत्व है वह अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के कारण ही है । अनेकान्तवाद एक महान् दर्शन है । यह ऐसा दर्शन है जो संसार के अन्य दर्शनों के सैद्धान्तिक कलह को मिटाकर उन में समन्वय कराता है। और उन के बीवन को पूर्ण और सत्यमार्ग की और प्रेरित करता है । संसार में व्यापकरूपसे फैली हुई असहि. ष्णुतारूपी विष का मूलकारण साम्प्रदायिक रोग है और अनेकान्तवाद उस रोग की निवृत्ति के लिये अमोघ औषध है। दूसरे की अच्छीसे अच्छी बात को या सिद्धान्त को भी बुरा बताना और अपने खोटे मन्तव्य का भी समर्थन करना, इस वातावरण की बननो साम्प्रदायिकता है। उदारता और विशालता साम्प्रदायिता के पास तक नहीं फटकती। वह कटुता और विद्वेष फैलाती है । उस कटुता और विद्वेष को दूर करके अनेकान्तवाद माधुर्य और मैत्रीका संचार करता है। अनेकान्तवाद का सूर्य, साम्प्रदायवाद, मतान्धता या धर्मान्धता के अन्धकार को दूर कर संसार को सुखद ज्योति का प्रकाश देता है। यह सत्य को असत्य और असत्य को सत्य कहने वालों के भ्रम को निवारण करता
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। १३८)
है और वादी प्रतिवादियों के शास्त्रीय कलह को मिटाने के लिये ऐमी व्यवस्था देता है बो दोनों को मान्य हो । अनेकान्तवाद की बुनियाद सत्य पर टिकी हुई है इस कारण वह सदा निष्पक्ष व्यवस्था का स्थापन करता रहा है। इसी महानता के कारण अनेकान्तवाद ने संसार के अन्य दर्शनों में ऊंचा स्थान प्राप्त किया है।
अन्य दर्शनों पर प्रभाव । भारत के अन्य दर्शन वैदिक और बौद्ध भी अनेकान्तवाद से बहुत प्रभावित हुए। वैदिक और बौद्ध धर्मों के दार्शनिक ग्रन्थों में अनेकान्त दर्शन को मान्यता के उदाहरण बहुत मिलते हैं। निस्सन्देह वैदिक धर्म के कुछ दार्शनिक विद्वानों ने अनेकान्त सिद्धान्त का समय २ पर खण्डन भी किया किन्तु वैदिक दर्शन इसके प्रभाव से मुक्त नहीं रह सका। बौद्ध सिद्धान्त पर तो अनेकान्त सिद्धान्त का बहुत ही प्रभाव पड़ा । दुर्भाग्यवश बहुत से कहर पन्थियो ने इसका पालन नहीं किया जिसका परिणाम यह हुश्रा कि दिन प्रतिदिन धर्मान्धता बढ़ता गई और वैमनस्य का वातावरण फैलता गया। यदि अनेकान्तवाद के समन्वय और शान्ति के सन्देश को संसार ने सुना होता तो उसका इतिहास और ही प्रकार से लिखा होता ।
जीवन में धर्म की प्रधानता ।
मानवजाति के इतिहास से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने इहलौकिक और पारलौकिक दोनों के सुख और शान्ति के लिये धर्म को ही प्रधान स्थान दिया था। संसार-सागर को पार करने के लिये वे एकमात्र धर्म को ही तरणी समझते थे। मानव-जीवन की
भयानक आपत्तियों और घोर कष्टों का अन्त उन्होंने धर्म में ही देखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १३६ )
था। आदर्श जीवन की बुनियाद भी उन्होंने धर्म पर ही रक्खी और सांसारिक बन्धनों से मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने धर्म को ही बताया । अपने सारे जीवन के क्रियाकलाप में उन्हों ने प्रधान स्थान धर्म को दिया और उस के पालन करने के लिये सर्वस्व तक बलिदान करने की शिक्षा दी । वे भगवान् से यहां तक प्रार्थना किया करते थे कि परमात्मा धन दौलत भले ही वापस लेले, यमराज भले ही उन के प्राण जल्दी ही लेले किन्तु उन की बुद्धि धर्म से कभी विमुख न हो । धर्म से विमुख होने की अपेक्षा वे मृत्यु श्री अधिक अच्छा समझते थे । धर्म रहित जीवन की उन्हों ने पाशविक जीवन से तुलना की । पूर्ण रीति से धार्मिक जीवन व्यतीत करने वाले को उन्हों ने परमात्मा तक की उपाधि से अलंकृत किया। सारांश यह कि हमारे पूर्वजो ने धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया ।
॥ धर्म के नाम पर ॥
प्रश्न यह है कि क्या धर्म न्याय की कसौटी पर घिस कर अपने खरेपन और सार्थकता को प्रकट कर सका ? जिस महती श्रद्धा और प्रेम से मानव ने धर्म की पूजा की थी क्या धर्म ने उस को उस का उचित ही फल दिया ? क्या वस्तव में धर्म ने मानव जीवन को आदर्श बनाया ? क्या वास्तव में धर्म ने संसार को सन्मार्ग दिखाकर उस का कल्याण किया ? क्या संसार के लोग धर्म का पालन करके भयानक आपत्तियों और घोर कष्टों से मुक्ति पास के ? क्या वास्तव में मानव ने धर्म की तरणी पर बैठकर संसार सागर को पार किया ! क्या धर्म का पालन करने से मानव वास्तव में परमात्मपद को प्राप्त हुआ ! संसार का इतिहास इन सब प्रश्नों का उत्तर निषेधरूप में ही देता है । योरोप और एशिया संसार में सर्वत्र धर्म के नाम पर बड़े २ युद्ध हुए
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( १४० )
जिन में असंख्य निरपराध प्राणियों का रक्तपात हुआ। योरोप की इन्क्वीजोशन और स्टार चम्बर न्यायालय नाम की दो धार्मिक अदा. लतों में जो रोमांचकारी दुर्घटनाएं हुई उन को पढ़ कर हृदय दहल उठता है। इन दोनों धार्मिक न्यायालयों में धर्म के नाम पर अनेकों निरपराध व्यक्तियों के सिर त नवारों से काट दिये जाते थे। और बहुतों को जिन्दा ही श्रग में जला दिया जाता था। केवल इन दो धार्मिक अदालत में ही धर्म के नाम पर एक करोड़ निरपराध व्यक्तियों को मृत्यु का दण्ड दिया। इसी प्रकार भारत में
औरङ्गजेब की धर्मान्धता को लोग अभी तक नहीं भूने हैं। संसार में धर्म के नाम पर हृदय को कंपाने वाली यंत्रणाएं लोगों को दी गई। स्त्रियों पर अत्याचार किये गए और अबोध बालकों को तलवार के घाट उतारा गया । धर्म के नाम पर मानव ने ऐसे २ पोर पार किये जिन की संभावना राक्षसों और पशुओं से भी नहीं की जा सकती। बसवीं सदी वैज्ञानिक युग है। इस को विकासवाद का युग भी कहा जाता है। इसका मानर बड़ा सभ्य और उन्नत माना जाता है किन्तु उमने भी धर्म की दुहाई देकर ऐसे २ अत्याचार किये हैं जिन को प्रकट करते भी लज्जा पाती है । दूर जाने की क्या श्रावश्यकता है । अभी थोड़ा समय पहले मन् १६४७ में जब भारत का विभाजन हुआ उम ममय धर्मान्धता के कारण मानव ने मानव पर जो भीषण अत्याचार किये वे कि । ते नूने हैं । धर्म के नाम पर मनुष्य ने अपनी जाति और भाई बन्धुनों त । पर ऐसे २ घोर अन्याय क्येि है कि यदि उन की तुलना राक्ष या पशु से की जाय तो यह उनको लांछन लगाना होगा। इस प्रकार धर्म के नाम पर हुए अत्याचारों को यदि विस्तार पूर्वक लिखा जाय तो एक स्वतन्त्र पुस्तक तैयार हो जाए । श्रस्तु, यह सब क्यों हुआ? क्या धर्म ने मानव जाति को यही कुछ निवाया था ? क्या धर्म की बुनियाद हमारे पूर्वजों ने इन्हीं अत्याचारों
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पर रक्खी थी? क्या धर्म का आविष्कार मानव जाति के संहार के लिये किया गया ? क्या धर्म का प्रधान लक्ष्य संमार में फूट डालकर परस्पर कलह और अत्याचार करवाना ही था? इन सब प्रश्रों का उत्तर भी निषेधरूप में हो मिनता है। इन प्रश्नों का उत्तर जैनधर्म का अनेकान्तवाद देता है। अनेकान्तवाद का कहना है कि धर्म का उद्देश्य बहुत ऊंचा है धर्म उतम शिक्षा देता है और संसार को उन्नति पथ की ओर ले जाता है। धर्म फूट नहीं किन्तु सगठन और शान्ति के संदेश का प्रचार करता है। कि तु समझने वानों ने उस का ठीक स्वरूप नहीं समझा। उन्हों ने उसे गलत समझा और उस गलत समझने का परिणाम यह हुआ कि संसार में धर्म के नाम पर अनेक उत्गत और अत्याचार हुए धर्म का नाम बदनाम हुअा। अतएव संसार में जो अत्याचार हुए वे धर्म को समझने वालों की अज्ञानता के कारण हुए, धर्म का इस में कोई दोष नहीं था। धर्म की नींव तो सत्य पर ही रकवी गई थी. और उस का आविष्कार मानव जाति के कल्याण और सुखशान्ति के लिये ही किया गया। धर्म का प्रधान लक्ष्य संसार से कलह और वैमनस्य मिटाकर संगठन का ही प्रचार करना रहा है किन्तु समझने वालों ने धर्म के पूर्णस्वरूप को न समझ कर उम के एकान्त स्वरूप को समझा और उसी के कारण भिन्न धर्मों में कलह का बीजारोपण हुआ। उदाहरण के लिये जैन साहित्य में एक कहानी बातो है जो काफी प्रसिद्ध है।
___किसी देहात में दो अन्धे पुरुष रहते थे। उ ह ने कभी हाथी नहीं देखा था। एक दिन अकस्म त् कोई धनी पुरुष हाथी पर चढ़कर उस देहात में आया। यह समाचार उन सब अन्धों को मिला उन्हें हायो देखने की वी उत्कण्ठा हुई और वे उसे देखने को गए । एक
अन्धे ने जाकर हाथी को पूछ को पकड़ा । दूसरे ने हाथी की टांगों पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१४२)
हाथ फेरा। तीसरे ने उसके पेट पर हाथ चलाया। चौथे ने हाथी के कान को पकड़ा। पांचवें का हाथ हाथी के दान्त पर जा पड़ा और छठे ने उसकी सूड पर जा हाथ फेरा । इस प्रकार वे छः अन्धे पुरुष हाथी को देखकर अपने घर लौट आए : सायंकाल जब वे सब इकट्ठ बैटे तो हाथी का वर्ण। करने लगे। जिसने केवल पूछ को छुआ था उसने हाथी को रस्से के समान बताया । जिसने टांग को पकड़ा था उसने हाथी को खम्भे के समान बताया। जिसने हाथ। के पेट पर हाथ फेरा था उसने उसे एक बड़े घड़े के समान बताया । जिमने केवन कान को छुअा थ. उसने हाथो को बड़े सूर के समान वर्णन किया । जिस ने केव न हाथी का दांत पकड़ा था उस ने उसे सींग के ममान बताया। जिस ने हाथी के सूड का स्पर्श किया था उस ने हाथी को मूमल जैसा वर्णन किया। इस प्रकार सब ने हाथी का भिन्न २ स्वरूप वर्णन किया । और अने समझे म्वरूा को सत्य मान कर वे अापस में झगड़ने लगे । उन में से प्रत्येक अन्धा जोरदार शब्दों में अपने देखे हस्ति के स्वरूप की हो पुष्टि करता था। इतने में अांखों वाला एक पुरुष वहाँ से गुज़रा। वह उन के झगड़े के मूल कारण को समझ गया और उस ने उन से कहा कि तुम व्यर्थ में ही आपस में झगड़ रहे हो । अनेकान्त के सिद्धान्त के अनुसार वास्तव में तुम सभी सच्चे हो । तुम में से किसी ने भी संपूर्ण हाथी को नहीं देखा किन्तु उस के भिन्न २ अंगों को देखा है और तुम उन भिन्न अंगों को ही हाथी समझ बैठे हो । तुम्हारी हर एक की बात उस अंग की अपेक्षा जो उस ने देखा है सच्ची है । पूछ की अपेक्षा हाथी रस्से के समान, टांग की अपेक्षा खंभे के समान, पेट की अपेक्षा घड़े के समान, कान की अपेक्षा सूप के समान, दांत की अपेक्षा सींग के समान, और सूड की अपेक्षा मूसल के समान कहला सकता है किन्तु एकान्त दृष्टि से हाथी.को रस्से या खंभे के समान समझना अज्ञानता है।'
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( १४३ )
इम कथानक में अनेकान्तवाद का सार याजाता है । इस से यह भी भलीभाँति स्पष्ट है कि किसी भी वस्तु को यदि हम एकान्त दृष्टिं से देखेंगे तो हमें उस के पूर्ण स्वरू। का ज्ञान नहीं हो सकता। प्रत्येक वस्तु का ज्ञान पूर्ण रूप से करने के लिये अनेकान्त दृष्टि को श्रावश्यकता है और अनेकान्त दृष्टि अनेकान्त दर्शन के ज्ञान से ही मिल सकती है ।
॥ एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म ॥
अनेकान्तवाद के प्रतिपक्षियों ने यह कह कर कि एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म नहीं रह सकते अनेकान्तवाद का प्रत्याख्यान करने का प्रयत्न किया किन्तु वे इस में सफल नहीं हो सके। हम देखते हैं कि संसार के सारे पदार्थ अनेकान्त नक या अनेक धर्मात्मक हैं । सागरदत्त नाम का एक ही पुरुष किसी का पिता, किसी का पुत्र, किसी का पति, किसी का मामा और किसी का नाना आदि होता है। जिस समय पुत्र के द्वारा उस को पिता कह कर पुकारा जाता है उम समय वह अन्य पुत्र, पति, मामा, और नाना आदि अनेक विरुद्ध धर्मों को भी धारण करता है इससे यह स्पष्ट है कि वह अनेक विलक्षण कार्यों के अस्तित्व को रखते हुए अनेक धर्मात्मक है। सागरदत्त न केवल पिता ही है, न केवल पुत्र ही है और न केवल पति ही है किन्तु भिन्न २ अपेक्षा से वह सब कुछ है। दार्शनिक विद्वान् माननीय पं. माणिक चन्द्र जो ने अनेकान्तवाद का विश्लेषण बड़े ही सुन्दर और स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार किया है:-*
"संयोग सम्बन्ध से पर्वत में अग्नि है किन्तु निष्ठत्व सम्बाध से
* देखो जैन दर्शन का स्याद्वादाङ्क पृष्ठ ११० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १४४ )
अनि में वही पर्वत ठहरता है । स्वनि विषयिता निरूपित विषयता सम्वन्ध से ग्रंथ में ज्ञान निवास करता है, साथ ही स्वनिष्ठ विषयिता निरूपित विषयिता सम्बन्ध से ज्ञान में अर्थ ठहर जाता है । जन्यत्व सम्बन्ध से बेटे का बात है । उसी समय जनकत्व सम्बन्ध से बार का बेटा है । सनत्राय सम्बन्ध से डालियाँ वृक्ष है, तदैव समवेतस्व सम्बन्ध से वृक्ष में डालियां हैं ।
।
यों धर्मोका धर्म बन जाना और धर्म का धर्मी बन जाना जैन दर्शन के सिद्धान्त के अनुसार कोई विरोध नहीं रखता है अग्नि में दारुकत्व, पाचकत्व, स्फोटकत्व, शोषकत्व, प्रकाशत्व धर्मों के साथ ही शैत्यसम्पादकत्व धर्म भी है । अग्नि से फुरसे हुए को से ही सेका जाता है । 'विषस्य विषमवम्' गर्मी का इलाज गर्मी ही है । जल से सोंचने पर तो घात्र में चौगनी दाह बढ़ जाती है । जल से बमाई बर्फ के टुकड़े २ में गर्मी घुड़ी हुई है, समुद्र में बड़वानल है ।"
इससे पाठकों को भली भांति स्पष्ट होगया होगा कि विरोधी धर्म एक स्थान में रह सकते और रहते हैं । संसार के सब पदार्थ अनेक धर्मात्मक है अतः उनको अनेकान्तवाद की दृष्टि से देखना ही अनेकान्तवाद का सार है । इसी श्रनेकान्तवाद को स्याद्वाद भी कहते हैं । स्यात् शब्द का अर्थ है 'कथंचित्' या किसी की अपेक्षा से । इसलिये बहुत से लोग अनेकान्तवाद को कथंचिद्वाद और अपेक्षावाद के नामों से भी पुकारते हैं किन्तु सिद्धान्त वास्तव में एक ही है ।
सप्त भंगी ।
इसी स्याद्वाद को जैन दर्शन में सप्तभंगी के रूप में वर्णन किया है । वस्तु और उसके प्रत्येक धर्म का विधान और निषेध सापेक्ष होने के कारण वस्तु और उसके धर्म का प्रतिपादन सात प्रकार से किया जा सकता है । जैसे:
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( १४५ )
(१) स्यादस्ति- कथंचित् है । (२) स्यात् नास्ति- नहीं है। (3) स्यादस्ति नास्ति - है और नहीं है। (२) स्यादवक्तव्यम् -- अवाच्य है। (५) स्यादस्ति श्रवक्त.व्यं च - है और अवाच्य है । (६) स्यान्नास्ति श्रवक्तव्यं च- नहीं है और अवाच्य है । (७) स्यादस्ति, नास्ति, अवक्तव्यं च - कथचित् है, नहीं है
और अवाच्य है।
इन सातों प्रकार के समूह को सप्तभंगी कहा जाता है। इन सातों वाक्यों का मूल विधि और प्रतिपेध है, इस कारण बहुत से विद्वान् इसको विधि प्रतिपेध मूलक पद्धति के नाम से भी पुकारते हैं । इस प्रकार यह सप्तभंगी जैन दर्शन की ही अपनी विशेषता है। भारत के अन्य किसी भी दर्शन में इस प्रकार का क्रमबद्धः सप्तभगी का वर्णन नहीं मिलता। हाँ वैदिक दर्शन में सत्, असत् उभय और अनिर्वचन य भंगों का वर्णन मिलता है जिससे जैनदर्शन के मन्तव्य की पुष्टि होती है । बौद्ध धर्म भी अनेकान्त दर्शन से बहुत प्रभावित रहा है। बद्ध दर्शन में चतुष्कोटि के नाम से प्रसिद्ध जो सत् , असत् , उभय
और अनुभय का यत्र तत्र वर्णन मिलता है वह इस सत्य का पोषक है। समभंगी का वर्णन करते हुए सुयोग्य विद्वान् पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं किः
