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उन्होंने वैदिक धर्मस्यों का त्याग नहीं किया किन्तु ग्रन्थों में आनेवाले हिंसामूलक पाठों का अहिंसामूक अर्थ किया । उदाहरण के लिये गोमेध यज्ञ का विश्लेषण करते हुए आर्य समाज के सुयोग्य विद्वान् पं. गंगा प्रसाद जी लिखते है*:.. "बहुत से विद्वानों का कथन है कि वेद में पशुवध की श्राज्ञा है, यहां तक कि यज्ञ के लिये गोवध त का विधान है । वह प्रश्न इतना विवादास्पद है कि उस की यहां विवेचना नहीं की जा सकती। तथापि हम वैदिक यज्ञ गोमेध के सम्बन्ध में जिस के अर्थ गोवध के लगाए जाते हैं कुछ कहना उचित समझते हैं। हम इस यज्ञ को जिन्दावस्थामें भी पाते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती-प्राने सत्यार्थ प्रकाश में बतलाते है कि संस्कृत भाषा के 'गो' शब्द के अर्थ केवल गाय के ही नहीं प्रत्युत पृथ्वी और इन्द्रियों के भी है। गोमेघ का प्राधिभौतिक अर्थ खेती के लिये धरती बोतना और आध्यात्मिक अर्थ इन्द्रिय-दमन है। कुछ लोग इस व्याख्या का उपहास करते हुए उसे अर्थ की खींचातानी बताते हैं । वे यहां तक कह डालते हैं कि वेद के इस प्रकार अर्थ लगाना-अन्याय है। हमें देखना चाहिये कि डाक्टर हाग जैसे प्रामाणिक और विश्वस्त पुरुष पारसियों के विषय में क्या सम्मति देते हैं। “गोश उर्व का अर्थ पृथ्वी की सार्वभौमिक प्रात्मा है जो सब प्रकार के जीवन और वृदियों का कारण है। शब्द का अक्षरार्थ गौ की आत्मा है। यहाँ उपमालकार है क्योंकि पृथ्वी की गाय से तुलना की गई है। उस को काटने और बांटने से पृथ्वी में हल लगाने का अर्थ लिया जाता है। अर्मज़दा और स्वर्गीय सभा ने जो प्रादेश दिया है उसका मतलब यह
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*धर्म का प्रादि स्त्रोत पृ० १५४ । +देखो सत्यार्थप्रकाश ११ समु.१० ३.५।।
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