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. . मनु० अ० ५, श्लोक ३६. .... अर्थात्:- स्वयंभू ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये और यज्ञों की समृद्धि के लिये
पशुश्रो-को बनाया है। अतएव यज्ञ में पशु का वध अवध अर्थात् वधजन्य दोष रहित है । इसी प्रकार आगे लिखते हैं:
ओषध्यः पशवो वृक्षास्तियंचः पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ।।
मसु ० ५/४० औषधि, पशु, वृक्ष प्रादि और पक्षी ये सब यज्ञ के निमित्त मारे जाने पर फिर उत्तम योनि में जन्म ग्रहण किया करते हैं।
. याशिकी हिंसा के विधान की तरह बाद में होने वाली हिंसा का भी मनु जी ने विधान किया है। बाद में खिलाई जाने वाली किस २ वस्तु से कितने २ दिन तक पितर प्रसन्न रहते है इस का वर्णन करते हुए भाप लिखते हैं:
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान हरिणेन तु । औरभ्रणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै ॥ पएमासांश्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै । पष्टावणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति बराहमहिषामिषैः। शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव च ।।
अ. ३. लोक २६८, २६६, २७० अर्थात्:-पदिनी श्रादि मगलियों के मांस से दो महीने पर्यन्त, हरिण के मांस से तीन मास तक, भेड के मांस से चार महीने और खाने
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