___ "जब * हम किसी वस्तु को सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उस वस्तु के स्वरूप की अपेक्षा से ही उसे सत् कहा जा सकता है। पर वस्तु के स्वरूर की अपेक्षा से दुनिया की
* देग्निये जैन दर्शन का स्याद्वादांक पृ० ६२ ।
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( १४६ )
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प्रत्येक वस्तु अमत् है । देवदत्त का पुत्र दुनिया भर के मनुष्यों का पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भर के पुत्रों का पिता है। यदि देवदत्त अपने को संसार भर के पुत्रों का पिता कहने लगे तो उस पर बह मार पड़े जो जीवन भर भुलाए से भी न भूले । क्या इमसे हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते हैं कि देवदत्त पिता है नहीं भी है । अतः संसार में जो कुछ है, वह किमी अपेक्षा से नहीं भी है । मर्वथा सत् या सर्वथा अगत् कोई वस्तु हो नहीं मकती । इसी अपेक्षावाद का सूचक स्यात् ' शब्द है जिसे जैनतत्त्वज्ञानी अपने वचन व्यवहार में प्रयुक्त करता है । इसी को दार्शनिक भाषा में स्यात् सत् और-स्यात् असत् कहा जाता है।
शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है; अतः प्रत्येक वस्तु में दोनों धर्मों के रहने पर भी वक्ता अपने २ दृष्टिकोण से उनका उल्लेख करते हैं । जैसे दो आदमी सामान खरीदने के लिये बाज़ार जाते हैं; वहां किसी वस्तु को एक अच्छी बतलाता है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है। दोनों में बात बढ़ जाती है तब दुकानदार या कोई राहगीर उन्हें समझाते हुए कहता है-भाई ! क्यों झगड़ते हो ? यह चीज़ अच्छी भी, है और बुरी भी है। तुम्हारे लिये अच्छी है और इनके लिये बुरी है । अपनी २ निगाह ही तो है। ये तीनों व्यक्ति तीन तरह का वचन व्यवहार करते हैं-पहला विधि कहता है, दूसरा निषेध और तीसरा दोनों।
वस्तु के उक्त दोनों धर्मों को यदि कोई एक साथ कहने का प्रयत्न करे तो वह कभी भी नहीं कह सकता । क्योंकि शब्द एक समय में एक ही धर्म का कथन कर सकता है । ऐसी दशा में वस्तु अवाच्य कही जाती है। उक्त चार वचन व्यवहारों को दार्शनिक भाषा में
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"स्यात् सत्', "स्यात् असत्", "स्यात् सद् सद", और स्यादवक्तव्य कहते हैं । सप्तभंगी के मूल यही चार भग हैं । इन ही में से चतुर्थ भंग के साथ क्रमशः पहले दूसरे और तीसरे भंग को मिलाने से पांचवां, छठा और सांतवां भंग बनता है।"
समन्वय । मैं पाठकों को बता रहा था कि अनेकान्तवाद ने संसार को पारस्परिक प्रेम और सन्धि का सन्देश दिया है। जब कभी अन्य धर्मा के अनुयायी अपनी अपनी एकान्त दृष्टि से किसी शास्त्रीय सिद्धान्त पर झगड़े हैं तो अनेकान्तवाद उनकी सुलह कराता रहा है। वह सदा से यही कहता आया है कि एकान्तवाद से वस्तु तत्त्व का सस्य निरूपण नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये वस्त्र को लीजिये। बौद्ध दर्शन के 'सर्वे क्षणिक सत्वात्' इस प्रधान नियम के अनुसार 'वस्त्र' सदा क्षणिक ठहरता है । बौद्ध दर्शन के सर्वथा विपरीत सांज्यदन उसी स्त्र को सर्वथा अविनाशी और नित्य मानता है। इन दोनों के विरोध का निर्णय किस प्रकार हो ? ऐसे समय में अनेकान्तवाद का सिद्धान्त ही दोनों के विवाद की युतियों का समाधान करके दोनों में सन्धि करवाता हैं । वह ऐसा निष्पक्ष निर्णय देता है जो दोनों को मान्य हो ।
अनेकान्त दो दृष्टियों से तत्त्व व्यवस्था करता है। पहली द्रव्य दृष्टि है जो वस्तु को नित्य सिद्ध करती है । द्रव्य का कभी नाश नहीं होता। दूसरी पर्याय दृष्टि है जो उसे अनित्य बताती है । पर्याय दृष्टि से जब हम वस्त्र की ओर ध्यान देते हैं तो पता चलता है कि वही वस्त्र जो कुछ काल पूर्व नवीन माना जाता था उत्तरोत्तर जीर्ण अवस्था को प्राप्त होकर पुराना कहलाने लगता है। कोई भी वस्तु जब जीणं हो
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जाती है तो उसका जीर्ण ग्ना एक ही दिन के परिवर्तन का परिणाम नहीं होता किन्तु सूक्ष्म रूप सेवह वस्तु प्रतिक्षण जीर्ण होती रहती है जिसका हमें पता नहीं चल पाता। जब वह पूर्णरूप से जीर्ण होजाती है तब हम उसे चक्षु इन्द्रिय से देख पाते हैं । अतएव पर्याय दृष्टि से विचार करने पर बौद्धों का वस्त्र को क्षणिक मानने का मन्तव्य ठोक सिद्ध होता है।
उमी वस्त्र को जब हम द्रव्य की दृष्टि से देखते हैं तो उसे अविनाशो पाते हैं। जिन परमाणुगों से वह बस्त्र बना है वे नाशवान् नहीं है। उनके श्राकार में परिवर्तन भले ही होता रहे किन्तु द्रव्य का नाश कभी नहीं होता। इस कारण द्रव्य दृष्टि से वही वस्त्र नित्य सिद्ध होता है जो पर्याय की दृष्टि से अनित्य था। इस प्रकार नित्य और अनित्य ये दोनों धर्म वस्त्ररूप वस्तु के अंश है। पूर्ण वस्तु नित्यानित्यास्मक है। इस प्रकार जैन धर्म ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त से बौद्ध
और सांख्यमतानुयायियों के विरोध को शान्त कर दिया और निष्पक्ष व्यवस्था दो जो दोनों को मान्य हो ।
इस तरह अनेकान्तवाद अपना निष्पक्ष निर्णय देकर अन्य धमी के सैद्धान्तिक कलह को मिटाता रहा है। अन्य धर्मों में समन्वय कराना अनेक न्तवाद का उद्देश्य रहा है। यदि संसार ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को भली भांति समझा होता और उसका पालन किया होता तो संसार का इतिहास धर्म के नाम पर होने वाले भयानक रनपात और घोर अत्यानारों से कभी दूषित न होता। श्राजकल भी जो धर्म के नाम पर अनेक वाद विवाद और कलह होते रहते हैं उनका अन्त भी अनेकान्त दर्शन की शरण में जाकर ही हो सकता है।
अनेकान्तवाद संसार को शान्ति और प्रेम का सन्देश देता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १४६ )
स्याद्वाद के वर्त्तमान अनुयायी ।
यह तो हुआ संसार के प्रति स्याद्वाद का सन्देश और उपयोग | अब देखना यह है कि जिस धर्म का यह दर्शन है उस के वर्त्तमान अनुयायियों ने इस को किस प्रकार समझा है ? क्या वे इस का सदुप योग और पालन कर रहे है ! क्या वर्त्तमान जैन धर्मानुयायी अनेकान्तवाद के वास्तविक सार और महत्व को समझते हैं और उस का पालन करते हैं ? क्या जैन समाज के किसी भी सामाजिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्यरूप से इस सिद्धान्त की शरण ली जाती है ? इत्यादि सब प्रश्नों का उत्तर निराशाजनक ही मिलता है। दूसरों को एकान्तवादी बनने से रोकने वाले आज हम स्वयं एकान्तवादी बने बैठे हैं | इतर धर्मों का ममन्वय कराने वाले ग्रान हम अपने ही धर्म का समन्वय नहीं कर पाते । सच पूछो तो दूसरों के सामने अपने दर्शन की महिमा गाने वालों ने ही आज अपने दर्शन की दुर्दशा कर डाली है । मूर्तिपूजक, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरहपथी, यति और फिर उनमें भी गच्छ और टोले आदि जैन धर्म के अनेक सम्प्रदाय और शाख में कितना भीषण वैमनस्य, विद्वेष और कटुता बढ़ रही है । एक ही संस्कृति के पुत्र, री होकर भी सब एक दूसरे को शत्रु समझते हैं । एक शाखा के अनुश यी दूसरी शाखा वाले को मिध्यात्त्री कहते हैं और आज के सुधारक विद्वानों और मुनिराजों की सारी शक्ति एक दूसरे की निन्दा करने में नष्ट होती है । प्रायः सत्र एकान्तवाद को पकड़े बैठे हैं जिसका परिणाम ही वैमनस्य और द्वेष को वृद्धि करना होता है । फूट का सर्वत्र साम्राज्य है जो दिन प्रतिदिन समाज की जड़ों को खोखला कर रही है । भगवान् महावीर के सच उपासक होते हुए भी उनकी जयन्ती मनाने के लिये एक स्थान में एकत्रित नहीं हो सकते । एक ही जैनधर्म
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( १५० )
में एक सम्प्रदाय के अनुयायी दूसरी सम्प्रदाय के साधुओं को श्राहार पानी तक देने को रोकते हैं । सौगंदे खिलाई जाती हैं और नियम तक करवाए जाते हैं । मूर्तिपूजक की कन्या यदि स्थानकवासी के यहां विधाही जाये या स्थानकवासी की मूर्तिपूजक के यहां विवाही जाये
तो साम्प्रदायिक भिन्नता के कारण उस कन्या से बुरा व्यवहार तक करने से संकोच नहीं किया जाता। खुल्लम खुल्ला एक दूसरे को भड़काने वाले व्याख्यान देते हैं। एक दूसरे को कलको ठहराते हैं, बाईकाट करते हैं और जाति से बहिष्कार तक करने में तुल जाते हैं | कहां तक लिखा जाय जैन समाज में प्राब जितनी फूट है शायद ही अन्य किसी जाति या धर्म में होगी। क्या यही अनेकान्तवाद की शिक्षा है ? क्या इसी प्रकार अनेकान्तवाद को जीवन में उतारा जाता है ? क्या यही अनेकान्तबाद का मर्म और सन्देश है ? क्या अनेकान्तवाद के महत्व को प्रकट करने का यही उत्तम ढंग है ? क्या दूसरों के सामने अनेकान्तवाद के अादर्श को प्रकट करने का यही सुन्दर प्रकार है ? कितनी लजा की बात है हमारे लिये कि विश्व को समन्वय और शान्ति से भरा हुअा अनेकान्तबाद का सन्देश देने वाले जन धर्म के अनुयायी आज स्वयं एकान्तवादी बने बैठे हैं। जिसका पालन म स्वयं नहीं कर रहे, दूसरों से उसका पालन करवाने को प्राशा कैसे कर सकते है।
संगठन की आवश्यकता । अब भी समय है और भूलें सुधारी जा सकती हैं। सारा संसार आगे बढ़ रहा है और हम पीछे हट रहे है। अाखिर कितनीक है संख्या हमारी ? बहुत थोड़ी है और उसमें भी इतने सम्प्रदाय और शखाएँ ! इतनी बड़ी फूट ! यदि यही दशा और कुछ कल तक चलती रहो तो जैन समाज पतन के गर्त से बन नहीं सकेगा। संसार
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( १५१ )
के बड़े २ राष्ट्र और शक्तियां संगठित हो रही हैं । सङ्गठन के बिना वर्तमान युग में बड़े २ राष्ट्र भी अपने आपको निर्बल पाते हैं। कहां अल्प सी संख्या वाले हम! इतने बड़े विश्व में क्या है हमारी हस्तो, कभी सोचा आपने ! और फिर इतनी अल्प संख्या में इतनी बड़ी फूट और भेदभाव । अब छोटे २ सद भेदभावों को मिटाने का समय हैं । यदि इन्हें न मिटाया गया तो भयानक पतन अवश्यम्भावी है । अब सङ्गठित होने का समय है । सङ्गठित जाति या धर्म ही संसार में अपनी मता कायम रख सकेंगे। समाज की सारी शक्तियाँ जो व्यर्थ में पारारिक क्षुद्र कलह और वितण्डावाद में लगाई जाती हैं उन्हें समाज के सुन्दर और सुव्यवस्थित निर्माण में लगाना चाहिये । तीर्थकर दिगम्बर थे या श्वेताम्बर थे। कोई मन्दिर में जाकर उनकी पूजा करे, यां मूर्तिपूजा को ठीक न समझे, कोई मुखवस्त्रिका को हाथ में रक्खे या उसको मुख पर ग्ध ले, मुखवस्त्रिका का श्राकार बड़ा हो या छोटा, आदि अनेक साधारण बातों को प्रधानता या महत्त्व देकर उनके लिये कलह या विवाद करने का समय नहीं है । अत्र आवश्यकता है यह समझने की कि तीर्थङ्करों को मानने वाले, जैन संस्कृति को पालने वाले और अनेकान्तवाद में श्रद्धा रखने वाले सब जैन समान हैं । बैन ही क्यों, संसार का प्रत्येक मानव जो उपयुक्त बातों में श्रद्धा रखता है और उनका पालन करता है वह जैन है। अनेकान्तवाद की शण बाकर यदि हम इस प्रकार की विशालता दिखाएँगे तभी हम अपने खोए हुए गौरव को पाने में समर्थ हो सकेंगे।
संकुचित वातावरण । आजकल जैन समाज में बहुत संकुचित वातावरण फैला हुआ है। जब दो जैन भाई आपस में मिलते हैं तो सबसे पहला प्रश्न जो
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( १५२ )
एक दूसरे से पूछता है यह है -'यार कौनसी सम्प्रदाय को मानते हैं ? दिगम्बरी हैं, श्वेताम्बरी हैं या तेरह पंथो हैं ? इत्यादि यदि दोनों एक हो सम्प्रदाय के निकले तब तो ठीक वरन् उन दोनों का केवल जैन होना उनको एक ही प्रेमसूत्र में नहीं बांध सकता। यहीं तक नहीं एक हा सम्प्रदाय के होकर भी यदि दोनों के गुरु भिन्न हुए तो भी वे एक दूसरे से पीठ मरोड़ कर ही चलते हैं । कितनी छोटी और क्षुद्र बातें हैं ये ! क्या इसी प्रकार के प्रावरण से जैन समाज को उन्नति पथ पर लाने को सम्भावना को जासकता है ? वर्तमान जैन ममाज के प्रायः जितने सुबारक और प्रचारक हैं उन सबका ध्यान एकमात्र बाड़े बन्दियों की ओर लगा हुआ है। सारे जैन समाज का हित किस बात में है इसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। कोई यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि इन वाड़े बन्दियों से सारे जैन समाज का कलेवर जीण होता जा रहा है और उसका फल सारा जैन तमाज भुगत रहा है । कोई भी इस एकान्तव:द के भीषण परिणाम पर ध्यान नहीं देता। यदि देता होता तो इस प्रकार उत्तरोत्तर गुटबन्दियों की अभिवृद्धि न हो पाती। इन गुटबन्दियों के कारण समाज के लाखों रुपये पारस्परिक झगड़ों के परिणामभूत मुकद्दमों को लड़ने में व्यय किये जाते हैं। इस प्रकार समाज सुधार पर धन को न लगा कर उसका दुरुपयोग किया जाता है या दूसरे शब्दों में समाज को बिगाड़ने के लिये धन खर्च किया जाता है। वही धन यदि समाज में शिक्षा प्रचार और साहित्य उन्नति पर खर्च किया जाता तो कितना उपकार और लाभ होता किन्तु इन बातों की ओर ध्यान देने की फुरसत किसको मिलती है, झगड़ों से समय बचे तब न । अस्तु, हमें इन सब बातों को छोड़ना होगा। समाज में संकुचित वातावरण पैदा करने वाली सब शक्तियों का नाश करना परमावश्यक है ऐसा करने से ही हम अनेकान्तवाद की विशालता की ओर बढ़ सकते है।
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( १५३ )
अन्त में मैं अपने भाइयों से यही प्रार्थना करूगा कि यदि चे जैन संस्कृति को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं तो सब साम्प्रदायिक मतभेदों को और गुटबन्दियों को मिटा दें और जैन समाज में सगठन पैदा कर के उस की उन्नति के लिये कटिबद्ध हो बाएं। वे छोटी २ बानों को ठुकरा कर समाज के सच्चे सुधार क्षेत्र में उतरें, अनेकान्त. वाद का पहले स्वयं पालन करें और फिर उस का उपदेश पूर्ववत् संसार को दें। जैन धर्मावलम्बी अाज अपने धर्म को, अपनी संस्कृतिको
और अपने दर्शन को भूल गए हैं। वे नाममात्र के जैनी रह गए हैं। उन को चाहिये कि वे विश्व को शांति और संगठन का सन्देश देने वाले अपने अनेकान्त दर्शन को समझें और उसको जीवन में उतारें। अनेकान्तवाद के पालन से ही सबका कल्याण हेगा।
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फफफफफफफ
श्रमण-संस्कृति में ईश्वर का स्थान
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संसार के सब तत्त्वों और रहस्यों में ईश्वर ही सबसे अधिक दूर वगम्य तत्व और महश्य है । एक ही तत्व की खोज और ज्ञान के लिये जगत् में अनेक धर्म, सम्प्रदाय और सिद्धान्तों की सृष्टि ही ईश्वरीय गूढ़ तत्त्व को सिद्ध करती है। श्रास्तिकवाद से सम्बंध रखने वाले या दूसरे शब्दों में कर्मसिद्धान्त को मानने वाले संसार के प्रायः सभी धर्म और सम्प्रदाय किसी न किसी रूप में ईश्वर की सत्ता को मानते ही है । वे ईश्वर के लक्षण, गुण या परिभाषाएं भले ही अपने २ दृष्टिकोण से भिन्न २ करते हों और मानते हों किन्तु उसकी सत्ता के विषय में किसी को भी विवाद नहीं है। नीचे लिखे उद्धरण से ईश्वर के विषय में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों की श्रद्धा का भली प्रकार पता चलता है:
