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________________ [ ३३ ] एक तो अशारीरिक दंड है जैसे धन और अन्य नौ शारीरिक दण्ड हैं। वहां लिखा है कि दंड देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जिस अंग के द्वारा अपराध किया गया हो उसी का निग्रह करना श्रावश्यक है दूसरे का नहीं। ठीक इसी प्रकार का मन्तब्य मनु जी का भी है। जैसे: येन येन यथांगेन स्तेनो नृषु विचेष्टते । तत्तदेव हरेत्तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः ।। ___ मनु० अ०८ श्लो० ३३८. चौर दूसरे की वस्तु जिस २ अंग से चुरावे राजा उस के उस अंग को कटवा डाले जिस से कि फिर कभी चोरी न कर सके । ___ यहां पर लिखना अप्रासंगिक न होगा कि जैन धर्म ग्रन्य स्थानाङ्ग सूत्र में दण्ड नीति के सात प्रकार बताए हैं (१) हक्कारे । (२) मक्कारे । (३) धिक्कारे । (४) परिभासे । (५) मण्डलीबन्धे । (६) कारागारे । (७) छविच्छेदे। छविच्छेद वा अंगच्छेद एक ही बात है। अतः अंगच्छेद दण्डनीति का सातवां प्रकार है। ठीक स्थानाङ्ग के समान ही लघ्वहन्नीति भी सात प्रकार के दण्डों का वर्णन करती है। जैसे:- (१) हाकार, (२) माकार, (३) धिक्कार, (४) परिभाषण, (५) मण्डलबन्ध, (६) काराक्षेपण, (७) अङ्ग खण्डन । इसी प्रकार वर्णव्यवस्था की स्थापना में भी वैदिक और बैन धर्म समान हैं । ऋग्वेद की ऋचा के अनुसार:'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् , बाहु राजन्यः कृतः ।' उरू तदस्य यद्वश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत् ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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