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________________ (१०७) लायक पक्षी के मांस से पांच महीने पर्यन्त पितरोंकी तृप्ति होती है २६८।। बकरी के मांस से छः मास, पृषतमृग के मांस से सात महीने एणजातीय हरिण के मांस से आठ महीने तक और रुरुनामक मृग के मांस से नौ महीने तक पितरों को तृप्ति हुआ करती है ।। २६६ ।। बनैले सूबर तथा जंगली भैंसे के मांस से दस महीने और खरहे तथा कछुए के मांस से ग्यारह मास पर्यन्त पितर तृप्त रहते हैं ॥ २०॥. ___ यज्ञ और भाद्धादि कर्मों में हिंसा विधान का फल यह हुआ कि वैदिक धर्मावलम्बी किसों काल में व्यापक रूप से आमिषाहार करने लग गए थे। शूद्रादि छोटी जातियों के लोग तो बिना किसी बाधा के मांसाहार करते ही थे किन्तु ब्राह्मणों नेभी यज्ञकी श्राई लेकर या मांसाहार पर धर्म की मोहर लगाकर मांसहार करना प्रारभ किया। इस प्रकार पशुत्रों का व्यापक रूप में संहार होने लगा और अन्त में हिंसा का जो भयानक और मानवजाति को पतन की ओर ले जाने वाला. परिणाम होता है वही हुआ। हिंसा से सामाजिक जीवन में निर्दयता, करता, दुष्टता और अत्याचार बढ़ने लगे और मानवता के आदर्श गुण समता, सहनशीलता, अनुकम्पा और सहृदयता मानव समाजसे लुप्त होने लगे। सारी समाजिक व्यवस्था बिगड़ गई और लोग बुरे कर्मों में प्रवृत्त होने लगे । पतनोन्मुख मानवसमाज को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करानेके लिये अब हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन की आवश्यकता थी। सौभाग्य से वैदिक धर्म से ही कुछ ऐसी सम्प्रदायों का जन्म हुआ बिन्होंने वैदिकी हिंसा का; विशेष किया। वैष्णव, स्वामीनारायण और आर्यममाज जैसी अनेक वैदिक धर्म की शाखाओं के धर्मगुरुओं ने वैदिक हिंसा का खुले मैदान में विरोध किया और हिन्दूसमाज की बहुत बड़ी संख्या की ग्राभिषाहारसे निवृत्ति कराने में वे साल भी हुए। हिंसा का विरोध करने के लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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