यं शैत्राः समुपासते शित्र इति ब्रह्म ेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । यमित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः, सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥
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अर्थात् जिस ईश्वर को शिवोपासक शिव रूप में, वेदान्ती लोग ब्रह्म रूप में, बौद्ध वुद्ध रूप में, प्रमाणपटु नैयायिक कर्ता रूप में, जैनशासन को मानने वाले जैन श्रईन् के रूप में, श्रौर मीमांसक
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( १५५ )
कर्म रूप में मानते हैं ऐसा तीन लोकों का स्वामी ईश्वर तुम्हारी इच्छा का अनुरूप फल दे।
अनेक धर्मी और सम्प्रदायों ने ईश्वर को अपने २. सिद्धान्तों में किस प्रकार रंग रक्खा है. उसकी सत्ता में कैमी भिन्नता मानी है
और उसके लक्षण और स्वरूप में कितना अन्तर किया है ये भाव सूत्ररूप में उपयुक्त श्लोक से स्पष्ट समझे जा सकते हैं। इससे यह भी सशष्ट है कि उपासना के प्रकार भिन्न २ होते हुए भी ईश्वरीय मत्ता के विषय में कोई सन्देह नहीं । इमी मन्तव्य की पुष्टि भगवान् कृष्ण गीता में भी अर्जुन को उपदेश देते हुए करते हैं कि जो लोग जिस किसी रूप में भी मेरी उपासना करते हैं उनको मैं उमी रूप में मिलत हूं । जिस प्रकार एक ही नदी के अनेक प्रवाह बन जाते हैं और अन्त में स.रे हो अन्तिम लक्ष्य सागर में जा मिलते हैं इसी प्रकार भिन्न २ धर्मों और सम्प्रदायों के ईश्वर की उपासना के मार्ग अनेक अवश्य हैं किन्तु ईश्वर रूप अन्तिम लक्ष्य सबके सामने एक ही है ।
ईश्वर विषयक ज्ञान की उत्पत्ति का मूल ।
मानव जाति किस प्रकार भिन्न २ अवस्थाओं और परिस्थियों में से गुजर कर उत्तरोतर विकास और उत्थान की ओर बढ़ी इसका बहुत कुछ पता हमें विश्व के प्राचीन इतिहास से चलता है। मानव अपूर्ण है अतः वह सदा से पूर्णता की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता -प्राया है। वह सदा से ही ऐसा नहीं रहा जैसा वह अाज है किन्तु उसका श्राब का ज्ञान अनेक सदियों के निरन्तर प्रयत्न का है परिणाम है। इस ज्ञान के उगर्जन के लिये कई बार उसको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु पूर्णता की ओर बढ़ने की
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( १५६ )
लगन ने मनुष्य को निराश नहीं होने दिया। जिस प्रकार का संघर्ष वह श्राज कर रहा है इसी प्रकार अनादि काल से करता आया है; अन्तर केवल इतना है कि श्राज का संघर्ष भौतिकवाद की ओर है और प्राचीन संघर्ष आध्यात्मिक तत्त्व की ओर था, अस्तु, यहां पाठकों के लिये यह दर्शाना है कि जिस समय मनुष्य के मस्तिष्क का विवाम होना प्रारम्भ हुआ उस समय जब २ मानवो बुद्धि प्राकृतिक रहस्यों को न समझ पाई तो उसमें अनेक प्रकार के तर्क वितर्क उठने लगे । प्रकृति के गूढ़ रहस्य बड़े जटिल थे और उनको समझ लेना असम्भव नहीं तो नितान्त कठिन अवश्य था । मानव ने सूर्य के तेत्र, चन्द्रमा की शीतल चान्दनी. तारागण से परिपूर्ण नभमण्डल, क्षितिज की रेखा तक फैले हुए महासागर, हरे भरे विस्तृत अरण्य और गगनचुम्बी पर्वतों की अोर अपना मस्तिष्क दोड़ाया और उनमें जीवन की सुन्दरता और मानवता के माधुर्य को व्यापक रूप में पाया। प्रकृति की इन विभूतियों में उसने अाकर्षण हो श्राकर्षण भरा पाया। इन प्राकृतेक अाकर्षणों के कारण वह जीवन के महत्व को उत्तरोत्तर और अधिक समझने लगा और सांसारिक सुखों के लिये उसकी तृष्णा बढ़ने लगी। किन्तु इस सुखद अनुभव के साथ २ मनुष्य ने ज्वालामुखी पर्वतों का फटना, भुचाल श्राना, बादलों की भयानक गर्जना और उनसे विद्युत् पतन, अतवृष्टि के कारण जन-प्रकोप. और महामारी अ.दि अनेक भयङ्कर रोगों की उत्पत्ति प्रादि अनेक विश्व का विध्वंस करने वाले प्राकृतिक कोप और विश्वों को दे वा और उनका कटु अनुभव किया। प्राकृतिक कोपों का सामना करने की बात तो दूर रही उनके वास्तविक रहस्य को समझना भी उम के लिये कठिन हो गया। मनुष्य ने अग्ना मस्तिष्क लड़ाया और प्रकृति के रहस्यों को समझने का पूर्ण प्रयत्न किया किंतु वे रहस्य शीघ्र ही समझ में आने वाले नहीं थे। उनके समझने के लिये पर्याम समय को श्रावश्यकता थी।
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( १५७ )
अनेक प्रश्नों की उत्पत्ति ।
मानव सोचने लगा कि संसार में जहां अनेक पदार्थ आकर्षक हैं वहां भयावह पदार्थों की भी कमी नहीं । जीवन में माधुर्य है तो कड़वापन उस से भी अधिक छिग पड़ा है । संसार में सुख है तो दुःख का भी अन्त नहीं । श्रात्र जहां सृष्टि फनी फूनी है कल वहां किसी प्राकृतिक कोप से संहार हो जाता है । कुछ क्षण पूर्व ही जो लोग मुस्कराते थे कुछ क्षण बाद ही वे रोते चिल्लाते दिख ई देते हैं
। आज बो क्रीड़ास्थान घाट बन जाता है । आज उजाड़ हो जाता है । एक दूसरे पड़ोस के ही घर में
है अल्प समय के पश्चात् ही वह श्मशान जहां रंगरलियां मनाई जारही हैं कल वहां घर में जीवन की कलियां खिल रही हैं तो मृत्यु की भयानकता दृष्टिगोचर होती है । यह सब क्यों ? संसार में इतनी बड़ी विषमता क्यों ? क्या इस प्रकार के विषमतापूर्ण विश्वको किसी शक्तिविशेष ने पैदा किया था या यह किसी ने उत्पन्न नहीं किया किन्तु अनादिकाल से ऐसा ही था और ऐसा ही चला आया है ? यदि किसी शक्तिविशेष ने संसार को उत्पन्न किया तो ऐसी भयानक विषमता क्यों रखी ? यदि इस का कर्ता या संचालक कोई नहीं तो इस की नियमित व्यवस्था किस प्रकार चल रही है ? क्या यह विश्व की मर्यादित व्यवस्था भी अनादिकाल से यंत्रवत् चली आ रही है ? यह दृश्यमान चराचर संसार क्या इसी रूप में सदा स्थिर रहेगा या इस का कभी पूर्णरूप से सहार भी हो जाता है ? यदि संहार हो जाता है तो क्या वह स्वयं हो बाता है या उसका भी कोई कर्ता होता है ? इन वाह्य प्रश्नों के अतिरिक्त
आन्तरिक प्रश्न भी उठे ।
मानव के मस्तिष्क में विश्व के विषय में कई वह सोचने लगा कि वह तत्र जो अहंरूप से इस दृश्यमान संसार के सुख दुःख का अनुभव करता है वह क्या है ?
भांसित होता है और
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( १५८)
वह अहंरूर तत्व भी स्पा संसार के अन्य पदायों की भाँति उत्पन्न श्रीर नाश होता है या वह अनादि और अविनाशी तत्व है ? यदि वह तत्त्व अनादि और नित्य है तो उस का सम्बन्ध संसार के सादि अनित्य या नाशवान् पदार्थों से क्यों और कैसे सम्बन्ध हुश्रा ? इस प्रकार अनेक जटिल और दुरधिगम्य प्रश्र मानवी बुद्धि के विकास काल में मानव के मस्तिष्क में उत्पन्न हुए । विश्व के भिन्न २ प्रदेशों के मानवों ने इन प्रश्रों का मनन किया और विश्व के वाह्य तथा आन्तरिक रहस्यों को समझने के लिये पूर्ण प्रयत्न किया। अनेक युगों के चिन्तन और मनन के पश्चात् मनुष्य ने अात्म तत्व के रहस्य को समझा और ईश्वरीय ससा की स्थापना हुई। दीर्यकाल के मनन के पश्चात् मानव इस निर्णय पर पहुंच गया कि इस वाह्य संसार से परे आन्तरिक संसार में कोई सर्वज और सर्वशक्तिमान् सता है जिनको ईश्वर करना चाहिये। उस सत्ता को जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है ससार के भिन्न २ धर्मों के विद्वानों और प्राचार्यों ने अपने २ भिन्न २ दृष्टिकोण से अवश्य माना किन्तु ईश्वर की सत्ता को सबने स्वीकार किया। संसार के धमों और सम्प्रदायों की संख्या तो बहुत बड़ी है
और उन सबकी ईश्वर विषयक मान्यता यहां नहीं दी जा सकती। यहां तो केवल वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों भारत के महान् धों के ईश्वर विषयक मन्तव्य ही सक्षेत्र से दिये जाएंगे।
वैदिक मन्तव्य ।
वैदिक धर्म भारत का एक विशाल और व्यापक धर्म रहा है। अतिप्राचीन वैदिक संस्कृति के आधार पर. ही वैदिक धर्म से अनेक नए सम्प्रदाय निकले और नई २ दार्शनिक शाखाओं का अम हुआ। उन सम्प्रदायों और शास्त्रों की संख्या तो बहुत बड़ी है अतः उन
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( १५६ )
सब पर यहां विस्तारभय से नहीं लिखा जा सकता। यहां तो पाठकों के साधारण ज्ञान के लिये केवल वेद, वेदान्त दर्शन, सांस्य और न्याय. दर्शन के ईश्वर विषयक मन्तव्यों पर ही संक्षे। से प्रकरश डाला जायगा।
वेद में ईश्वर सत्ता। वैदिक धर्म का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। चारों वेदों में भी ऋग्वेद ही प्राचीनतम है। इस वेद के अध्ययन से यह तो स्पष्ट है कि इसके रचनाकाल के या मान्यता के समय ईश्वर विषयक खोज का इतना प्रावत्य नहीं था जितना कि बाद में हुआ। हां ऋग्वैदिक काल में लोगों के ईश्वर के विषय में और शृष्टि को उत्पत्ति के विषय में क्या विचार थे वे भलीभांति समझे जासकते हैं । उस काल में ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों पदार्थों को अनादि माना जाता था। नीचे लिखा मंत्र इसकी साक्षी देता है:
द्वा तुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्थः पिप्पलं स्महत्यनममन्यो अमिचाक शीति ।। __ अर्थात्- *जैसे दो ममान आयु वाले और मित्रतायुक्त पक्षी एक वृक्ष पर बैठते हैं, इसी प्रकार दो अनादि और मित्रतायुक्त अात्मा अर्थात्- जीवात्मा और परमात्मा अनादि प्रकृति में रहते हैं । इन दोनो में से एक ( अर्थात् जीवात्मा) इस प्रकृतिरूपी वृक्ष के फल को चखता है (अर्थातू-सुख दुःख भोगता है जो भौतिक शरीर में बंधने का परिणाम है) और दूसरा परमात्मा इसके फल को न खाता हुआ (अर्थात्-सुख दुःख न भोगता हुअा) सब कुछ देखता हुन प्रकाशमान हो रहा है।'
* धर्मका आदि सोत पृ० १३४
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( १६० )
इस प्रकार वेद में प्रकृति, जीव और परमात्मा इन तीनों तत्त्वों को अनादि माना है। इनमें प्रकृति जड़ है परन्तु ईश्वर और जीव दोनों चेतन हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है किंतु जीवात्मा की शक्ति शरीर तक ही सीमित है। ईश्वर सर्वज्ञ है और जीवात्मा अल्पज्ञ है। जोवात्मा अनेक प्रकार के सुख दुःखों के बंधनों में जकड़ा हुआ है किंतु परमात्मा सब प्रकार के बंधनों से मुक्त है।
ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है। वेद की मान्यता के अनुसार ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता धर्ता है। बेद सृष्टि को अनादि नहीं मानता कितु उसका मन्तव्य है कि किसी खास समय में ईश्वर ने सृष्टि को उत्पन्न किया और एक ऐसा भी समय आयगा जब वह सारी सृष्टि का संहार कर देगा। संहार के बाद सारी सृष्टि उसी में लीन होजाएगी। ऋग्वेद में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार मिलता है:___ ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रायजायत । ततः समुद्रो अर्णवः समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहो रात्राणि विदधद् विश्वात्य मिषतो वशी। सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवञ्च पृथिवीश्वान्तरिक्षमथो स्वः ॥
ऋग्वेद मं० १०, सू० १६१ अर्थात्-'सृष्टि विकास से पूर्व ईश्वर ने अपने ज्ञान और पराक्रम से प्रथम अनादि उपादान कारण को प्रकट किया। उस समय दिव्य रात्रि थी। उसके पश्चात् श्राकाश व अन्तरिक्ष की स्थापना की। श्राकाश स्थापित करके सांवत्सरिक गति पैदा की गई। फिर संसार को वश में करने वाले परमात्मा ने दैनिक गति की उत्पत्ति की जिससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १६१)
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रात्रि और दिन होते हैं। संसार के धारण करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी तथा अाकाश के अन्य नक्षत्रों को उनके मध्यवत्तौ अन्तरिक्ष सहित उसी प्रकार रचा जैसा उसने पूर्व कल्प में रचा था।'
ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों में भी सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में संसार की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है:
ततो विराईजायत विराजो अधिपूरुषः । स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथोपुरः ॥ तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् । पशूस्तांश्च वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ तं यज्ञ वर्हिषी प्रोतन् पुरुषं जातमग्रतः । तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ___ अर्थत्-'तब एक प्रदीप्त पिण्ड उत्पन्न हुआ। उसका अधिपति सर्वव्यापक परमात्मा था। तत्पश्चात् उस प्रदीप्त पिण्ड से पृथ्वी तथा अन्य शरीर पृथक् हुए ! उस सर्वपूज्य परमेश्वर ने वनस्पति पैदा की बो भोजनादि के काम में श्राती हैं। उसने पशु बनाए जो हवा, जंगल और बस्ती में रहते हैं। उसने मनुष्यों को उत्पन्न किया जिनमें विद्वान् और ऋषि लोग भी हुए जिन्होंने उस अनादि और उपास्य परमात्मा की पूजा की।
ईश्वर अनादि है, इस सृष्टि का कर्ता है और संहता है यह उपर्युक्त वेद मंत्रों से स्पष्ट है । संसार के निर्माण की पद्धति का वर्णन भी साफ शब्दों में किया गया है। ईश्वर से हो यह सारा ससार उत्पन्न हुश्रा और अन्त में संहार के पश्चात् उसी में यह लीन होजाता है इसी
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( १६२)
सत्य की पुष्टि आगे चल कर उपनिषदों ने भी की है। मण्डकोपनिषद में लिखा है कि:यथोर्ण नाभि सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्याम षधयः संभवान्त । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ।।
.. अर्थात्-जिस प्रकार मकड़ी जाले को अपने शरीर में से बनाती है और अन्त में फिर उस जाले को अपने में हो अाकुञ्चित कर लेती है; और जैसे पृथ्वी से अनेक प्रकार की औषधियें पैदा होती हैं और अन्त में सभी पृथ्वीरूप हो होजाती है; जैसे चेतन पुरुप से केशादि की उत्पत्ति होती है, ठीक उसी प्रकार अक्षर, अविकृत और अविनाशी ईश्वर से सारे विश्व की उत्पत्ति होती है और अन्त में सारा विश्व उसी ईश्वर में लीन होजाता है ।
वेदान्त दर्शन में ईश्वर ।
वैदिक धर्म की जितनी भी दार्शनिक शाखाए हैं उन में वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त का स्थान बहुत ऊंचा है। वेदान्तदर्शन में आत्मतत्व और परमात्मतत्त्व की जो खोज की गई है वह बड़ी गंभोर है
और वेदिक धर्म में वेदान्त मान्यता के अनुयायी चिरकाल से बहत बड़ी संख्या में रहे हैं । जब सारा भारतवर्ष महत्मा बुद्ध के प्रभाव मे बौद्ध धर्मावलम्बी होगया था उस समय वेदान्तदर्शन के महान् विद्वान् स्वामी श्री शंकराचार्य ने वेदान्तदर्शन प्रचार करके ही पुनः भारत में ध्यापक रूप से वैदिक धर्म को स्थापना की थी । प्रस्तु, वेदान्त दर्शन को द्वैतवाद और अद्वैतवाद नाम की दो बड़ी शाखाए है। ईश्वरीय या ब्रह्म की सत्ता को दोनों मानते हैं किन्तु दोनों में सैदान्तिक भेद काफी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१६३ )
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दोनों के मन्तव्यों के संक्षिप्त निर्देशन से पाठक स्वयं सैद्धान्तिक भिन्नता को समझ जाएंगे।
दूतवाद... ..
