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अनुकूल बना लेते हैं। इस से पूर्वाचार्यों के वास्तविक सिद्धान्तों की अशा कर दी जाती है और साहित्य में प्रक्षेत्र भरनेसे वा विपरीत अर्थ करने के कारण से धर्म में विकार उत्पन्न हो जाते हैं । इस से सामाजिक जीवन का पतन होता है और धर्म की निन्दा होती है। ऐसा प्रायः संसार की सब बातियों और धर्मों में होता आया है। अस्तु, अब हमने यह दर्शाना है कि वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों भारतीय धर्मों ने अहिंसा धर्म को किस प्रकार माना है और किस तरह इसका प्रचार किया है।
वैदिकधर्म में हिंसा अहिंसा पर दृष्टिपात।
सामान्य दृष्टि से 'अहिंसा परमो धर्मः' एक वैदिक सिद्धान्त हैं किन्तु वैदिक धर्मग्रन्थों में वेदों से स्मृतियों तक मांसभक्षण का विधान पाया जाता है। शतपथे और तैत्तिरीय आदि प्रामाणिक ब्राह्मणग्रन्थी में सोमयाग के वर्णन के साथ अश्व, गौ और अंज श्रादि पशुत्रों के मांस से यज्ञ करने का शास्त्रीय विधान मिलता है । इसी सत्य की आगे चलकर मनुमहाराज भी यंत्र संत्रं पुष्टि करते हैं। याज्ञिकी हिंसा का अनुमोदन करते हुए मर्नु जी कहते हैं:
यझार्थ पर्शवों वध्याः॥ अर्थतः- यज्ञ के लिये पशुओं को मारने में कोई दोष नहीं। और इसी प्रकार-याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति'। अर्थात्-यज्ञ में होने वाली हिंसा हिंम नहीं कहल.तो मनुजी ने तो यहां तक कह डाला कि:
यज्ञार्थ पराको संष्टा स्वयमेव स्वयंभुका। __ : यज्ञस्य मृत्यै सर्वस्व तस्माचई वघोऽवयः॥
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