.
...
द्वैतवादियों का कहना है कि यदि हम कहें कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है तो इस निषेधात्मक वाक्य से ही ईश्वर का होना सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार अद्वैत शब्द से ही द्वैतवाद की सिद्धि हो जाती है । ज्ञान सदैव. द्वैत है क्योंकि वह ज्ञाता और ज्ञ य में रहता है। दोनों का अन्योन्य प्रित सम्बंध है । द्वैतवादियों की मान्यता के अनुमार जीवात्मा और परमात्मा ये दोनों भिन्न शक्तियाँ हैं। उन का कहना है कि परमात्मा जीव के ज्ञान का विषय है ।
अद्वैतवाद । अद्वैतवादियों का कहना है कि यदि परमात्मा को प्रात्मा के ज्ञान का विषय मान लिया जाए तो यह आवश्यक है कि परमात्मा
आत्मा के समक्ष विषयरूप हो कर उपस्थित होगा। यदि वह विषय है सो प्रश्न यह उठता है कि वह अात्मा के अंतर में किस रीति से रहता है ? विषय और विषयी एक लकड़ी के दो छोरों के समान पृथक् २ होते हैं । एक छोर का दूसरे छोर के अंतर में श्राना सर्वथा असंभव है। अतएव परमात्मा को जीवात्मा का विषय न मान कर जीवात्मा का अंतरतम अात्मा मानना चाहिये । अद्वैतवाद की मान्यता के अनुसार जीवात्मा और परमात्मा एक ही हैं । उन का कहना है कि 'जीवो ब्रह्म केवलम' अर्थात्- बीव साक्षात् ब्रह्म ही है। संसार में ब्रह्मरूप एक ही शक्ति है जिस के रूप हमें अनेक दिखाई देते हैं। जैसे जल एक हो
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( १९४)
है किन्तु भिन्न २ पार्थिवांश का संयोग होने से भिन्न २ रूप को धारण करता है । वही जल निम्बू के पौधे को दिया हुआ स्वहा हो जाता है, अगूर की लता को सींचने से मीठा हो जाता है और अफीम के पंधेि में जाकर कटु हो जाता है किन्तु बल वास्तव में एक ही है । चन्द्रमा एक ही है कि तु तालाब नदी और समुद्रादि में प्रतिबिम्ब पड़ने से अनेक भासता है। ठीक इसी प्रकार एक ही ब्रह्म भिन्न २ ब वों के रूप में अनेक भासता है । जीवात्मा के लिये इस संसार का अस्तित्व तभी तक है जब तक वह अविद्या या माया के प्रावरण से प्रान्छ:दित है । उस आवरण के दूर होते ही वह ब्रह्मरूप होजाता है। यही अद्वैतवाद
सांख्य में प्रकृति और पुरुष ।
वेदान्त दर्शन में जिस प्रकार ब्रह्म और माया की प्रधानता है इसी तरह से सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष की प्रधानता है । अखिल चर और अचर, सूट और सहार का विवेचन करने के पश्चात् सांख्य इस निर्णय पर पहुंचता है कि अन्त में पुरुष और प्रकृत ये ही दो स्वतंत्र तथा अनादि मूलतत्व अवशिष्ट रहते हैं। पुरुष को मोक्ष प्र.प्ति तथा सब दुःखों की निवृत्ति के लिये प्रकृति से अपनी भिन्नता अननी आवश्यक है और त्रिगुणातीत होना परमावश्यक है। जैसे क्षेत्र और क्षेत्र विचार के परिणामस्वरूप द्रम या पुरुष का. निश्चय होता है इसी प्रकार क्षर एवं अनर जगत् के विचारो परिणाम स्वरूप सत्व, रज, तम इस त्रिगुणात्मक प्रकृतिः - अन क्षेम है। पुरुष और प्रकृति से दोनों तत्व एक दूसरे से भिव। पुरुष पेवन
है और प्रकृति जड़ है। चेतन पुरुष बड़ पति के नाप. संयोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १६५ )
होने से इस परिदृश्यमान जगत् की रचना होती है। वास्तव में पुरुष तो एक ही है किन्तु त्रिगुणात्मक प्रकृति के साथ संयोग होने से असंख्यरूप में भासता है । पुरुष निर्गुण है और प्रकृति सगुण है पुरुष के लाभ के लिये प्रकृति पुरुष के सामने अपना खेल खेलती है ।
बहुत से विद्वानों ने प्रकृति पुरुष की सत्ता को मानते हुए उन दोनों से परे परमात्म तत्त्व की सत्ता को माना है। उनका कथन है कि प्रकृति और पुरुष ये परमात्म तत्त्व की ही विभूतियें हैं । महर्षि बेदव्यास सांख्य का वर्णन करते लिखते हैं:हुए
-
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
गीता १५ | १७
अर्थात् जो पुरुष और प्रकृति इन दोनों से भी भिन्न है वही उत्तम पुरुष है । उसी को परमात्मा कहते हैं । वही अव्यय और सर्वशक्तिमान् है । बोबों लोकोंमें व्यापक होकर उनकी रक्षा वही करता है ।
यहां प्रकृति और पुरुष दोनों से परे एक तत्त्व को स्वीकार किया गया है जो दोनों से श्रेष्ठ है और इसी कारण पुरुषोत्तम है । इस प्रकार दर्शनशास्त्र के बहुत से विद्वानों ने प्रकृति, पुरुषोत्तम इनको क्रमेण जगत्, जीव और ईश्वर माना है ।
पुरुष और
न्वाय शास्त्र में ईश्वर की परिभाषा ।
न्याय सिद्धान्त में ईश्वर को निराकार, सर्वज्ञ, जीव के प्रदृष्ट का फलशता, नित्य प्रयत्न और निस्य ऐश्वर्य सम्पन्न माना है । वह परमकारुणिक और सारे विश्व के लिये पितृतुल्य है । वह यज्ञादि
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कर्मनार्ग से, भक्तिमार्ग से, योगमाग से · श्री ज्ञानमार्ग से उपास्य है । श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं दर्शन भी उसकी उपासना के प्रकार हैं । सवेकर्मप्रवर्तक उस ईश्वर के अनुग्रह के बिना मनुष्य का कोइ कम भी सफल नहीं हो सकता। नैयायिका का कहना है कि कर्म अचेतन है अतएव उसका शकि का भी अचेतन होना स्वाभाविक है। अत: किसी चेतन के अधिष्ठातृत्व के अभाव में कोई भी प्राणी किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मफल देने के लिये ईश्वर की सत्ता का मानना परमावश्यक है । महर्षि गौतम लिखते हैं: -
ईश्वरः कारणं पुरुषकर्म फलदर्शनात् । ( गौतम सूत्र ) । अर्थात्-पुरुषों के अनेक कर्मफलों को देखते हुए हमें ईश्वर की कारणता का स्पष्ट ज्ञान होजाता है। इस मान्यता के विद्वानों का कहना है कि जीवात्मा में अधर्म, मियाज्ञान और प्रमाद ये दोष होते हैं । जिस आत्मा में ये सब नहीं पाए जाते किन्तु इनके स्थान में धर्मशान
और समाधि पूर्णरूप से पाई जाती है. वैमा अात्मा ही ईश्वर है । सन्तान के लिये जिस प्रकार. पिता यशुर्थवादी, हितोपदेष्वा और दयापय है उसी प्रकार ईश्वर भी सब भूतों के लिये पितृतुल्य है।
इस प्रकार, वेदः की मान्यता के अनुसार ईश्वर अनादि है और सृष्टि का कर्ता है। वेदान्त में ब्रह्म और माया की व्यापकता, सांख्य में प्रकृति और पुरुष की प्रधानता, और न्यायशास्त्र में पुरुष के कर्मफलप्रशनार्थ ईश्वर की कारणता श्रादि संक्षिप्त विवरणसे पाठकों को भली प्रकार पता चल गया होगा कि वैदिक धर्म की इन भिन्न २ शाखात्रों में ईश्वर को और विश्व के स्वरूप को किस प्रकार समझा है और उसका प्रतिपादन किया है। सबके सिद्धान्तों के मार्ग भिन २ होते हुए भी सब ईश्वरीय सत्ता रूपी एक ही लक्ष्य की ओर जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १६७:)
वैदिक युग के उदय काल से लेकर अब तक जगत्, जीव और परमात्मा इन तत्वों की खोज में मानवी बुद्धि कितनी प्रयत्नशील रही है यह भी उपयुक्त भिन्न २ सिद्धान्तों के वर्णन से स्पष्ट होजाता है। वाह्य और अान्तरिक विश्व के गूट प्रश्नों को समझने के लिये मानव का मस्तिष्क सदा से परेशान होता रहा है और उसने अपनी उपज के अनुसार उन प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया और ज्ञान की ग्रन्थियों को कैसे सुलझाया यह विश्व के इतिहास से और अनेक धर्मों के धर्मग्रन्थों से भलीभांति समझ सकते हैं।
श्रमण-संस्कृति में ईश्वर । जैनधर्म वैदिकधर्म के समान ईश्वर को अनन्त शक्ति वाला, सर्वदानन्दमय, सर्वज्ञ और अविनाशी तो मानता है किन्तु उसको जगत् का कर्ता और नियन्ता नहीं मानता है। जैनदर्शन प्रात्मा को अनादि मानता है। जिस प्रकार वेदान्त दर्शन में अविद्या के प्रावरण के दूर होते ही जीवात्मा ब्रह्मरूप बन जाता है इसी प्रकार जैनदर्शन के अनुसार जीवात्मा से कर्म का प्रावरण दूर होते ही वह ईश्वररूप हाबाता है। आत्मा राग द्वेषादि से लिप्त होने के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है और अपने भिन्न २ कर्मों के परिणामस्वरूप अनन्तानन्त योनियों में जन्म लेता रहता है। जब उमकी विवेक शक्ति विकसित होजाती है. वह अपने सत्कर्मों द्वारा राप द्वेष के संस्कारों को नष्ट कर डानता है और कमब-धनों से मुक्त हो जाता है। वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है और फिर वही मुक्तात्मा सर्वज्ञ, अानन्दरूप और सवशक्तिमान् होकर परमात्माद को प्राप्त होता है। जैनदर्शन के अनुसार ईश्वर जंसी स्वतन्त्र रूप से कोई शक्ति नहीं है किन्तु ईश्वर के समग्र गुण बीतमात्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १६८ )
में रहते हैं। इस लिये जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक जीष में ईश्वरत्व पद प्राप्त करने की शक्ति रहती है। यदि जीव कर्मों के प्रावरण से दबी हुई उस शक्ति का विकास करले तो स्वयं ईश्वर बन जाता है। इस प्रकार जैनधर्म ईश्वर तत्त्व को बैदिकधर्म के समान भिन्न स्थान नहीं देता किन्तु ईश्वर तत्त्व की मान्यता रखता है और उसकी उपासना को भी मानता है। जो जो प्रात्माएं कर्मबन्धनों से मुक्त होती जाती है वे सभी समान रूप से ईश्वर पद को पाती हैं । अविद्या या कर्म के श्रावरण के दूर होने से जीवात्मा ही ब्रह्म या ईश्वर बन जाता है इस विषय में वेदान्त और जैनदर्शन दोनों एक मत है।
ईश्वर सृष्टिकर्ता क्यों नहीं ? यह पहले भी बताया जा चुका है कि जैनधर्म ईश्वर को संसार का रचयिता और शास्ता नहीं मानता है। बो लोग ऐसा मानते हैं उनके प्रमाण और युक्तिये जेन रष्टि से सारगर्भित नहीं है। ईश्वर को संसार का कर्ता और शास्ता मानने वाले कुछ विद्वानों का कहनाहै कि केवल ईश्वर ही शाश्वत और अनादि है । उसके बिना संसार की कोई वस्तु अनादि नहीं। इनमें से भी कुछ लोगों का तो कहना है कि पहले कोई चीज नहीं थी, केवल ईश्वर था। ईश्वर ने नहीं से या प्रभाव से ही सारे संसार की रचना कर डाली। दूसरे लोग कहते हैं कि ईश्वर ने अपने अन्दर से ही सारे संसार को उत्पन किया यो माया। जैनधर्म के अनुसार ये दोनों मन्तव्य निःसार हैं। प्रकृति के अध्ययन से हमें पता चलता है कि संसार का कोई भी पदार्थ अभाव से पैदा नहीं होता। प्रत्येक पदार्थ की कुछ पूर्वावस्था अवश्य होती. है और किसी भी पदार्थ का या प्रभाव नहीं होता।
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! १६६ )
-
संसार में हमें कोई उदाहरण ऐसा नहीं मिलता वहां श्रभाव से किसी वस्तु की उत्पत्ति होती हो। अंत: यह नहीं माना जासकता कि ईश्वर ने संसार को प्रभाव से पैदा कियं ।" :
:
जो लोग यह कहते हैं कि ईश्वर ने अपने में से ही विश्व की रचना की उनकी मान्यता भी ठीक नहीं जचती । ईश्वर सर्वश: है और । पूर्ण है इस सत्य को सब स्वीकार करते हैं । उस सर्वज्ञ और पूर्ण
ईश्वर से उत्पन्न हुश्रा २. यह संसार अल्पज्ञ और अपूर्ण कैसे हो सकता है ! यदि ऐसा. मान लिया जाय.. तो ईश्वर में भी अल्पज्ञा और अपूर्णता के दोष अाजाते हैं। फिर संसार का तो बहुत बड़ा भाग बड़ भी है; सर्वश चेतन भगवान् . से. जड़ की उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है । इसके अतिरिक्त सृष्टि के आदि में बब ईश्वर ने सब श्रात्माओं को अपने में से निकाला तो उस समय सब आत्माएं ईश्वर में मिली होने के कारण सब प्रकार के कर्मबन्धनों से मुक्त थीं और इस कारण शुद्ध थीं। फिर उन सव. आत्माओं को किस दोष या गुण के कारण भिन २ ऊँच वा नीच योनियों में बाने के लिये बाध्य किया गया। इन प्रश्नों का कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिलता अतः यह सिद्ध है कि ईश्वर ने संसार की रचना अपने में से नहीं की।
इसके अतिरिक्त ईश्वर पूर्ण है और वहां पूर्णता होती है. वहां किसी वस्तु की भी कमी नहीं हो सकती। यह तो पूर्णता शब्द से ही स्पष्ट है । इच्छा वहां पैदा होती है वहां किसी वस्तु की कमी हो। ईश्वर में जब संसार को रचा तो उसने रचने की इच्छा अवश्य की होगी क्योंकि बिना इच्छा के संसार की रचना हो नहीं सकती। बब इच्छा होगई तो ईश्वर में अपूर्णता पाजाती है। अतः यदि ईश्वर को संसार का रचयिता मानें तो बह पूर्ण नहीं कहला सकेगा।
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( १७० )
जैन धर्म कहता है कि संसार अनेक प्रकार की भयानक महामारी आदि व्याधियों, भूकम्प, अतिवृष्टि और अनावृष्टि श्रादि प्राकृतिक प्रकोपों में होने वाली अकाल मृत्यु और अन्य महायुद्धादि अनेक भयानक आपत्तियों से भरा पड़ा है। सुख का अंश कम है किन्तु दुःख से पीड़ित प्राणियों का क्रन्दन चारों श्रोर सुनाई देता है । क्या सर्वज्ञ श्री सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने ऐसे संसार को उत्पन्न करना ही पसन्द किया ? क्या वह सर्वशक्तिमान् होते हुए अपनी शक्ति से ऐसे समांर को उत्पन्न नहीं कर सकता था जो सुख, शान्ति और श्रानन्द से परिपूर्ण होता ! ऐसी स्थिति में उसको भी नियन्त्रण करने की परेशानी न उठानी पड़ती । सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने पहले तो सतार को अपूर्ण और शक्ति रहित बनाया और फिर उसके लिये पूर्णता तक पहुँचाने के लिये अनेक नियम धर्म बनाए । कोई साधारण बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भी जान बूझ कर किसी वस्तु को पहले बुरी नहीं बनाता कि बाद में उसका सुधार करना पड़े । श्रत एव सर्वज्ञ श्रौर सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने यदि इस संसार को बनाया होता तो अवश्य ही यह पहले से ही पूर्ण और समर्थ होता ।
कुछ विद्वानों का कथन है कि ईश्वर ने ही संसार को स्वा है और इस कारण वह संसार का जनक या पिता है। संसार में जो लोग दुखी, रोगी, शोकाकुल और भूकम्पादि अकाल मृत्यु के प्रास बनते हैं यह सब उनके पूर्व भव या इस भव में किए कर्मों का फल है जिसका भोग टल नहीं सकता । जिस प्रकार पिता सद्गुण पाले पुत्र को पुरस्कार देता है और दुष्ट कर्म करने वाले को इसी प्रकार ईश्वर !भन्न २ अच्छे या बुरे कर्मों दण्ड देता है। सारे संसार का शासन और नियंत्रण
अनुरूप वण्ड देता है
के
अनुसार जबों को
वही करता है
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( १ १ )
यह मान्यता भी युक्ति की तराजू पर ठीक नहीं उतरती । सर्वज्ञ श्रौर सर्वशक्तिमान् ईश्वर जैसा चाहता वैसा संसार बना सकता था । उसने जीवों को बुग कर्म करने की शक्ति ही क्यों दी? पहले उनको बुग कर्म करने की शक्ति दी और जब वे उस शक्ति का प्रयोग करने लगे तो उनको दण्ड दिया । कोई भी पिता पहले अपने पुत्रों को चुरे कामों में प्रवृत्त कराए और फिर उन्हें दण्ड दे, भला यह भी कोई बुद्धिमत्ता कही जासकती है | आदर्श पिता अपने पुत्रों में बुरा कर्म करने की प्रवृत्ति ही नहीं पैदा होने देगा ।
I
जैन मन्तव्य |
जैन धर्म के अनुसार कर्मफल दिलाने के लिये नियन्ता की श्रावश्यकता नहीं मानी जाती। जैन धर्म की मान्यता है कि शुद्ध ज्ञान और बड़ वस्तु ये दोनों अनादि काल से मिले हुए चले आते है । ये दोनों ही दृश्य संसार के उत्पन्न करने में कारण है: श्रात्मा का वास्तविक स्वरूप एक ही होता है चाहे वह शुद्ध हो या पुद्गल से मिला हो । सूक्ष्म भौतिक शक्तियों के रूप में आरमा जड़ वस्तुयों से मिला हुश्रा है और इसी कारण श्रात्मा में राग द्वेषादि भाव पैदा होजाते हैं । ये विकार ही अच्छे या बुरे कर्मों के निमित्त कारण बनकर एक तरह से साधन बन जाते हैं, जिनके द्वारा कर्मों के परमाणु आकर आत्मा में मिलते हैं । श्रात्मा के साथ जड़ वस्तु के संयोग से एक प्रकार की शक्ति सञ्चित होजाती है जिसका नव उदय होता है तो श्रात्मा में सुख दुःख उत्पन्न होने लगते हैं। जब यह सञ्चित शक्ति समाप्त हो जाती है तो जद वस्तु श्रात्मा से पृथक होजाती है । अन्त में जब श्रात्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है हो बाह्य वारी
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( १७२ .)
शक्तियों की निर्जरा होजाती है और आत्मा परमात्म पद को.प्राप्त.
होता है। .
... स्सृष्टि की उत्पत्ति ।.. . . : जैन धर्म के सिद्धान के अनुसार संसार को रचना सज्ञान और अशाम दो कारणों द्वारा होती है। या दूसरे शब्दों में छः द्रव्यों जीब-या श्रात्मा, आकास, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म इनके द्वारा होती है। इनमें से एक कारण तो जैसे जीव सज्ञान अर्थात् शन वाला है और शेष पाँच कारण अज्ञान अर्थात् जड़ है। इन छहों द्रन्यों या बस्तुत्रों के अनेक पर्याय. गुण, या स्वभाव से ही संसार की रचना होती है । सज्ञान कारण का स्वभ व जान लेना है और बाकी के पाँच जड़ है बों द्वार है। ये छहों द्रव्य अनादिकाल से विद्यमान है और रहेंगे। किसी खास समय में इनके संयोग से संसार की उत्पत्ति नहीं हुई किन्तु संसार अनादि है। इन छहों द्रव्यों की भिन्न २ परिक्तनशील दशाश्री, पयायो श्रार परस्पर सम.पात से मसार की सृष्टि होती है।
... इन मारे द्रव्यों का व्यापार एक दूसरे पर पड़ता रहता है । इनमें उत्पन्न होने, नाश होने और स्थिर रहने की शक्ति है। इसी . शक्ति को सत्ता भी कहा जाता है। यह सत्ता इन बः द्रव्यों में ही रहती है उनसे भिन्न कोई वस्तु नहीं। या दूसरे शब्दों में इस सत्ता का द्रव्यों से नित्य सम्बन्ध है। इससे यह स्पष्ट है कि संसार को उत्पन्न गा नाश करने वाली शक्त छः द्रव्यों के अन्तर्गत ही विद्यमान है। संसार से पृथक वह कोई शक्ति, सत्ता या व्यक्ति नहीं है। द्रव्यों के
अन्तर्गत रहने वाली इस शक्ति को जैन धर्म ईश्वर नहीं मानता। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १७३. )
ईश्वर का संसार से सम्बन्ध ।
अब प्रश्न यह है कि जैन सिद्धान्त के अनुसार जब ईश्वर न तो ससार का कर्ता है और न जीवों के कर्मफल भुगताने वाला नियन्ता है तो फिर उस का संसार से संबन्ध ही क्या रहा ! जब वह संसार के कामों में और उम की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं कर सकता और नहीं किसी को हानि या लाभ ही पहुंचा सकता है तो फिर ऐसे ईश्वर को मानने से, उस की पूजा और उपासना करने से संसार को क्या लाभ ? उस ईश्वर की सर्वज्ञता और अनन्त शक्तिमत्ता से ससार को क्या फायदा ? बैनी लोग जो मन्दिरों में जाकर भगवान् की प्रार्थना करते है; धूप, दीप और चन्दन आदिसे भगवान् का अर्चन करते हैं; स्थानकों
और उपासरों में जाकर उस का ध्यान, चितन और कीर्तन करते हैं, यह सब करने से फिर क्या लाभ होता है ?
१. इस का उत्तर जैन 'सद्धान्त इस प्रकार देते हैं । प्रतिदिन के जीवन के अनुभव में हम देखते हैं कि जब हम किसी दुष्ट पुरुष को देख लेते हैं या उस का. चिन्तन हो पाता है तो हृदय में बुरे भाव उत्तन्न होने लगते हैं और दुष्ट की दुष्टता पर क्रोध श्राजाता है। इसी प्रकार जब कभी किसी महात्मा या महापुरुष के हम दर्शन करते हैं या उस का चिन्तन करते हैं तो चित्त में बड़ी प्रसन्नता और शान्ति उपवती, है.। .पवित्र विचार उपजते हैं और सस्कार -शुद्ध होते हैं। विश्व भर में बड़े २ महापुरुषों, वीरों, विद्वानों और नेताओं के बा बुतः बनाकर यत्र तत्र चौरस्तों और पाकों में रखे गए हैं, और जन्म- . दिवस.महोत्सवों पर उन बुतों के गले में जो फूल मालाएं डालो, जाती है उसका मतलब.भी यही होता है कि लोंग उनको देखकर वैसे
महापुरुष, वीर, महात्मा या विद्वान् बनने का प्रयत्न करें। इसी प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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। १७४ )
मन्दिर में भगवान की प्रतिमा के दर्शन करने से और स्थानक में बैठ कर भगवान् का चिन्तन करने से अन्त:करण निर्मलता की ओर बढ़ता है । आत्मा भगवान् के गुणों को अपनाने लगता है और राग द्वेष दि विकारों को त्यागने का प्रयत्न करने लगता है। श्रात्मा में विवेक शनि का विकास होने लगता है अं.र आत्मा अपनी अशुद्ध के मूल कारण श्रज्ञान और मोह से छुटकारा पाता है। श्रात्मा की उन्नति प्रारम्भ होती है और वह पूर्णता की ओर बढ़ने लगता है । परमात्मा में जो गुण हैं वे अत्मा में भी हैं किन्तु राग द्वेषादि के प्रावरण के कारण वे छिपे हुए है । भगवान् के पूजन या चिन्तन करने से श्रात्मा उस पथ की ओर बढ़ने लगता है वहां राग द्वेषादि का पर्दा अत्मा से दूर हः जाता है। भगवान् के निरन्तर अर्चन या चिन्तन में आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को समझने लगता है । अतः आध्यात्मिक उन्नति और मानव जवन के कल्याण के लिये भ वान् का पूजन, चिन्तन. स्मरण और कीर्तन नितान्त श्रावश्यक
बौद्ध धर्म में ईश्वर की मान्यता ।
महात्मा बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व और नास्तित्व में पड़ना ही ठीक नहीं समझा। ईश्वरीय ज्ञान को मानना यां न मानना यह बौद्ध दृष्टिकोस से कोई आवश्यक या महत्त्वप्रद सिक्षात नहीं है। यह संसार कब प्रारम्भ हुआ, इसका कब अन्त होगा, यह किसी ने बनाया यह अनादि और अनन्त है, इस प्रकार के वादविवाने को बुद्ध मिरर्थक और मूर्खतापूर्ण समझते थे तो विरोष तारामसुधार पर और संयम पालन पर देते थे। जब कभी भी उनके शिष्यों ने इस प्रकार के संसार की उत्पति विषषक प्रम उनसे पूछे उन्होंने
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१७५ )
उन्हें प्रोत्साहन न देकर प्रश्नों की निरर्थकताब ताई। इस प्रकार के विषयों पर वितण्डावाद करने वालो का प्रकरण 'सब्बास सुत्त' में अाता है जो इस प्रकार है:
"वह मूर्ख है जो इस प्रकार के विनार करता है कि मैं भूतकाल में था या नहीं। भूतकाल में मैं क्या था और भविष्यत् काल में मैं रहूंगा या नहीं । भविष्यत् काल में मेरा क्या स्वरूप होगा
और वर्तमान काल में भी अपने दिल में ऐसे विचार करता है कि मेरा वास्तव में अस्तित्त्व है भी या नहीं ? मैं क्या वस्तु हूं? यदि मैं कुछ वस्तु हूं तो कहां से भागया और मृत्यु के बाद कहां चला जाऊँगा"
महात्मा बुद्ध अपने उपदेशों में दूसरों की भलाई और सदाचार पर जोर देते थे। ईश्वर की सत्ता के विषय में उनके कुछ विचार 'तेविन मुत्त' में भी मिलते हैं । इस सूत्र के प्रारम्भ में दो ब्राह्मण युवक बसिड और भारद्वाज वादविवाद करते हैं। उनके विवाद का विषय है कि ब्रह्म की प्राप्ति के लिये सच्चा मार्य कौनसा है! वे दोनों अपनी शंका के निवारणार्थ महात्मा बुद्ध की सेवा में जाते हैं। उनके संशयं को महात्मा बुद्ध इस प्रकार दूर करते हैं:
"हे. वसिष्ठ ! इस प्रकार के ब्राह्मण को तीनों वेदों को पढ़ कर भी उन गुणों का तिरस्कार करते हैं जिनसे मनुष्य बामण बनता है. और वे पेसा पाठ करते हैं "हम इन्द्र को पुकारते हैं, साम को पुकारते हैं, वरुण को पुकारते हैं, ईशान को पुकारते हैं, प्रजापति को पुकारते हैं, ब्रह्म को पुकारते हैं, महिद्धि को पुकारते हैं, यम को
* धर्म का आदि स्रोत पृ० ४५ ।
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पुकारते हैं" वसिष्ठ ! यह कभी सम्भव नहीं कि वे ब्राह्मण बो वेद पढ़े हुए हैं परन्तु उन गुणों का तिरस्कार करते हैं जिनसे मनुष्य वास्तव में ब्राह्मण बनता है अंर उन गुणों को धारण करते हैं जिनसे मनुष्य अब्राह्मण बनता व केवल स्तुति और प्रार्थना के कारण मृत्यु के पश्चात् जब शरीर छूट ज ता है ब्रह्म को प्राप्त हो सके।"
'अच्छ। वसिष्ठ ! क्या यह सम्भव है कि ये ब्राह्मण को वेद पढ़े होने पर भी अपने हृदय में क्रोध और द्वेष धारण किए हैं, जो पापी और असंयमी है मरने के पीछे शरीर छोड़ने पर उम ब्रह्म को प्राप्त कर सकें जो क्रोध, द्वेष और पाप रहित है और संयम स्वरूप है।"
इस प्रकार महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व और नास्तित्व के वाद-विवाद में न पड़ कर क्रोध और द्वेष के त्याग पर और संयम के पालन पर अधिक जोर देते हैं । वेदों की उपेक्षा और ब्राह्मणों की निन्दा उन्होंने इस कारण की कि तत्कालीन ब्राह्मण वेदों की बाड़ लेकर क्रोध, द्वेष, असंयम और हिंसा में प्रवृत्त होगए थे और ब्राह्मणत्व के वास्तविक स्वरूप को भूल चुके थे।
वैदिक धर्म के समान ईश्वर के अस्तित्व का प्रचार न करके महात्मा बुद्ध ने अात्मसंयम, प्रात्म सुधार, मानव जाति तथा प्राणिमात्र के प्रति सुहृद्भाव, शुभकर्मों का आचरण और मानसिक पवित्रता के प्रचार पर जोर दिया। अब नीचे पाठकों के ज्ञानार्थ बौद्ध धर्म के मुख्य सिद्धान्तों या मन्तव्यों पर संक्षेप से प्रकाश डाला जायगा।
बौद्ध धर्म में निर्वाण । निर्वाण शब्द का अर्थ वेदान्तियों का ब्रह्मानन्द नहीं है।
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बौद्ध धर्म में इसका अर्थ-वासना और अज्ञानादि विषयों की ज्वाला को बुझा देने का नाम ही निर्वाण है। व्यावहारिक सत्य का अनुभव होने के पश्चात् पारमार्थिक-सत्य की खोज की जाती है और इसी सत्य को अधिगत करना ही 'निर्वाण' प्राम करना है।
सर्व प्रपश्चानामुपशमः । अर्थात्-सब प्रपञ्चों का नाश करना ही निर्वाण प्राप्त करना है । निर्वाण के मुख्य दो भेद हैं:-(१) उगधिशेष और (२ अनुपाधिशेष । निर्वाण की प्राप्ति तृष्णा के उच्छेद से होती है । सांख्यशास्त्र का 'वासना राहित्य' और बौद्धों का तृष्णा उच्छेद ये मिलते जुनते ही हैं। चार आर्यसत्य माने गए हैं जिनके अनुभव से ही तृष्णा का नाश होता है। ये चार आर्य सत्य दुःख, समुदय निरोध और प्रतिपत्ति हैं । परिदृश्यमान जगत् में सब दुःख ही दुःख है। जीवन में दुःख के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। इस दुःख का उदय जीव की वासना से होता है। इसका निरोध हो सकता है और इसकी प्रतिपत्ति 'अष्टांगिम र्ग' और दश शीलादि से होती है | वे 'अष्टांगिमार्ग' ये हैं:-(१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३ सम्यक् वाक् (४) सम्यक् कर्म, (५) सम्यक् प्राजीव, (६) सम्यक व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति और (८) सम्यक समाधि । इसी प्रकार नीचे दस भाव इस मार्ग के बाधक हैं: - (१) सत्काय दृष्टि, (२) विचिकित्सा, (३) शीलवृत्त परामर्श, (४) काम, (५) प्रतिघ, (६) रूपराग, ७) अरूप. राग, (८) मान, (६) औद्धत्यं और (१०) अविद्या । ऐसे ही दस ही निषेधात्मक शिक्षाएं हैं:-(१) प्राणातिपात, (२) अदत्ता दान, (३) अब्रह्मचर्य, ४ मृषावाद, (५) पैशुन्य (६) औद्धत्य, (७) वृथा प्रलाप, (८) लोभ, (६) द्वेष और (१०) विचिकित्सा । बौद्ध धर्म से
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सम्बन्ध रखने वानी क्रियात्मक खास २ यही बातें है। ये व्यावहारिक हैं और मनुष्य को अज्ञानता के अन्धकार से प्रकाश में लानी है । यही सत्कर्म की खास भित्ति थी जिस पर महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म को स्थापित किया था।
बौद्ध परम्परा में क्षणिकवाद ।
महात्मा बुद्ध ने 'अत्तवाद' अर्थात्-अात्मवाद की निन्दा की है । सांसारिक सब पदार्थों को क्षणिक माना है। हर एक वस्तु का क्षण क्षण में नाश होता रहता है। उदाहरणार्थ छापेखाने से निकला हुई पुस्तक मौ या अनुमान से सबासौ वर्षों के पक्षात् बीर्ण होजाती है और तक हाथ से छुते ही उसके पत्र भुरने लगते हैं। म्या यह जीर्ण करने वाली शक्ति एक ही दिन में पैदा होजाती है ? नहीं, उस पुस्तक में क्षण क्षण में नाशरूर परिवर्तन होता रहता है और अन्त में उस पुस्तक के परमाणु अपनी जननी वसुन्धरा में हो जा मिलते हैं। इस तरह से बौद्ध धर्म की मान्यता के अनुसार संसार के सत्र सत् पदार्थ क्षणिकवाद में रखे जाते हैं। यहां तक कि श्रात्मा का भी नाश माना है। अब झर यह प्रश्न उठ जाता है कि अगर प्रात्मा का भी नाश होजाता है तो मृत्यु के बाद 'निर्वाण' या मुक्ति फिर किस तत्व की होती है ? ईश्वर को तो वैसे ही बौद्ध धर्म में महत्त्व नहीं दिया गया
और श्रात्मा को नाशवान् मान लिया फिर ऐसा कौनसा तत्त्व अवशिष्ट रहा जिसकी मुन होने की सम्भावना की जासकती है ? इसका उत्तर यही है कि बौद्ध ग्रन्थों में जिस तत्त्व को प्रात्मा के नाम से कहा है वह वस्तु है जो संस्कार और कमों के कारण एक दूसरे में भिन्नता कर देती है और जो 'निर्वाण' की प्राप्ति होते ही नष्ट होजाती है। इस आत्मा का नष्ट होने वाला सम्बन्ध उस वस्तु मे है जो हर एक चराचर
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जीव में व्यापक है, जो 'बोधिचित्त' है, जो अपनी सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होकर संस्कारों और कर्मों से होने वाले घेरों को तोड़ कर निर्माण पद को प्राम करती है। यह नश्वर सम्बन्ध कर्मानुसार स्थूल और सूक्ष्म होचाता है और क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है।
नित्य सत्य। महात्मा बुद्ध ने कहा था कि-'नात्र सच्चानि बहूनि नानानि' अर्थात्-इस संसार में नाना प्रकार के बहुत सत्य नहीं हैं । नित्य सत्य संख्या में बहुत थोड़े से ही हैं। उन नित्य-सत्यों के अनुसार चलकर ही मनुष्य सच्चे मार्ग की ओर बढ़ता है। श्रज्ञानान्धकार का नाश करने वाली ज्योति उन्हीं से मिल सकती है और जीवन का वास्तविक लक्ष्य या ध्येय फलीभूत होसकता है। दर्शनों को प्रामाणिक मानने पाले भी अपने २ दर्शनों के मोह रूप चक्कर में फंसे रहते हैं। तर्क भी अप्रतिष्ठ है अतः दर्शन हानिकारक है।
निस्सन्देह बह बात काफी हद तक ठीक भी मालूम होती है किन्तु दर्शन के अभाव में श्रान्तरिक ज्ञान प्राप्त करने का और कोई साधन भी तो दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार के सिद्धान्तों और प्रश्नों का चक्रव्यूह महात्मा बुद्ध के शिष्यों में भेद डालने का कारण
ना। उन के शिष्य बाद में दो वर्गों में बँट गए । सर्वप्रथम बौद्धधर्म के दो सम्प्रदाय हुए जो हीनयान और महाबान के नाम से प्रसिद्ध है। हीनयान में भी 'वैभासिक' और सौत्रांतिक नाम के दो भेद हुए । वैसे ही महायान में योगाचार और माध्यमिक नाम के दो वर्ग हुए ।
धर्म निकाय । ईश्वर शब्द का प्रयोग बौद्धदर्शनों में नहीं किया किन्तु उसके
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स्थान पर या उम का पर्याय 'धर्म निकाय' शब्द मिलता है जिसे बुद्ध का शरीर भी कहते हैं । समता का बोध भी इसी से होता है । बौद्धधर्म ग्रन्थों में धर्म निकाय या बुद्ध का स्वरूप इसी प्रकार वर्णन किया है । बुद्ध काय की यह प्रकृति है कि वह दृश्यमान जगत् के नानात में स्वयमेव व्यनित्वरूप धारण करता है, वह किसी विशेष अस्तित्व के बाहर स्थित नहीं रह मकता, बल्कि वह उम में निवास करके उसे जीवन प्रदान करता है। जब हम दृश्यमान संमार के पदार्थों की विभिन्नतानों को मूक्ष्म दृष्टि से देवने है. तो हमें सर्वत्र धर्मकाय के सिवाय और कुछ भी दखाई नहीं देता और इस तरह से हमें वस्तुओं की ममता स्पष्ट दिखाई देने लगती है।
दृश्य जगत् की यथार्थता और नानात्व को मानने के साथ २ बौद्धधर्म को यह मान्यता है कि जितने भी पदार्थ हमें दिखाई देते हैं वे मब एक अन्तिम कारण से उत्पन्न होते हैं जो सर्वशक्तिमान् , सर्वज्ञ
और सर्वप्रिय है । यह जगत् उस कारण, श्रात्मा अथवा जीवन का व्यन स्वरूप है। भेद के सद्भाव में भी सांसारिक तभी पदार्थ परमतत्त्व के स्वभाव से युक होते है। अतएव ईश्वर जो इस जगत् में नहीं है वह श्रमत है; और जगत् जो ईश्वर में नहीं है वह मिथ्या है। संसार के सब पदार्थ एक ही तत्त्व में लीन हो जाते हैं और एक ही तत्त्व अनेक पदार्थो के रूप में कर्म करता है । अतएव अनेक एक में है और एक अनेक में है। संमार और परमात्मा के विषय में बौद्धों का यही मिद्वान्त है। जिस प्रकार समुद्र की अनेक तरंगें और लहर लहराती
और उमंगित होती हुई केवल एक जलके ही नित्य स्वरूप की ही बिभिन्न गतियां हैं इसी प्रकार संमार की सब क्रियायें भी भिन्न २ रूप से भामने पर भी एक ही तत्त्व की प्रतिविम्चमात्र है। इस से विज्ञ पाठक
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( १= १ )
भली प्रकार समझ गए होंगे कि जैसे अद्वैतवाद में नादिनित्य ब्रह्म
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रूप तत्त्व की सत्ता मानी है और संसार के सत्र आत्मा उमी एक तत्त्व के प्रकाश है और उस से भिन्न है ठीक उसी प्रकार वौद्धधर्म के उपर्युक्त सिद्धान्त में भी नानात्व का सद्भाव एक ही तत्व से माना है जो नानात्व से भिन्न नहीं है ।
एकाग्र ध्यान की प्रधानता ।
बौद्धधर्म की एक और विशेषता ध्यान देने योग्य है । इस में किसी वस्तु को जानने के लिये उस के लिये तर्क, दर्शन या वादविवाद को महत्व नहीं दिया जाता किन्तु अपने एकाग्र
ध्यान से उसे समझने
अनुभव में न तर्क करना या
आई हुई वस्तु पर उस उसे विवाद का विषय
पर जोर दिया जाता है । किसी के अस्तित्व या अच्छेपन पर बनाना, या किसी तत्त्व पर केवल श्रद्धा के भाव रखना सर्वथा मूर्खता मानी है | यदि ईश्वर है तो उस के लिये प्रश्नोत्तर करना व्यर्थ है किन्तु मनुष्य को चाहिये कि वह स्वयं अपने अनुभव से जो ध्यान द्वारा श्राता है उसे समझे । यदि आत्मा ही परमात्मा है तो इस भावना को ध्यान से कार्यरूप में परिणत करना चाहिये केवल 'अमुक वस्तु ऐसे है' ऐसी श्रद्धा या विश्वास करने से कोई लाभ नहीं । बौद्धदर्शनों में अधिकतर जोर ध्यान पर ही दिया है । वौद्धधर्म की मान्यता है कि धर्म का अर्थ अनुभव करना है, प्रदर्शन करना नहीं । इस लिये धार्मिक पुरुषों को तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिये, छाया की नहीं । प्रकाश की गवेषणा करनी चाहिये, प्रतिबिम्ब की नहीं । अतः वास्तविक तत्व की खोब और ज्ञान के लिये ध्यान को ही प्रधानता देनी चाहिये विवाद और तर्क को नहीं ।
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( १८२ )
इम प्रकार अन्त में केवल यही कहना पर्याप्त होगा कि बौद्ध धर्म में केवल एक हो महान् तत्व माना है और संसार के सत्र प्राणी उस के क्षणिक स्वरूप है। जब वे सब उस तत्व के अनुकूल चलते हैं तो सब नित्य हैं और जब अहंकार और अज्ञान के द्वारा उम से विगत चलते हैं तो नाश को प्राम होते हैं ।
इस प्रकार वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों भारतीय महान् धर्मों के ईश्वर विषयक संक्षिप्त विश्लेषण से पाठकों को भली प्रकार पता चल गया होगा कि तीनों धर्मों में ईश्वर का क्या स्थान है और तीनों किस २ रूप में उस की सत्ता को स्वीकार करते हैं।
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श्रमण-संस्कृति का स्वरूप
श्रमण-संस्कृति भारत की अतिप्राचीन संस्कृति है । जैन और बौद्ध ये दोनों श्रमण-सस्कृति की ही भिन्न २ धाराएँ हैं । श्रमण शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध दोनों के साधुओं के लिये किया जाता है । यहां श्रमण-संस्कृति से जैन संस्कृति समझना चाहिये । वर्त्तमान समय में तीर्थंकर धर्म के अनुयायियों के लिये जो जैन शब्द का प्रयोग प्रचलित है यह विक्रम संवत् १००० के लगभग ही प्रयोग में जाने लगा | उसके पूर्व इस धर्म को श्रमण धर्म या निर्ग्रन्थ प्रवचन के नाम से पुकारा जाता था । श्रादि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ देव स्वामी से लेकर जो परम्परागत प्रवचन चला आता है उसको मानने वाले को श्रमण-धर्मावलम्बी कहते हैं। तीर्थंकर का ही दूसरा नाम जिन है जिसके अनुयायी वर्त्तमान समय में जैन कहलाते हैं ।
संस्कृति की परिभाषा ।
सम् उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से भूषण अर्थ में सुट्का आगम करके 'क्तिन्' प्रत्यय लगाने से संस्कृति शब्द बन जाता है । इस प्रकार संस्कृति शब्द का अर्थ होता है भूषणभूत सम्यक कृति । चराचर सारे विश्व में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जिसको सम्यक और असम्यक कर्म का विवेक होता है और यही विवेक पशु संसार की अपेक्षा मानव को उत्कृष्ट और उत्तम बनाता है । इसके अतिरिक्त संस्कृति का पूर्ण अर्थ समझने के लिये संस्कार शब्द का अर्थ समझना
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( १= 6 )
भी परमावश्यक है । संस्कार का अर्थ है किसी वस्तु को शुद्ध करना या उसके आन्तरिक प्रकाश को प्रकट करना । निस्सन्देह संस्कारों की उत्पत्ति और सम्बन्ध वाह्य जगत् से भी बहुत है किन्तु वास्तव में संस्कारों का उद्देश्य मानसिक और श्राध्यात्मिक होत है । जब हम किसी मनुष्य को कहते हैं कि वह सुसंस्कृत है तो हमारा श्रभिप्राय उसकी वह्य बातों से नहीं होता किन्तु हम देखते हैं कि उसका मन और आत्मा कितने ऊपर उठे हुए हैं या विकसित हो चुके हैं । यही कारण है कि सुसंस्कृत मनुष्य मन और आत्मा के उत्थान के कारण सदा सत्कर्मों की ओर ही प्रवृत्त होता है । इस प्रकार सस्कृति मानव का आन्तरिक गुण है और इसके विकास से ही मानव जाति के सारे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक व्यवहार सुचारु रूप से चल सकते हैं । संस्कृति ही मानव को मानवता की ओर ले जाती है ।
संस्कृति
और सभ्यता ।
बहुत से सजन इन दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त करते हैं किन्तु वास्तव में दोनों में महान् भेद है । संस्कृति मानव की अान्तरिक वस्तु है और सभ्यता बाहर की । संस्कृति मानव को श्राध्यात्मिकवाद की ओर ले जाती है और सभ्यता प्रकृतिवाद की ओर । श्रतएव यह श्रावश्यक नहीं कि जो लोग सभ्य हों वे सुसंस्कृत भी अवश्य होंगे । श्रद्धेय श्री स्वामी सत्यदेव परिब्राजकाचार्य ने इसका बड़ा सुन्दर विवेचन किया है * : -
" जब हम यह कहते हैं कि जर्मन जाति सभ्य है, तो इसका
# * देखो कल्याण का हिन्दू संस्कृतिक पृ० २३४ ।
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( १८५ )
अर्थ यह है कि वह जाति अपने दैनिक जीवन में सुधरे हुए साधनों का व्यवहार करती है। अर्थात् शारीरिक अावश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसके पास श्राधुनिक वैज्ञानिक साधन हैं और वह सदा इस बात के लिये प्रयत्नशील रहती है कि शरीर को अधिक से अधिक सुख और मज़ा मिले। अमरीकन लोग बड़े सभ्य है; क्योंकि वे बिजली से खाना बनाते हैं और ट्रैक्टरों द्वारा खेती करते हैं। उनके यहां इक्के तांगे जैसी कोई सवारी नहीं, और उनकी आबादी के प्रत्येक चौथे व्यक्ति के पास अपनी मोटरकार है । जो जातियां अाज वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करती हुई अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाती चली जाती हैं, वे जातियां सभ्य कहलाती हैं अंगरेज़ी भाषा में सभ्यता के लिये 'Civilization' शब्द का व्यवहार किया जाता है। इन जातियों की जीवन आवश्यकताएं उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं और बढ़ती रहेंगी; क्योंकि इन का मुंह सभ्यता की ओर है। ये प्राकृतिक पदार्थों तथा भोगों के अन्दर ही सुख शान्ति की तलाश करती हैं, बिन का कहीं अन्त ही नहीं है।
इन जातियों के पास संस्कृति अर्थात् 'Culture' या 'तसद्द त' भी है किन्तु वह सभ्यता के पीछे २ उस की चेरी बन कर चलती है । बे सुन्दर चित्र बनाएंगे, कलाकारों को उत्साहित करेंगे, कवियों को पुरस्कार देंगे और उत्कृष्ट कलायुक्त भवन बनाकर उस में निवास करेंगे, अपनी बोल चाल में होटलों तथा दुकानों में उन की भाषा मिष्ट और शिष्ट होगी। लेकिन उन सब का मुख्य लक्ष्य झेगा सभ्यता के खुदा 'धन' को प्रसन्न करना और दूसरों की जेबों में से पैसा निकालया। दूसरे शब्दों में वह सुसंस्कृत अवश्य है किन्तु अपनी सभ्यता को आगे बढ़ाने के लिये प्राकृतिक सुखों का मज़ा लूटने के लिये उन का सारा प्रयास रहता है। उन की वृत्ति बहिमुखी होने के कारण वे सभी
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जातियों को अपनी उस लपेट में ले लेते हैं और कच्चे मालकी खोज में पृथ्वी को रौंद डालते हैं । पक्का माल बेचने के लिये सब प्रकार के दाँव-पेच, छल प्रपञ्च काम में लाते हैं। यहां तक कि युद्ध के शैव नरक से भी नहीं डरते।
अब पाइये सस्कृति की ओर, जिस पर मानव की मानवता पूर्णरूप से निर्भर है । सस्कृति है आत्मा की वस्तु, अात्मिक उत्थान का चिन्ह, श्रात्मिक उत्कर्ष की सीढ़ी और आत्मदर्शन का मार्ग । सभ्यता है अपरा विद्या और संस्कृति है परा विद्या। यदि हमें इन दो शब्दों का लदण अंग्रेजी भाषा में दो टूक करना पड़े तो हम उसे इस प्रकार करेंगे(Civilization is an expression of flesh, while culture is toe manifestation of soul. अर्थात्:- सभ्यता शरीर के मनोविकारों की द्योतक है, जब कि संस्कृति आत्मा के अभ्युत्थान की प्रदर्शिका है। सभ्यता का उत्थान मानव को प्रकृतिवाद की ओर ले जाता है, जब कि संस्कृति मानव को अन्तमुखी करके उस के सात्विक गुणों को प्रकट करती है।"
श्रमण संस्कृति की विशेषताएं।
श्रमण संस्कृति प्राणीमात्र के प्रति समता रखने का उपदेश देती है । विश्व के सब जीवों के प्रति दया रखना और उनका कल्याण चाहना भमण संस्कृति का प्रधान उद्देश्य है। इसकी दया की सीमा केवल जंगम संसार के प्राणियों के लिये ही सीमित नहीं अपितु स्थावर संसार के जीवों के लिये भी प्रसारित है। अपने मुख दुःख के समान ही
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( १८७ )
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संसार के सब जीवों के सुख दुःख को समझना चाहिये, यह सन्देश श्रमण संस्कृति ने संसार को दिया है। श्रमण संस्कृति का सारा कर्मकाण्ड समता के उपदेश से अलंकृत है। जैन धर्म के वाह्य, प्राभ्यन्तर, स्थूल और सूक्ष्म जितने भी प्राचार विचार है सब समता के आदर्श की ओर ही इंगित करते हैं ।
कर्म विपाक । श्रमण संस्कृति के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आस्मा चाहे वह स्थावर संसार में वनस्पति की देह में हो, चाहे कीट, पतंग या पशु पक्षी के शरीर में हो और चाहे मानव की देह में हो तात्विक दृष्टि से समान है। छोटा या बड़ा आकार शरीर का हो सकता है प्रात्मा का नहीं। श्रात्मा सब प्राणियों में समान है। जीवों में जो शारीरिक और मानसिक विषमता दृष्टिगोचर होती है वह कर्ममूलक है । जैसा-जैसा जीव उत्तम या अधम कर्म बांधता रहता है वैसा-वैसा ही उसको फल भोगना पड़ता है। कर्म के अनुसार ही जीव भिन्न-भिन्न अच्छी या बुरी योनियों में जन्म लेता रहता है। कर्म के अनुसार ही उसे सुख या दुःख मिलते हैं। जीव जैसा २ कर्म करता है वैसा ही उसका संस्कार बनता है और उस संस्कार के अनुसार ही उसके अन्तःकरण की वृत्ति बनती है। उस वृत्ति के अनुसार ही जव की भिन्न २ विषयों में प्रवृत्ति होती है। अतएव यदि कर्म उत्कृष्ट हो तो प्राध्यात्मिक पथ की ओर बढ़ने लगता है और यदि कर्म निकृष्ट हो तो बीव पतन की ओर बढ़ता है। क्षुद्र से क्षुद्र योनि में पड़ा हुश्रा जीव भी उत्तमकों के परिणाम स्वरूप मानव योनि में जन्म ले सकता है और मानव योनि में पड़ा हुआ जीव निकृष्ट कर्मों के प्रभाव से
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क्षुद्रत योनि में जन्म लेता है। इस प्रकार ऊँच नीच योनि, सुख दुःख श्रीर जन्म, मरण आदि सबका आधार कर्म ही है । वैदिक तथा अन्य बहुत से धर्मों में कर्मों का नियन्त्रण ईश्वरीय सत्ता के श्रधीन माना है किन्तु श्रमण संस्कृति उससे सहमत नहीं । जैन दर्शन के अनुसार जीव को कमों का फल भुगताने के लिये किसी ईश्वर जैसी सत्ता की आवश्यकता नहीं समझी गई । अनादि और अनन्त संसार में जीब और अजीव नाम के दो प्रधान पदार्थ है । जीव चेतन है और जीव जड़ | जीव सिद्ध और संसारी दो प्रकार का है । सिद्धाबस्था जीब का शुद्ध स्वरूप है । संसारी जीव कर्म बन्धन से बंधा हुआ है । दृश्यमान पदार्थ पुद्गल द्रव्य के भिन्न २ रूप हैं। जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर गुद्गल द्रव्यों की ओर प्रवृत्ति करता है और उन पर अज्ञानवश ग्रासक होजता है तो आत्मा में राग भाव उत्पन्न होता है और उस राग से ही द्वेष की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार राग से ही द्वेष रूप विकारी भावों से कर्म पुद्गलों का संयोग सम्बन्ध होजाता है और चिकनाहट के कारण कर्मरज श्राकर जीव के साथ चिपट जाती है । राग द्वेष के अभाव में कर्मबन्धन नहीं हो सकता । जिम प्रकार मद्यपान से नशा स्वयं श्राजाता है । इसी प्रकार कर्मों का भी जीव के साथ ऐसा बंध होता है कि कर्मों में अनुरूप फल प्रदान की शक्ति उत्पन्न होती है । जब २ जिस २ बर्म का उदय होता है तब-तब वह अपने स्वभावानुसार ही फल उत्पन्न कर देता है ।
आत्मा के साथ
राग द्वेष रूप
भौतिकवाद और आत्म-तत्त्व |
श्रागमों के सिद्धान्त अनादिकाल से मानव को प्राध्या
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त्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करते आए हैं । प्रकृतिवाद या भैतिकवाद की सदा ही श्रमण धर्म के महर्षियों ने उपेक्षा की है। भौतिकवाद को ही सर्वे सर्वा मानने वाला अाज का मानब भले ही उन महर्षियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखे, या उनकी बुद्धि को प्रतिवाद के क्षेत्र में अविकसित समझे किन्तु तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर उनकी ही दृष्टि विशाल जचती है। यह ठीक हैं कि मानव जाति ने बहुत हद तक प्रकृति पर प्रशसनीय विजय प्राप्त करली है। मानव वायुयानों पर अाकाश में उड़ने लग गया है और महीनों की यात्रा घंटों में ही सुलभ होगई है। रेडियो यन्त्र के आविष्कार से वह घर बैठे ही सारे संसार के समाचार सुन सकता है। पनडुबियों में बैठ कर वह समुद्र के स्तल पर जासकता है और युद्ध-पोतों को तोड़ देता है। हवाईनहाजों द्वारा एटम बम्ब बरसा कर वह कुछ क्षणों में प्रलय मचा सकता है किन्तु इन सब और अन्य अनेक प्रकार के भौतिक अविष्कारों से वह वास्तव में ऊँचा नहीं उठ पाया है। भौतिकवाद की इस उन्नति की ओर बढ़ने के परिणामस्वरूप ही विश्व को गत दो महायुद्धों की भीषणता का सामना करना पड़ा। और अब तीसरे महायुद्ध के बादल फिर मँडराते नज़र आरहे हैं। विश्व के किसी कोने में भी शान्ति नहीं है। सर्वत्र अशान्ति, भय, कलह और अत्याचार बढ़ रहे हैं । यह सब होते हुए भी भौतिकवाद का दास अाज का मानव बड़ी शान से यह कहता है कि अाज का युग विज्ञान का : युग है, विकास का युग है और प्रगति का युग है ।
आज के युग में जो देश अधिक से अधिक संख्या में घातक शस्त्र अस्त्र तैयार कर सके और शक्ति के बल से निर्बल देश को हड़प कर सके उसको बहुत उन्नत और सभ्य देश समझा जाता है। यह बात कहां
तक सत्य है यह पाठक स्वयं विचार सकते हैं। अस्तु श्रमण संस्कृति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १६० )
के मषियों को इस प्रकार के भौतिक विकास निरर्थक प्रतीत हुए । यह बात असत्य है कि उनकी बुद्धि अाधुनिक आविष्कारों तक पहुंच नहीं सकती थी। वास्तव में वे भौतिकवाद के दुष्परिणामों से भली. भांति परिचित थे इस कारण वे उनकी ओर ध्यान ही नहीं देते थे । इसी सत्य की पुष्टिं भारतीय तथा अन्य सरकृतियों के मर्मज्ञ श्री अरविन्द जी ने इस प्रकार की है*:
_ 'याध्यात्मिकता ही भारतीय मन की मुख्य कुञ्जी है; अनन्तता की भावना उसकी सहजात भावना ह । भारत ने श्रादिकाल में ही यह देख लिया और अपने तर्क बुद्धि के युग में तथा अपने बढ़ते हुए अज्ञान के युग में भी उसने वह अन्तष्टि कभी नहीं खोई कि जीवन को केवल उनकी वाह्य परिस्थिति के प्रकाश में ही ठीक-ठीक नहीं देखा जासकता और न वह केवल उन्हीं की शक्ति से पूरी तरह बिताया जासकता है । वह प्राकृतिक नियमों तथा शक्तियों की महत्ता के प्रति जागरूक था, उसे भौतिक विज्ञानों के महत्व का सूक्ष्म बोध या; वह माधारण जीवन की कलाओं को सङ्गठित करना जानता था। परन्तु उसने यह देखा कि भौतिकता को अपनी पूरी सार्थकता तब तक नहीं प्राप्त होती, जब तक वह अतिभौतिक से ठीक सम्बन्ध नहीं स्थापित कर लेती; उसने देखा कि संसार की जटिलता की व्याख्या मनुष्य की वर्तमान परिभ.पात्रों से नहीं की जासकती और न मनुष्य की स्थूल दृष्टि से समझी जासकती है, और यह कि विश्व के मूल में कुछ अन्य शक्तियाँ भी हैं तथा स्वयं मनुष्य के भीतर भी कुछ अन्य शक्तियां हैं, जिन्हें वह साधारणतया नहीं जानता।'
इस प्रकार सामर्थ्य के सद्भाव में भी प्राचीन प्राचार्य भौतिक* देखो क याण का हिं० स• अं० पृ० २०७ ।
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( १६१ )
तत्त्वों की उपेक्षा करके प्राध्यात्मिक तत्वों की ओर बढ़ने की ही मानब जाति को प्रेरणा करते थे। श्रात्मा की उन्नति का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष था। संसार में चित् और अचित् या दूसरे शब्दों में चेतन और जड़ दो तत्व है । दोनों का उचित विचार ही विवेक है । चेतन का स्वभाव है कि वह जड़ पदार्थों को अपने काम में लाता है । जीवों की दो कोटियां हैं--मुक्त और संसारी । संसारी जीवों में भी कुछ मन वाले, और कुछ मन रहित । त्रस और स्थावर ) है ! मुक्ति का साधन धर्म तत्व है और मुक्ति में प्रतिबन्ध डालने वाना तत्व अधर्म है। जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये मात तत्व हैं । पुण्य और पाप को मिला कर नौ भी माने जाते हैं। जो बन्ध का हेतु है वह अाश्रव है । काया, बागी और मन में अाश्रव स्फुरित होता है ? मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण बीव में अाश्रव के द्वारा उस का पुद्गल से योग होता है; यह सम्बन्ध ही बग्ध है। श्राश्रवरूप संसार प्रवाह को ढकने वाला संवर है। यही संवर मोक्ष का कारण है । सम्यक दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन मोक्ष के मार्ग है । ज्ञान और दर्शन तो आत्मा के अनादि अनन्त निब गुण है। मोक्ष प्राप्ति के बाद भी ये श्रात्मा के साथ ही रहते हैं ! दर्शन और ज्ञान दोनों का नित्य सम्बन्ध है। चरित्र दोनों की पूर्णता की ओर प्रवृत्ति कराता है । इन तीनों के प्रभाव से बब सब कर्मों का क्षय हो जाता है तो आत्मा मुक्त हो जाता है। तब आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप बन जाता है । श्रमण संस्कृति सदा से मानव को इस सच्चिदानन्द स्वरूप मोक्ष की और बढ़ने की ही प्रेरणा करती आई है।
पञ्च महाव्रत । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह, ये श्रमण
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( १९२ )
संस्कृति के पांच प्रधान महाव्रत हैं । इन का विधान तो येन केन रूपेण भारत के प्रायः सभी धर्माचार्यों ने किया है परन्तु श्रमण धर्म इन के पालन पर विशेष ही ज़ोर देता है। इन पांचों के पालन करने से ही मानव मानवता की और कदम बढ़ा सकता है। किसी भी बीव की मन, वचन और काया से हिंसा न करने का नाम ही अहिंसा है। अहिंसा श्रमण संस्कृति के प्राण हैं। इस का विस्तृत विवेचन 'अहिंसा परमो धर्मः के प्रकरण में कर दिया है ।
सत्य । सत्य नामक दूसरे महाव्रत का अहिंसा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सत्य पर चलता हुआ मानव ही पूर्णरूप से अहिंसा महाव्रत का पालन कर सकता है । सत्य बोलने और सत्याचरण करने आदि से प्रात्मा का उत्थान होता है। सत्य से प्रात्मा को बल मिलता है और
और असत्य से प्रात्मा पतन की ओर जाता है। सत्य बोलने वाला व्यक्ति सदा निश्शक और निर्भय रहता है और इस के विपरीत असत्यभाषी सदा पोल खुलने के डर से शंकित और सभय रहता है। असत्य की सदा अन्त में हार होती है और सत्य की बात होती है। 'सत्यमेव जयते ना नृतम् ' इस महावाक्य को कभी नहीं भूलना चाहिये। जिस समाज, धर्म या जाति के लोग सत्य की उपेक्षा करते हैं वह समाज, धर्म या जाति कभी भी विवेक और नैतिकता के ऊँचे स्तर तक नहीं एहुच सकती। अतएव सामाजिक जीवन को ऊँचा बनाने के लिये सत्यवादिता परमावश्यक है।
अस्तेय । अस्तेय अर्थात् चोरी न करमा। बो.वस्तु अपनी भी उस पर
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( १६३)
अधिकार नहीं करना चाहिये । सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये इस तीसरे महाव्रत का पालन भी सुसंस्कृत संसार के लिये परमावश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह दूसरे के अधिकारों का आदर करे और उनको अपने अधिकारों के समान समझ बलपूर्वक डाका डालकर या छुप कर चोरी करके यदे कोई व्यक्ति दूसरे के माल को छीने सो इससे सामाजिक व्यवस्था भंग होती है और आत्मा का पतन होता है। अाजकल भी जो सबल राष्ट्र निर्वलों पर अाक्रमण करके उनको उनकी जन्मसिद्ध स्वतन्त्रता से वञ्चित करते हैं वे भी डाकुओं की ही कोटि में आते हैं। सबल निर्बल के अधिकारों को छीते यह अनधिकार चेष्टा है। अतः जीवन के आदर्श मार्ग की और बढ़ने के लिये इसका त्याग ही कल्याणकारी है । अस्तेय सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था के लिषे मूल शिक्षा है ।
ब्रह्मचर्य । मनुष्य में अनेक प्रकार की वासनात्रों और लालसाओं का होना स्वाभाविक है । विवेक द्वारा उन वासनाओं और लालसाओं पर नियन्त्रण रखना ही ब्रह्मचर्य है। जो व्यक्ति ऐसा नियन्त्रण नहीं रखता है वह विषयों के गड्ढे में ऐसा गिरता है कि फिर उसका उत्थान होना बड़ा कठिन होता है। विषयों का रसास्वादन बाहर से मधुर है किन्सु परिणाम में दुःखरूप है। इनका अधिक से अधिक उपभोग करने पर भी क्षुधा शान्त नहीं होती किन्तु उत्तरोत्तर बढ़ती है। प्राग में जिस प्रकार घृत डालने से वह अधिकाधिक प्रचण्ड ही होती है, ठीक इसी प्रकार विषयों के उपभोग से उत्तरोत्तर तृष्णा बढ़ती जाती है घटती नहीं। अतएव विवेकी मनुष्य विषयों के दुःखावह परिणाम को
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( १६४ )
सदा ध्यान में रखते हुए उनमें फंसते नहीं और उनका त्याग करना है। श्रेष्ठ समझते हैं। कुत्ते को जब सूखी हड्डी का टुकड़ा मिल जाता है वह उसको बड़े चाव से खूब चबाता है और उस हड्डी के तीक्ष्ण भाग के चुभने से उसके अपने मुंह से ही खून निकलने लगता है। वह कत्ता यह समझकर कि रक्त हड्डी से निकल रहा है उसे और अधिक चबाता ही जाता है। ठीक यह! दशा शास्त्रकारों ने विषय लंपट पुरुषों की भी बताई है। विषयों के भोग से नाश तो उनका अपना हा होता है किन्तु वे समझते हैं कि रस विषयों से मिल रहा है। विषयां का ध्यान करने से किस प्रकार मनुष्य उत्तरोत्तर पतन की ओर बढ़ता है इसका बड़ा ही सुन्दर चित्रण गीता में खींचा है:
ध्यायती विषयान् पुसः संगस्तेपूपजायते । संगात्संजायते कामः कामाकोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।
(गीता २ । ६२-६३)
अर्थात्-विषयों का निस्तर ध्यान करने से मनुष्य का उनमें लगाव होजाता है। लगाव अर्थात् संग से काम की उत्पत्ति होती है । काम से क्रोध पैदा होता है, क्रोध से भूल होती है, भूल से स्मृति बिगड़ती है, स्मृति के बिगड़ने से बुद्धि का नाश और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का सर्वनाश होजाता है ।
गीता के इन दो श्लोक रत्नों में मनोविज्ञान का कितना सुन्दर और सारपूर्ण चित्र खोंचा है इसकी प्रशंसा किए बनती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १६५ )
अपरिग्रह |
संसार के सुखों का अपनी इच्छा से स्याग कर देना, तृष्णा से विरक्ति, और अनेक वस्तुनों के संग्रह का मोह त्याग ही अपरिग्रह कहलाता है । मनुष्य जितना ही अधिक वस्तुनों का परिग्रह करता जाता है, उतना ही उसका उनके प्रति मोह बढ़ता जाता है और उम मोह का परिणाम सदा शान्ति और दुःख होता है । श्रतएव जितना ही कम परिग्रह हो उतना ही मनु य निश्चिन्त, सुखी और प्रसन्न रहता है । सात्विक और सादा जीवन ही सुखकारी होता है । द संसार ने अपरिग्रह के महत्त्व को समझा होता तो ग्राज जो प्रू जिपतियों और साम्यवादियों में सङ्घर्ष चल रहा है और भयानक रक्तपात हो रहा हैं यह कभी न होता | श्रमण संस्कृति के अपरिग्रह आदर्श के अनुसार यदि ससार के लोग सादा जीवन व्यतीत करते और अपने भाइयों के शोषण से पूंजी इबट्ठी न करते तो यह स्वाभाविक था कि वह पू ंजी केवल अल्प संख्यक मनुष्यों के पास न रहकर जन साधारण तक फैली होती । ऐसी स्थिति में साम्यवाद जैसे सिद्धान्त का जन्म ही न हो पाता । अपरिग्रह के महत्त्व को न समझने के कारण ही श्राब मानव दानव बन रहा है। चोर बाज़ारी का बाज़ार गर्म है । परिग्रह के उपासक लोभी और लालची लोगों के कारण श्राज विश्व में असंख्य परिवार अनेक भयानक कष्टों के भार से पिस रहे हैं । अत्यावश्यक जीवन के साधन भी दिन प्रतिदिन दुर्लभ हो रहे हैं और जीवन भार रूप बनता जा रहा है । किसी के पास इतना है कि में लगाता है और अधिक लोगों के पास सामान्यरूप से जीवन निर्वाह भी कर सकें
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वह व्यसनों
।
इस प्रकार का महान् विषम अन्तर ही कलह
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·
इतना भी नहीं है कि वे
मानव और मानव में र रुङ्घर्षका कारण है ।
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( १९६ )
यदि सम्पन्न राष्ट्र और लोग परिग्रह के मोह को त्याग दें तो संसार की सब सामाजिक जटिलताएँ दूर होजाएँ और कठिन समस्याएँ सुलझ जाएँ । यही कारण है कि श्रमण संस्कृति के महर्षि अनादि काल से विश्व को अपरिग्रहरूा महाव्रत का पालन करने का सन्देश देते आए हैं ।
तप की प्रधानता । उपर्युक्त पांच महावत ही नैतिक आचरण के अ.धार है । इनको कार्यरूप में परिणत करने के लिये तपश्चर्या की आवश्यकता है। तप ही मानव को धर्म की ओर प्रवृत्त कराता है। तप दो प्रकार का माना है:- (१) बाह्य और (२) श्राभ्यन्तर । बाह्य में (१) अनशन, (२) अवमोदरिका, (३) भिक्षाचर्या, (४) रस परित्याग, (५) कायक्लेश और (६) संलीनता सम्मिलित हैं । अभ्यातर ता में (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्मग । तपश्चयां से श्रात्मशुद्धि होती है और अन्तःकरण के क्लेश की निवृत्ति होती है। इसके लिये सहनशीलता की नितान्त अावश्यकता है। भगवान महावीर स्वामी ने तपश्चर्या के समय अनेक प्रकार के कायक्लेशों को अविचलित भाव से सहन किया। जब वे अनार्य देशों में बिहार कर रहे थे तो अज्ञानी मनुष्यों ने उन पर कुत्ते छोड़े किन्तु उनकी कुछ भी परवाह न करते हुए वे अपने ध्यान में अटल रहे।
श्रमण संस्कृति में प्रात्मशुद्धि को जीवन का लक्ष्य माना है और इसी कारण से तपश्चर्या की प्रधानता है। जैन धर्म ग्रन्थ ऐसे अनेक उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनसे पता चलता है कि साधारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १६७ )
व्यक्तियों की तो बात ही क्या बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा भी श्रात्मशुद्धि के लिये घोर तपस्या करते थे। महाकवि श्री वीरनन्दी जी लिखते है*:
"मुनिवर के आगे विनय से सिर झुका कर चक्रवर्ती अजितसेन ने संक्षेप में कहा कि मैं आपके श्राश्रम में ही जाने वाला था। पर मेरे पुण्यों के कारण आप यहीं अागए । जब मनुष्य दुर्गति में गिरने लगता है तब सेना अादि वैभव और बान्धव कोई भी श्राश्रय नहीं दे सकते। यह जानकर मेरा जी चाहता है कि मैं आपकी ही सेवा में रहूं। हे वरदायक, इसलिये प्रसन्न होकर आप मुझे अपनी दीक्षा दीजिये। क्योंकि आपकी थोड़ी सी भी कृपा शुभ करके अशुभ को मिटा देती है। सजनों का अनुग्रह क्या नहीं कर सकता ? इस प्रकार राजा ने जब अपने हृदय की बात कहदी तब समर्थ राजा के साहस की परीक्षा करने के इरादे से मुनिवर ने उन्हें उनकी इच्छा से फेरने वाले वचन कहना शुरू किया । राजन्, कठिन शरीर वाले मुझ सरीखे साधु जने जिस दुकर तप की श्रांचे नहीं सह सकते उसको तुम्हारे मरीखे कुंकुम लेप से लालित सुकुमार लोग कैसे कर सकते हैं ? तुम दयालु, धर्म को ही धन समझने वाले और अपने वैभव को परोपकार में लगाने वाले हो। तुम्हारा चरित्र ऐसा नहीं है कि विद्वान् लोग उसकी निन्दा करें। तुम गृहस्थ हो, तब भी तुम्हारा आचरण तपस्वियों के ही समान है। इस लिये राजन्, श्राप दयालु, साधुवत्सल, मोक्षकामुक बने रहेकर युग भैर इस पृथ्वी का शासन करो। तुम इन अंनाय लोगों को पालों और उबारो। दोनों को उबारने से बढ़कर और कोई तपस्या नहीं है। मुनि के इस प्रकार कहने पर दृढ़-सकल्प राजा ने मोक्ष के मार्ग में दृढ़ होकर फिर इस प्रकार अपने पक्ष का समर्थन प्रारम्भ
* देखो चन्द्रप्रभ चरित्र हिं• अं० पृ० ११३, ११४ ।
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( १६८ )
किया-हे ईश, मैं परम पूजनीय जो पाप हैं उनकी इस अाना के विषय में फिर जो कुछ कहना चाहता हूं, उसका कारण जन्म-मरण के दुःखों का जंजाल ही है। इन जीवों को इष्टानिष्ट के वियोग संयोग से यदि दुष्ट पीड़ायें न होती तो जिनेन्द्रचन्द्र द्वारा धारण किये इस मत्य श्रोर महाकठिन महावतों को कौन ग्रहण करता ? यदि गृहस्थ रहने पर भी विचित्र दुःख देने वाला जन्म-मरण का चक्र मिट जाता है तो फिर पाप जैसे विवेकी महापुरुषों का तप में परिश्रम करना वृथा हो ठहरा । जिन-दीक्षा में जिनका मन लगा हुआ है उन उदार चरित्र राजा के ये वचन सुनकर मुनिवर को यह निश्चय होगया कि इन्होंने सोच विचार कर यही दृढ़ निश्चय कर लिया है। तब उन्होंने राजा की प्रार्थना को स्वीकार किया। परिवार के बन्धन से मुक्त. राजा ने मुनि की अनुमति पाकर अपने पुत्र को वह निष्कण्टक राज्य दे दिया।
उसके बाद उन्होंने परिग्रह छोड़ कर संयम का अलङ्कार रूप तप ग्रहण कर लिया। घोर तप करते हुए भयशून्य राजा पुरबाहर पयङ्कासन से स्थित रहकर हेमन्त की रातें बिताने लगे। धैर्य-वस्त्रधारी राजा वहीं पाले और ठण्डी हवा के वेग को सहते थे। भयानक सैंकड़ों उल्कापातों से दुस्सह और घोर घन-घटाओं से अन्धकार फैला देने बाली वर्षाऋतु की रातों में क्षमताशाली वे पेड़ों की जड़ में बैठे हुए मूसलाधार पानी सहते थे। वे गर्मियों में सूर्य के सामने खड़े रहते थे । तपी हुई सूई के समान शरीर में चुभने वाली सूर्य की किरणों के लगने पर भी वे ध्यान से नहीं डिगे। कर्त्तव्यकाम कितना ही कठिन क्यों न हो उसे करने के लिये सजन लोग दृढ़ रहते हैं।"
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( १६६ )
जैसे:
सामाजिक जीवन । वैदिक धर्म के सामाजिक जीवन में चार अाश्रमों का विधान है । जैसे:-ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा ।
___एते गृहस्थ प्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः ।। मनु० ६।८७
अर्थात्-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, तथा सन्यासी ये चारों अाश्रम अलग २ होने पर भी गृहस्थाश्रम से ही जायमान होते हैं । ___ठीक इसी प्रकार का मन्तब जैन धर्मग्रन्थों में भी मिलता है ।
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तर शुद्धितः ॥
जिनसेन-अांदि पुराण । अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धि के लिये हैं ।
यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जिस प्रकार वैदिक धर्म में अाश्रम व्यवस्था पर जोर दिया है और कार्यरूप में उसका पालन भी किया गया है इस प्रकार जैन धर्म में नहीं। जैनागमों ने चार तीर्थों के श्राचार विचार पर ही जोर दिया है। जैन संस्कृति के अागम तथा अन्य धर्म ग्रन्थ तीर्थ विषयक कर्मकाण्ड से ही भरे हुए हैं। श्रमण संस्कृति में कठिन तपस्या करने के लिये चतुर्याश्रम तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं किन्तु जीव का संस्कार यदि उत्कृष्ट है तो किसी अवस्था में भी वह तपश्चर्या का अधिकारी है। मेरे विचार से बैन पुराणों में जो श्राश्रम व्यवस्था का विधान है यह बहुत पीछे का है और यह जैन संस्कृति की अपनी चीज़ नहीं किन्तु वैदिक धर्म का ही जैन संस्कृति पर प्रभाव है।
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( २०० )
गृहस्थ धर्म ।
श्रमणधर्म निवृत्ति और तपप्रधान धर्म है इस कारण यह न समझना चाहिये कि इसमें गृहस्थमार्ग की उपेक्षा की गई है और उसका इसमें श्रदर नहीं है । वैदिक संस्कृति के समान श्रमण संस्कृति में भी गृहस्थाश्रम को धर्म की आधार शिला माना है । गृहस्थ के बिना धर्म की प्रवृत्ति और प्रगति नहीं हो सकती । केवल सिद्धान्त विधान मात्र से श्रात्मशुद्धि प्रधान तर की क्रिया नहीं हो सकती और नहीं केवल श्रागम ज्ञान के बोध से आचार विचार का पालन ही हो सकता है किन्तु सब प्रकार की धार्मिक क्रियायों के लिये वाह्य साधनों की श्रावश्यकता रहती है जिनको गृहस्थ पूरा करता है। यही कारण है कि यत्र तत्र जैन धर्मग्रन्थों में 'गृहस्था धर्म हेतवः' और 'श्रावका मूल कारणम्' जैसे गाक्य मिलते हैं। इसी सत्य की पुष्टि वैदिक महर्षि भी करते हैं:
-
सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृति विधानतः ।
गृहस्थ उच्यते श्र ेष्ठः स त्रीनेतान् विभर्ति हि ॥
मनु० ६८६
श्रर्थात् समस्त श्राश्रमों में वेद और स्मृति की बताई हुई विधि के अनुसार चलने वाला गृहस्थ श्रेष्ठ माना जाता है । क्योंकि गृहस्थ ही इन तीनों श्राश्रमों की रक्षा करता है ।
जैन धर्मग्रन्थों में गृहस्थ के लिये दो तरह के धर्मों का विधान मिलता है। वे हैं लौकिक और पारलौकिक । जैसे:
द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥
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( २०१ )
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्व हानिर्न यत्र न व्रत दूषणम् ।।
( यशस्तिलक) अर्थात्-गृहस्थों के लिये लौकिक और पारलौकिक दो प्रकार के धर्मों का विधान है। लौकिक धर्म लोकाश्रित अर्थात्-लौकिकजनों की देशकालानुसारिणी प्रवृत्ति के अधीन और पारलौकिक अागमाश्रित अथवा प्राप्तप्रणीत शास्त्रों के अधीन बतलाया है ।* सांसारिक व्यवहारोंके लिये अागम का प्राश्रय लेना भी बहुत आवश्यक नहीं समझा गया
और साथ २ यह भी प्रतिपादन किया है कि जैनियों के लिये वे सम्पूर्ण लौकिक बिधियां प्रमाण हैं जिनसे उनकी धार्मिक श्रद्धा में कोई बाधा न पड़ती हो और न व्रतों में ही कोई दूषण लगता हो ।
___ इस प्रकार श्रमण-संस्कृति में गृहस्थाश्रम का स्थान बहुत ऊँचा और आदरणीय है।
विवाह । विवाह करना गृहस्थ का परम कर्तव्य है । श्रादिपुराण में भगवजिन सेनाचार्य ने लिखा है कि जब युग के प्रारम्भ में भगवान् ऋषभदेव ने विवाह के लिये कुछ अनिच्छा प्रकट की तो उनके पिता नाभि राजा ने उनको समझाते हुए ये वचन कहे:
त्वामादिपूरुषं दृष्टवा लोकोप्येवं प्रवर्तताम् । महतां मार्गवर्तीन्यः प्रजाः सुप्रजसो ह्यमूः ।। ६१ ।। ततः कलत्रमत्रेष्टं परिणेतु मनः कुरु । प्रजासंततिरेवं हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥ ६२ ॥ पजासंतत्यविच्छेदे तनुते धर्मसंततिः ।। * विवाह समुद्देश्य पृष्ठ २० ।
आदि पुराण पर्व १५ ।
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( २०२ )
अर्थात् - अादि पुरुष अापको देखकर लोग भी श्रापका ही अनुकरण करेंगे । प्रजाजन बड़ों के दिवाए मार्ग पर ही चला करते हैं । अतएव श्राप पत्नी के परिणयन की प्रार्थना को स्वीकार करें । ऐसा करने से सन्तानोत्पत्ति की शृङ्खला निरन्तर चलती रहेगी और उसके चलने से धर्म-सतति की वृद्धि होगी।
___ वर्ण व्यवस्था के प्रकरण में यह बताया ब चुका है कि मूलतः श्रमण संस्कृति में वर्ण व्यवस्था कर्म से ही रही है किन्तु वैदिक संस्कृति के साथ निरन्तर चिरकालीन सम्पर्क से यह उसके प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकी। नीचे दिया उदाहरण इस सत्य की पुष्टि करता है । वैदिक. संस्कृति के अनुसार:
शूद्रव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते । ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः॥
मनुस्मृति ३।१३ अर्थात्-शूद्रा ही शूद्र की स्त्री हो सकती है दूसरी नहीं। वैश्य को वैश्य वर्ण वाली और और शूद्रा; क्षत्रिय को क्षत्रिया, वैश्या तथा शूदा; ब्राह्मणों को चारों वर्णों की कन्याओं से विवाह करने का अधिकार है।
ठीक ऐसा ही मन्तव्य जैन पुराणों में भी मिलता है। जैसे: - शूद्रा शूद्रण वोढव्या नान्या स्वां तां च नमः।
वहेत्स्वा ते च राजन्यः म्वां द्विजम्मा कचिच्चताः ॥ ठीक ऊपर जैसा ही अर्थ इसका भी है। फर्ममूलक श्रमण-संस्कृति पर यह बन्ममूलक संस्कृति का ही असर है और यह असर बहुत
श्रादि पुराण ।
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( २०३ )
प्राचीन नहीं किन्तु बहुत पीछे का है। श्रमण-संस्कृति वास्तव में कर्ममूनक होने के कारण विवाह के लिये जातिपाति का कोई प्रतिबन्ध उपस्थित नहीं करती। विवाह में नातिबन्धन की प्रथा बहुत पीछे की है । शास्त्रों में असवर्ण विवाहों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । बड़ेबड़े प्रतिष्टित महापुरुष भीलों और म्लेच्छों आदि तक की कन्याओं से निस्संकोच विवाह कर लेते थे। एक ही गोत्र और एक ही परिवार में भी विवाह हो सकता था। श्री नेमिनाथ के चचा वसुदेव जी ने अपने चचाज़ाद भाई उग्रसेन की लड़की देवकी से विवाह कर लिया था।* मामा और फूफी की लड़की से विवाह तो ग्राम प्रचलित था। दाक्षिणात्य ब्राह्मणों में तो इस प्रकार के विवाह अाज भी प्रचलित हैं। परन्तु इस प्रकार के विवाह उस समय भी सार्वदेशिक नहीं थे। इसी कारण सोमदेव सूरि ने लिखा है:-'देशकुलापेक्षो मातुलसम्बन्धः ।
विवाहों में सबसे उत्तम स्वयंवर विवाह को माना ज ता था । श्रादि पुराण में विवाह विधान के प्रकरण में स्वयंवर विवाह को ही सर्वश्रेत्र बताया है। जैसे:-सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः ।
विवाहविधिभेदेषु वरिष्टो हि स्वयंवरः ।। अर्थात्-विवाह के जितने भेद हैं, उनमें स्वयंवर ही सबसे श्रेष्ठ है और श्रुति-स्मृतियों में इसकी महिमा है। अनादिकाल से विवाह का यही उत्तम मार्ग चला आता है।
__स्वयंवर में गई हुई कन्या अपनी रुचि के असुमार वर को चुनती है:-कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवरगता वरम् । * विवाह समुद्देश्य पृ० १८ ।
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( २०४)
कुलीनमकुलीनं वा क्रमोनास्ति स्वयंवरे ॥* अर्थात्-स्वयंवर में गई हुई कन्या कुलीन और अकुलीन का विचार न करके अपनी इच्छा के अनुसार वर को चुनती है ।
जैनकाल में बहु विवाह की प्रथा अवश्य प्रचलित थी किन्तु परस्त्री की अोर दृष्टि डालना बहुत बुरा समझा जाता था। लोग अपनी २ प्रियतमात्रों से ही सन्तुष्ट रहते थे।
श्रमण-संस्कृति के प्रवर्तक ।
श्रमण संस्कृति के श्रादि प्रवर्तक कौन थे, वे कत्र हुए और किन-किन परिस्थितियों में उन्होंने इसकी नींव रक्खी इसका इतिहास से कुछ पता नहीं चलता। हां उपलब्ध 'आगमग्रन्थों' तथा अन्य साहित्य से यह स्पष्ट है कि नाभिपुत्र आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव स्वामी श्रमण-संस्कृति के महान् समर्थक थे। उन्होंने इसका मर्वत्र प्रचार किया। उन्होंने ही लोगों के लिये रहन-सहन के नियमों को बनाया और उन्हें पालन करने का ढंग सिखाया। जङ्गली जानवरों से प्रात्म-त्राण करने के लिये उन्होंने लोगों को शस्त्र बनाना सिखाया,
और स्वयं तनवार हाथ में लेकर उन्होंने लोगों को उसका प्रयोग करना सिग्वाया । कर्ममूलक वर्ण व्यवस्था भी उन्होंने ही बान्धी।
आदिराज ऋषभदेव ने ही कर्म को छे भागों में बांटा-(१) युद्ध, (२) कृषि, (३) साहित्य, (५) शिल्प, (५) वाणिज्य और (६) व्यवसाय । न्यायपूर्वक प्रजापालन के महत्त्व को भी उन्होंने ही तत्कालीन रानात्रों को समझाया। उन्होंने तत्कालीन लोगों को लिखना पढ़ना सिखाया और कृषि के योग्य लोगों को कृषि करने का दंग बताया।
* जिनदास हरिवंश पुराण ।
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( २०५ )
अनेक प्रकार की शिल्पकलात्रों का आविष्कार भी उन्होंने किया। सामाजिक सुव्यवस्था के लिये उन्होंने अनेक नियम बनाये और अनुशासन तथा मर्यादा में रहकर उनका पालन करना लोगों को सिखाया । जब उन्होंने अनुभव किया कि उनका बड़ा पुत्र राज्यभार संभालने में और प्रजापालने में पूर्णरूप से समर्थ होगया है तो वे राज्यभार उस को सौंप कर और स्वयं सव कुछ त्याग करके चले गये और तपश्चर्या करने लगे। इस प्रकार अनादि परंपरा से चली आई श्रमण सस्कृति के निर्माण में आदितीर्थंकर श्री ऋषभ देव स्वामी का कितना हाथ है यह पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति की महानता ।
इस प्रकार श्रमण संस्कृति का वाह्य रूप लोगों को भले ही अाकर्षण करने वाला न लगे किन्तु उस का अान्तरिक स्वरूप बड़े ही महत्व का है। अान्तरिक स्वरूप के महत्त्व का कारण यही है कि इसकी
आधारशिला आध्यात्मिकता है। संसार की अन्य संस्कृतियां वाह्याडम्बर, टीप टाप भौतिकवाद, राजनैतिक चातुर्य और कूटनीतिज्ञता में विश्वास करती हैं किन्तु श्रमण संस्कृति वाह्यरूप में सरलता, निःस्पृहता
और अहिंसा में विश्वास करती है। श्रमण संस्कृति की नींव प्राध्यस्मिता , तपस्या, त्याग, सत्य और विश्व प्रेम पर रखी गई है । पं०
श्री राजीवि नोचन जी अमिहोत्री ने जो भारतीय संस्कृति पर निम्नलिखित पंक्तियां लिखी हैं वे श्रमण संस्कृति पर पूर्णरूप से घटित होती हैं:
“संसार के सभी प्राणियों को प्रात्मवत् मान कर उन से प्रेम, करुणा, उपकार; क्षमा, अहिंसा, और सहिष्णुता का भाव
* हि सं. अं. पृ० ४१० ।
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( २०६ )
रखना, उन के लिये अपने व्यक्तिगत जीवन के स्वार्थ, सुखोपभोग की लालसा ; यश और प्रतिष्टा की चाह का परित्याग करना , दूसरे के विनाश में अपना निर्माण देखने की लिप्सा समाप्त करना, घृणा, विद्वेष, अमहिष्णुता और मतान्धता को अपने जीवन में न आने देना तथा सामाजिक जीवन में भी उसे न फैलने देना; इन्द्रियों को संयम में कसकर अन्तः करण को पवित्रता की ओर बढ़ना. सत्वशुद्धि के लिये हो उपयुक्त जीवन-प्रणालीका निर्माण करना और द्वन्दों से ऊपर उठते हुए निष्काम भाव से कर्म करने की क्षमता प्राप्त करना यही भारतीय संस्कृति है । मनुष्य की पशुता मिटा कर उसे मानव बनाना और फिर ईश्वरत्वकी अो। उसे पुरस्सर काना भारतीय संस्कृतिका कार्य है ।"
इस प्रकार आकात्तिक, राजनैतिक और सामाजिक अादि सभी जोवन के क्षेत्रों से अनाग पंस्कृति विश्व को अन्य मस्कृतियों में बहुत ऊँचा स्थान रखती है। पांच महावतों के संक्षिप्त विवर्ण से ही पाठक भनी भाँति समझ गए होंगे कि श्रमण संस्कृति में मानव जीवन को अधो. गतिकी अोर लेजाने वाले हिंसा, असत्य, अनधिकार चेष्टा, असंयम
और तृष्णा का कितना विरोध किया गया है। संसार में व्यापक रूपसे फैली हुई विषमता, स्पर्धा, कलह और अशा न्स को मिटाने के लिये भ्रमण संस्कृति ने विश्वके सामने अहिसा, सत्य, समानत , संयम और याग के ग्रादर्शों को रक्खा है। इन आदर्शों पर चलने से ही विश्व में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है और मानव जाति आत्म कल्याण की ओर बढ़ सकती है ।
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